मूवी रिव्यू : काठमांडू कनेक्शन
विपुल रेगे। कोरोना काल में ख्यात और कुख्यात लोगों की मृत्यु की झूठी अफवाहें हवा में तैरती रहती है। पिछले दिनों कुख्यात डॉन छोटा राजन के बारे में खबर आई कि संक्रमण के चलते उसकी मौत हो गई। हालाँकि ये खबर झूठी पाई गई। छोटा राजन भारत में किसी न किसी कारण से प्रासंगिक बना ही रहता है। इन दिनों ओटीटी पर एक वेब सीरीज की बहुत चर्चा हो रही है। सोनी लिव पर प्रदर्शित ‘काठमांडू कनेक्शन’ नामक वेबसीरीज छोटा राजन और एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी पर आधारित है। कहा नहीं जा सकता कि ये वेब सीरीज सत्य के कितने आसपास है। वर्तमान में सत्य घटनाओं या व्यक्तियों पर जो फ़िल्में बनाई जा रही हैं, उनमे काल्पनिक तथ्य डाले जा रहे हैं।
कहानी एक टीवी पत्रकार को आने वाले ब्लेंक फोन कॉल्स से शुरु होती है। शिवानी भटनागर नामक ये पत्रकार पहले इसे सामान्य बात समझती है लेकिन बाद में ये कॉल्स बढ़ने लगते हैं। ये वही समय है, जब मुंबई में बम धमाके करने के बाद कुछ लोग दुबई भाग निकले थे। शिवानी को आने वाले कॉल काठमांडू के एक कसीनो से आ रहे हैं।
शिवानी इसके लिए पुलिस अधिकारी डीसीपी समर्थ कौशिक की मदद मांगती है। समर्थ को पता चलता है कि ये कॉल करने वाला मुंबई बम धमाकों से जुड़ा हुआ है। समर्थ कौशिक इसकी तह में जाने का प्रयास करता है। कसीनो चलाने वाला ओमप्रकाश सीधे समर्थ से दुश्मनी ले लेता है। छह भागों की ये वेब सीरीज एक अधूरे अंत पर समाप्त होती है और कुछ सवाल छोड़ जाती है।
मुंबई बम धमाकों की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में कुछ प्रसंग ऐसे जोड़े गए हैं, जो गले नहीं उतरते और बताते हैं कि निर्देशक ग्रिप लाने के लिए काल्पनिक तथ्यों का सहारा ले रहा है। अमित सियाल और अंशुमान पुष्कर न होते तो ये वेब सीरीज बड़ी ही बोझिल होती। अमित सियाल के सुंदर अभिनय के चलते ही फिल्म में मन लगा रहता है।
अंशुमान पुष्कर ने छोटा राजन प्रेरित पात्र अभिनीत किया है। वे एक उभरते हुए अभिनेता हैं। भविष्य में उनकी पूछ-परख अवश्य की जाएगी। अक्षा पारदासनी ने फिल्म में महिला पत्रकार का किरदार किया है। वे इस रोल के लिए मिसफिट थी। एक भी दृश्य में वे सहज पत्रकार नहीं दिखाई देती। सीबीआई अधिकारी के लिए गोपाल दत्त का चयन सही नहीं था।
उनका व्यक्तित्व सीबीआई अधिकारी का लगता ही नहीं है। एक ऐसी कहानी, जिस पर पहले कई फ़िल्में बनाई जा चुकी है, फिल्म बनाना बड़ा जोखिम था। एक सत्य कथा पर फिल्म तो बनाई लेकिन पात्रों के सही नाम नहीं रखे। दाऊद और छोटा राजन के किरदारों को दूसरे नाम दिए गए। जब आप ऐसा करते हैं तो दर्शक की फिल्म में दिलचस्पी कम हो जाती है और साथ ही फिल्मकार के साहस पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
अमित सियाल का किरदार एक कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी का है लेकिन उसके चरित्र को उलझे हुए धागों से बुना गया है। जब वह ईमानदार है तो दो मुस्लिम युवकों का फेक एनकाउंटर क्यों करता है ? फिल्म का बैकड्रॉप तो सत्यकथा से लिया गया लेकिन स्क्रीनप्ले ओम और समर्थ की आपसी लड़ाई पर केंद्रित कर दिया गया। सीरीज के क्लाइमेक्स में जो तथ्य सामने आते हैं, उन्हें दर्शक पचा नहीं पाता।
दाऊद इब्राहिम एक रहस्यमयी व्यक्तित्व है और उस पर कई रोचक फ़िल्में बनाई जा सकती है लेकिन कोई निर्देशक उसे लेकर शोध ही नहीं करता। आज दर्शक को आप दाऊद पर कोई फिल्म दिखाए तो वह उसका पाकिस्तान वाला जीवन देखना चाहेगा। वह देखना चाहेगा कि इतने वर्ष तक दाऊद भारत की सरकारों से कैसे बचता चला आ रहा है।
काठमांडू कनेक्शन को एक निष्ठावान प्रयास भी नहीं कहा जा सकेगा। एक बोझिल स्क्रीनप्ले को लेकर छह भाग बनाए गए हैं। आखिर के दो पार्ट तो घसीटते से महसूस होते हैं। काश कि निर्देशक में इतना साहस होता कि वह किरदारों को उनके असली नाम से प्रस्तुत करता। लेकिन यदि वह ये करता तो छोटा राजन के जीवन में काल्पनिक कहानियों को कैसे जोड़ सकता था। बहुत ही निराशाजनक।