
वहां राम मंदिर ही तो है!
कहते हैं कि अफवाहों की उम्र नहीं होती. अफवाहों के पैर नहीं होते, और हवा में वह कितने दिन तक रहेंगी, जबकि सत्य के पैर होते हैं, वह धीरे धीरे चलता है, ठोस होता है, धरातल पर टिका हुआ, इसलिए सामने आने में समय लगता है. और जब तक वह सत्य सामने आता है तब तक अफवाह एक ऐसे चक्र का निर्माण कर लेती है, जिसमें से बाहर आना सम्भव नहीं होता. वह एक तंत्र पर कार्य करते हैं. और यह तंत्र इतना मजबूत होता है कि बार बार सत्य को भी स्वयं को प्रमाणित करने के लिए समय लगता है.
ऐसा ही एक सत्य है, और यह आज का सत्य नहीं है, यह युगों युगों से चला आ रहा सत्य है कि अयोध्या में राम मंदिर था. राम अयोध्या में ही जन्मे थे. मनु की बसाई हुई अयोध्या नगरी अपने राम की प्रतीक्षा में न जाने कब से थी. राम आए और जब राम इस धरा से गए तो उन्हें यह विश्वास ही न रहा होगा कि एक दिन ऐसा आएगा कि उन्हें अपने ही होने का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा. यह सब क्यों हुआ, उसके पीछे सदियों का षड्यंत्र है. अयोध्या, अर्थात जिसे कोई जीत ही नहीं सकता है, अयोध्या जिसकी सीमा आरम्भ होते ही करोड़ों भक्त अपनी चप्पल उतार कर थैले में रख लेते हैं. अयोध्या वह है.
मगर एक दौर आया जब गिन गिन कर हिन्दुओं के सभी स्मृति चिन्हों को, उनके गौरब के प्रतीकों को नष्ट किया गया. अयोध्या को फैजाबाद कर दिया गया. भारत हमेशा से ही विदेशी आक्रान्ताओं के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा. जब इस्लाम का आक्रमण भारत पर हुआ तब हिन्दुओं के प्रतीकों पर पूरी तरह से आक्रमण कर भारत को चेतनाविहीन करने का कार्य किया गया. यह सब उन्होंने अपने मजहबी जूनून में किया. सबसे पहले वर्ष 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मंदिर को तोड़कर उस पर मस्जिद बनाई.
मंदिर तोड़ने का इतिहास न ही बाबर से आरम्भ हुआ और न ही औरंगजेब पर खत्म हुआ. मंदिर तोड़ने का क्रम भारत में पहले से चला आ रहा था. और सोमनाथ मंदिर को तोड़ने से जो यह सिलसिला चला वह आज पकिस्तान और जहां पर भी मुस्लिम जनसँख्या अधिक होती है, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान में हम अब मंदिरों को केवल तभी खोज सकते हैं जब खुदाई हो. अभी भी कई मस्जिदों के नीचे मंदिर दबे पड़े हैं.
और यह सब ऐतिहासिक तथ्य हैं, इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है. राम अयोध्या में थे, अयोध्या में हैं और अयोध्या में रहेंगे यही सत्य है. परन्तु राम को विस्थापित करने का प्रयास जितनी बार इस्लाम के आक्रान्ताओं ने किया उससे कहीं अधिक बार प्रहार किया भारत की अपनी संतानों ने, और यह प्रहार बहुत ज्यादा भयानक था. क्योंकि इस्लामी आक्रान्ताओं ने तो केवल मंदिर तोड़े, मगर कलम के सिपाही होने का दावा करने वालों ने तो राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिए. जैसे ही उन्होंने कहा कि रामायण और महाभारत मिथक हैं, वैसे ही तमाम तरह के वैकल्पिक अध्ययनों की होड़ लग गयी और मिथकों का इतिहास क्या की तर्ज पर राम को नकारने का क्रमबद्ध अभियान चला. राम को ऐसा मान लिया गया जैसे सबसे त्याज्य! सबसे निकृष्ट!
यह एक क्रमबद्ध तरीके से किया गया, पहले रामायण और महाभारत को मिथक घोषित किया गया और उसके बाद उत्तर रामायण पर ध्यान केन्द्रित करने के द्वारा राम को स्त्री विरोधी घोषित किया गया. राम को आम जन के मन से दूर किया गया, राम के विषय में पढ़ना पिछड़ापन घोषित किया गया, और समानांतर रावण और मेघनाद की वीरता के बारे में ग्रन्थ लिखे गए, प्रक्रारांतर राम को नीचा दिखाने के लिए बौद्धिक प्रयास किए गए! युवा होते विद्यार्थियों को मेघनाद वध जैसे खंडकाव्यों को पढाया गया. जहां पर रामायण को पढाया जाना था, वहां पर मेघनाद और कर्ण जैसे प्रतिनायकों की महिमा को पढ़ा कर बच्चों को राम और कृष्ण से दूर करने के हर सम्भव प्रयास किए गए, इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी पीढ़ी रामायण से कट गयी और इन्हीं प्रतिनायकों को नायक मानकर बड़ी हुई. और जब राम मंदिर का मामला न्यायालय में गया, या उससे भी पहले जब 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ तब ऐसे ही लोग जाकर मंदिर के विरोध में खड़े हो गए. जब मंदिर का आन्दोलन चल रहा था तब भी मंदिर के स्थान पर अस्पताल आदि बनवाने की बातें करते रहे. जिनका कार्य होना चाहिए था अपनी संस्कृति के विषय में रचनाएं लिखकर अपने देश की पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़े रखने का, वह राम के विरोध में लिख रहे थे, वह राम मंदिर के स्थान पर कभी मस्जिद या कभी अस्पताल आदि की बातें कर रहे थे.
मेरी ही एक मित्र थी, तब हम लोग कक्षा नौ में पढ़ते थे, जब बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ! उसने कहा “कितना अच्छा हो कि वहां पर विश्व मंदिर बने, जहाँ पर सभी धर्मों के नेताओं की तस्वीरे हों” उम्र हम लोगों की 12 से 13 वर्ष के बीच ही रही होगी. मैंने तत्काल उससे प्रश्न किया “क्या वहां पर मुहम्मद साहब भी पैदा हुए थे? और जीसस भी?” न जाने क्यों आज इतने बरसों बाद भी यही एक पंक्ति जिस पर हम दोनों का विवाद हुआ, हम एक साथ नहीं आ पाए! कितना जहर और असहिष्णुता उस वैकल्पिक अध्ययन ने भर दी थी.
जब मामला अदालत में था तब तो जैसे बाढ़ ही आ गयी थी, जो यह कहते थे कि वहां पर राम मंदिर था ही नहीं. बौद्ध मंदिर के अवशेष मिले हैं. या तो मस्जिद ही है नहीं तो बौद्ध मंदिर. न जाने एक कहानी या एक कविता लिखने वाले और जुगाड़ से पीएचडी में प्रवेश लेकर, साहित्य में भाई भतीजावाद करने वाले लोग समय समय पर पुरातत्वविद, इतिहासकार सभी बन जाते हैं.
आज जब खुदाई में एक बार फिर से मंदिर के अवशेष प्राप्त हो रहे हैं, तब एक बार फिर से उनका रोना आरम्भ है. यह एक झूठा रोना है और यह रोना कि मंदिर था ही नहीं तब से चालू है जब वर्ष 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए मंदिर के स्थान को तीन भागों में बांटने का आदेश दिया था. परन्तु इस मामले को किसी भी पक्ष ने नहीं माना था. यह तो बात तय ही थी कि वहां पर मंदिर था, क्योंकि यदि मंदिर न होता तो यह मामला इतना न लटकता. देश का बुद्धिजीवी वर्ग सितम्बर 2010 में भी उतना ही निराश हुआ था, जितना निराश वह राम मंदिर का निर्णय आने के बाद हुआ था. मुझे याद है कि रोमिला थापर, केएम श्रिमाली, डीएन झा, शिरीन मूसवी, इरफ़ान हबीब, ज़ोया हसन, प्रभात पटनायक और जयती घोष समेत कुल 61 कथित प्रबुद्ध लोगों ने एक बयान जारी किया था. जिसका लब्बोलुआब यह था कि फ़ैसले में कई सबूतों को लिया ही नहीं गया है जो इस फ़ैसले के विरोध में अदालत में पेश किए गए थे.
यह वह प्रजाति है जो सत्य को देखना ही नहीं चाहती है. वह मुस्लिमों की बात करती है, मगर जब के के मोहम्मद बाबरी मस्जिद के स्थान पर मंदिर का उल्लेख करते हैं तो उनकी बात नहीं सुनती हैं. वह के के मोहम्मद को अनदेखा करती है और शोर मचाती है कि मंदिर नहीं था, मंदिर नहीं था, मंदिर नहीं था, क्योंकि तुल्सीदास ने उल्लेख नहीं किया है. इनसे पूछा जाए कि क्या यदि तुलसीदास ने लिखा होता तो वह मान लेते? नहीं, जिस तरह से वह यह तर्क ले आए कि इलाहाबाद का नाम मनु की बेटी इला के नाम पर पड़ा है तो वह इसी तरह इसके लिए भी कोई न कोई कुतर्क ले आते.
यह मूलत: एक प्रश्नवाचक प्रजाति है, जिसके जीवन का एक ही उद्देश्य है अपनी पहचान को भ्रमित करते रहना, अफवाहों का दौर चलाकर देश को अस्थिर किए रखना, राम को न मानकर रावण को नायक मानन, संक्षेप में भारत और हिन्दू संस्कृति का विरोध करना!
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