नेपोटिज़्म को लेकर फिल्म उद्योग में चल रहा युद्ध और तीखा हो चला है। कंगना रनौत और शेखर कपूर इस लड़ाई में खुलकर कूद पड़े हैं। हाल ही में कंगना ने बयान दिया है कि यदि वे अपने आरोप सिद्ध नहीं कर पाती तो अपना पद्मश्री सम्मान देश को वापस लौटा देंगी। सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के बाद इंडस्ट्री नेपोटिज़्म को लेकर दो धड़ों में बंट गई है। कंगना महेश भट्ट और करण जौहर के बारे में दिए गए बयानों पर कायम हैं। उधर मुंबई पुलिस तथ्यपरक जाँच करने के बजाय इस प्रकरण को जैसे-तैसे ठंडा करने में जुट गई है। महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार ने भी अब तक इस बात की जरूरत नहीं समझी है कि केंद्र सरकार से सीबीआई जाँच की मांग कर ली जाए।
लॉकडाउन के दौरान कंगना रनौत मनाली में अपने होम टाउन में छुट्टियां बिता रही हैं। महेश भट्ट और करण जौहर पर दिए गए बयानों को लेकर मुंबई पुलिस ने कंगना को सम्मन भेजकर तलब किया है। सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत को आत्महत्या बनाकर फ़ाइल बंद करने की जल्दबाज़ी में पुलिस मुकेश भट्ट और उन अज्ञात दोस्तों को बुलाना भूल गई, जो उनकी मौत से एक रात पहले उनके घर पार्टी करने आए थे।
पुलिस ने सुशांत के नौकर से कड़ी पूछताछ नहीं की। कुछ संदिग्ध लोगों को पुलिस छोड़ देती है और इस मामले पर आवाज़ उठाने भर से कंगना को सम्मन भेज दिया जाता है। आखिर मुंबई पुलिस किसके इशारे पर इस केस को जल्द से जल्द खत्म करने का प्रयास कर रही है।
कंगना ने मुंबई पुलिस से पूछा है कि करण जौहर और महेश भट्ट से कब पूछताछ की जाएगी। पुलिस इस मामले में दाऊद एंगल क्यों नहीं देख पा रही है। राज्य सरकार और केंद्र सरकार क्यों नहीं देख पा रही है कि फिल्म इंडस्ट्री दाऊद और आईएसआई के कब्जे में है। नई सरकार को आए छह वर्ष होने आ रहे हैं लेकिन फिल्म उद्योग से इस गंदगी को साफ़ करने की शुरुआत क्यों नहीं की गई।
एक समय ऐसा आएगा जब बॉलीवुड को नई प्रतिभाएं मिलना ही बंद हो जाएगी। नेपोटिज़्म और दाऊद गैंग की दहशत इस उद्योग को प्रतिभाओं से खाली कर देगी। नई सरकार आने के बाद एक बदलाव अवश्य आया कि फिल्मों के लिए बैंक लोन के रास्ते खोल दिए गए। दिवंगत सुषमा स्वराज की इस पहल से दाऊद गैंग व फिल्म निर्माताओं को ब्याज पर पैसा देने वाले सूदखोरों का शिकंजा इस उद्योग से ढीला पड़ा लेकिन छूटा नहीं। ये गैंग फिल्म प्रोडक्शन से लेकर संगीत के बाजार तक अपना दखल रखती है और कोई सरकार इनको हिला नहीं पाती।
इंडस्ट्री में संघर्ष कर रहे नए कलाकार दो पाटन की चक्की में पीस रहे हैं। एक ओर से खानदानी फिल्मवाले हैं और दूसरी और डी-गैंग बैठी हुई है। यदि कलाकार इन दोनों में से एक से सांमजस्य बैठा लेता है तो उसे काम मिलता रहेगा, नहीं तो उसकी गति विवेक ओबेराय और सुशांत सिंह राजपूत जैसी हो जाती है। कुछ फ़िल्मकार ये मान बैठे हैं कि फ़िल्मी खानदान में पैदा हुई संतानें पेट से अभिनय सीखकर आती है।
फिल्म निर्देशक आर.बाल्की ने शेखर कपूर से बहस में बोला है कि आज के दौर में आलिया और रणबीर से बेहतर अभिनेता नहीं है। इस पर शेखर कपूर ने उन्हें सन 2013 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘काई पो छे’ की याद दिलाते हुए बताया कि इस फिल्म से राजकुमार राव, अमित साध और सुशांत सिंह राजपूत की इंडस्ट्री में एंट्री हुई थी। शेखर कपूर ने बाल्की को सटीक उदाहरण दिया है। स्टार किड्स पेट से अभिनय सीखकर नहीं आते। आते तो आज अभिषेक बच्चन, सोनम कपूर, सूरज पंचोली इस तरह मार्केट से बाहर नहीं कर दिए जाते।
एक स्टार किड सिकंदर खेर भी हैं। सिकंदर के पिता अनुपम खेर और माँ किरण खेर हैं। अनुपम खेर के साथ किरण भी लम्बे समय से इंडस्ट्री में काम कर रही हैं लेकिन इन दोनों ने सिकंदर के लिए कभी सिफारिश नहीं की। सिकंदर और शाहिद कपूर जैसे स्टार किड्स ने अपना आकाश खुद तलाशा है। एक तरफ कुछ ऐसे सितारें भी हैं, जो अपने बच्चों को करोड़ों खर्च कर लॉन्च करवाते हैं।
हालांकि बॉक्स ऑफिस की मिट्टी ऐसी है कि वह विरासत को धूल में मिला देता है और मिट्टी से नए सितारें खड़े कर देता है। बॉक्स ऑफिस को मैनेज नहीं किया जा सकता क्योंकि ये जन सामान्य की अदालत है। इसमें किसी तरह का घालमेल कर किसी प्रतिभाहीन को सितारा नहीं बनाया जा सकता। जैसे गुलशन कुमार ने अपने भाई किशन कुमार को धूमधाम से लॉन्च किया। सपाट चेहरे वाले किशन कुमार का खाता खुलकर कब बंद हो गया, किसी को पता ही न चला।
भारत की राजनीति में एक दल के नेपोटिज़्म का परिणाम ये हुआ कि अब उस दल में अधिकांश बुढ़ाते नेता बचे हैं। खानदान के अयोग्य वारिस को गद्दी पर बैठाने की चाह के चलते अन्य महत्वाकांक्षी युवा दल से दूर होते चले गए। राजनीति और मुंबई फिल्म उद्योग के नेपोटिज़्म में कुछ ख़ास अंतर् नहीं है। पार्टियों में कार्यकर्ता दरी उठाते-उठाते बूढ़ा हो जाता है और मंत्री का बेटा टिकट ले उड़ता है।
फिल्म उद्योग को डी-गैंग और नेपोटिज़्म ने भीतर से खोखला कर दिया है। लौटने ही युवा कलाकार जो हिंदी फिल्म उद्योग के लिए संजीवनी बन सकते थे, अब मराठी और भोजपुरी फिल्म उद्योग में सेवाएं दे रहे हैं। वहां उनकी कला को सम्मान मिलता है। दलदल में फंसा बॉलीवुड खुद बाहर निकलने की पहल नहीं कर सकता, इसे निकालना ही होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो अगले कुछ साल में हम दर्शक दूसरी भाषाओं की डब फ़िल्में देखने लगेंगे।