विपुल रेगे। झूमे गाँव, है रेला, ऊँचा पाँव यूँ पटका, है ये देसी एक मेला, कैसा रहा यकायकी। राजामौली का बसाया गाँव ऑस्कर जा पहुंचा है। जहाँ राजामौली ने अपना ऊंचा पांव पटका, वह देसी मेला नहीं था। विदेशी धरती पर देसी पैर पटकने का मज़ा कुछ और ही होता है। कल ऑस्कर के चमचमाते मंच पर केवल संगीतकार एमएम किरावनी ही मौजूद नहीं थे, उनके साथ वहां उल्लासित भारत भी मौजूद था। पिछले दो दिनों में किरवानी देश के देसी चौराहों पर किवंदती बनते दिखाई दिए। ऐसा बहुत ही कम होता है, जब किसी गीत के पीछे खड़े संगीतकार का नाम चाय और पान की दूकान पर सुना जाता है।
चाय के ठिये, पान की दूकान, कटिंग सैलून और सब्जी मंडी भारत के मिज़ाज को दर्शाने वाले इंडेक्स हैं। इन देसी सूचकांकों की महत्ता नए युग में भी कम नहीं हुई है। देश का माहौल बताने में इन देसी सेंटर्स की विश्वसनीयता आज भी बनी हुई है। विगत दो दिन ‘नाटू-नाटू’ इन्ही देसी सेंटर्स पर चर्चा का विषय बना रहा। मध्यप्रदेश के इन्दौर के एक अंतरराष्ट्रीय टिंबर मार्केट में निम्न मध्यमवर्ग और निर्धन वर्ग की सबसे अधिक मौजूदगी होती है।
यहाँ के ठियों पर दो दिन तक राजनीति, महंगाई, तीसरे विश्व युद्ध की गर्मागर्म बहसों के बीच एम. एम. किरावनी का नाम गर्व के साथ सुनना सुखद अनुभव रहा। जी हाँ, ऑस्कर जीत का गर्व और अभिमान भारत ने बराबरी से बाँट लिया है। प्रधानमंत्री द्वारा दी गई बधाई और टिंबर मार्केट में बैठे एक मजदूर के बीच ऑस्कर की ख़ुशी बराबर बाँट ली गई है। यही भारत है और ऐसा ही इसका चरित्र है। विदेशी धरती पर कोई भी जाकर, किसी भी क्षेत्र में झंडा गाड़ दे तो वह ख़ुशी अकल्पनीय होती है।
इस ख़ुशी का मनोविज्ञान ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन है। विश्वकप जीतना और ऑस्कर जीतने की खुशियों की तीव्रता समान है। इस ख़ुशी के साथ एक ग़म भी आया है। हमारी ये फिल्म एक बेस्ट गीत के अवार्ड के कहीं अधिक डिजर्व करती थी। इसके हिस्से अधिक खुशियां आनी चाहिए थी। अब तो ऑस्कर में ‘लार्जर देन लाइफ’ फ़िल्में भी स्वीकारी जा रही है इसलिए ‘आरआरआर’ के एक्शन दृश्यों को लेकर ये नहीं कहा जा सकता कि इनमे वास्तविकता होनी चाहिए थी।
भारतीयों को कमतर समझने की गठानदार परंपरा ‘ऊंचा पांव’ पटकने से टूट गई, ऐसा तो कतई नहीं है लेकिन ऑस्कर के गांव को ‘देसी’ बनाने का कदम उठा लिया गया है। राजामौली ने जो छोटी सी राह बनाई है, वह उस पगडंडी पर बनाई है, किसे कभी सत्यजीत रे ने बनाया था। आगे जाकर और कोई होनहार निर्देशक राजामौली की छोटी सी राह पर हाइवे बना डालेगा।
भारतीय फिल्मों को कमतर समझने की परंपरा टूट रही है, ये एक शुभ संकेत है। हालाँकि इधर के फिल्मकारों को भी ये विचार करना चाहिए कि विश्व सिनेमा के स्तर की फिल्मों का निर्माण भारत की ओर से हो। महंगाई, बेरोजगारी, निर्धनता से भारत आज भी जूझ रहा है।
‘इस जुझारु संघर्ष में हर भारतीय सुकून लेने के लिए फ़िल्में देखता है। कभी-कभी कोई फिल्म उसके घर तक आ पहुँचती है। और जब उस फिल्म से राष्ट्र का गौरव जुड़ा हो तो वह अपने ढंग से मोटा रोट और मिर्चा खा के अपना ऊंचा पाँव पटक लेता है।‘