अभिजीत सिंह। बाईबल शब्द यूनानी मूल शब्द ‘बिबलिया’ से निकला है, जिसका अर्थ है ‘पुस्तकें’ यानि बाईबल माने पुस्तकों का संकलन। ये दो भागों में बंटा है, उसका पूर्व भाग पुराना-नियम (ओल्ड-टेस्टामेंट) तथा उत्तर भाग नया-नियम (न्यू टेस्टामेंट) के नाम से जाना जाता है। पुराने नियम में ईसा से पूर्व आये यहूदी पैगम्बरों तथा यहूदी इतिहास का वर्णन है तथा नया-नियम ईसा के जीवन, उनकी शिक्षाओं से संबंधित तो है ही साथ ही ईसाईयत के आरंभिक विस्तार के बारे में भी बताता है।
ईसा मसीह का जन्म, उनका अज्ञातवास, सूलीकरण, उनके पुनर्जीवन और फिर आसमान पर उठाये जाने या भारत आने की कथाओं को लेकर ईसा के आरंभिक शिष्यों में काफी मतभिन्नताएं थी। इसलिए सूलीकरण के बाद से ही उनके शिष्यों ने अपने-अपने हिसाब से उनकी जीवन-गाथाएँ लिखनी शुरू की और उनके उपदेशों का संग्रहण आरम्भ कर दिया। हुआ ये कि सूलीकरण के करीब तीन सौ साल के अंदर-अंदर ईसा के जीवन और उपदेशों पर आधरित करीब 104 सुसमाचार रचे गए, जिनमें आपस में जबर्दस्त मतभिन्नताएं थी। किसी भी दो सुसमाचार की विषय-वस्तु एक सी नहीं थी। परिणाम ये हुआ कि एक मत या पंथ के रूप में ईसाईयत को स्थापित करना असंभव हो गया। 325 ईसवी में ईसाईयत को धराशायी होता देखकर उसे फिर से एक करने हेतू उस समय के रोमन सम्राट Caesar Flavius Constantine ने Nicea नाम के स्थान पर ईसाई मत के तमाम विद्वानों की एक सभा बुलाई, जिसे इतिहास में Council of Nicea के नाम से जाना जाता है।
इस बैठक के बुलाने के एक उद्देश्य तो ईसाईयत के भीतर के झगड़ों का समाधान खोजना था और इसके बाकी उद्देश्यों में ईसा के धर्मशिक्षाओं में से सही और गलत का चुनाव करना था। यहाँ ये भी तय किया जाना था कि ईसा नबी थे या खुदा के बेटे या फिर कोई आम इंसान, साथ ही ईसा के जीवन तथा ईसाई त्योहारों की तिथियाँ भी निरुपित की जानी थी। नीसिया के इस धर्मसभा में 300 बिशप तथा 104 दस्तावेज मौजूद थे जिसमें हरेक का दावा था कि उसका सुसमाचार ही सबसे प्रमाणिक और सत्य के करीब है। इस धर्मसभा में झगड़े शुरू हो गए और सिर्फ 18 लोगों के बहुमत से बाईबल के नए स्वरुप को थोप दिया गया। इसमें केवल मैथ्यू, मार्क, लूका और जॉन नाम के चार लोगों के सुसमाचारों को ही शामिल किया गया और बाकी सुसमाचारों को Constantine ने नष्ट करवा दिया।
इसका अर्थ ये है कि वर्तमान बाईबिल मूल या प्रमाणिक है ऐसा दावा नहीं किया जा सकता क्योंकि बिना किसी आधार के निसिया की धर्मसभा में 100 सुसमाचारों को ख़ारिज कर दिया गया था। आज मध्यपूर्व के देशों से नीसिया धर्मसभा में खारिज किये गये स्क्रोल्स (गोस्पेल्स) मिल रहें हैं जिसका ईसाईयत के वर्तमान स्वरुप की कोई साम्यता नहीं है और इसलिये उनके स्तंभ एक के बाद एक धाराशायी होते जा रहे हैं। ईसाई जगत खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है क्योंकि ईसाईयत के जिन सिद्धांतों और मान्यताओं के ऊपर वो आज तक आँख बंद कर विश्वास करते रहे थे वो सबके सब भ्रम की तरह टूट रहें हैं। जुडास का विश्वासघात, ईसा का सूलीकरण, पुनर्जीवन, सदेह स्वर्गारोहण के दावे ज्यों-ज्यों खारिज हो रहें हैं त्यों-त्यों ईसाईयत की बुनियाद दरक रही हैं और वहां क्रिसमस की छुट्टी केवल विंटर वेकेशन बनकर रह गई है। इसी के कारण आज जिज्ञासु ईसाई जगत परम सत्य की खोज में योग और अध्यात्म के जरिये भारत और हिंदुत्व का रुख कर रहें हैं मगर प्रश्न ये है कि सेकुलरिज्म की अफीम चाटकर हिंदुत्व से दूर जा चुका भारत क्या उनका मार्गदर्शन कर सकेगा ?