एक दूसरे ज्ञान की दिशा है, जिसको ब्रह्मविद्या कहा है। ब्रह्मविद्या का प्रयोग बिलकुल अन्यथा है। विज्ञान का प्रयोग है, चीजों को तोड़कर जानना। ब्रह्मविद्या का प्रयोग है, चीजों को उनकी सभ्यता में, जोड़ में जानना। ब्रह्म का अर्थ है, इस सारे अस्तित्व का जो जोड़ है—समग्र—उसको सीधा ही जानना, बिना तोड़े। उसको अलग—अलग खंडों में बांटकर नहीं जानना; उसकी समग्रता में, उसके अंतर्संबंधों में, उसकी इकाई में, उसकी एकता में जानना। यह अस्तित्व पूरा—का—पूरा सीधा जाना जा सके।
वृक्ष को मैं अलग से जानने न जाऊं; पशुओं को अलग से पहचानने न जाऊं; आदमी को अलग से खोजने न जाऊं, पत्थर और पहाड़ और चांद और तारे, इनको अलग—अलग बांटू नहीं, यह जो सारा अस्तित्व का इकट्ठा जोड़ है, इस जोड़ को ही सीधा जानने की कोशिश में लगू उस कोशिश का नाम ब्रह्मविद्या है। यह भी समझने जैसा है कि विज्ञान जब चीजों को तोड़ता है, तो भीतर मनुष्य के मन को भी तोड़ता है। इसीलिए ‘स्पेशलाइजेशन’ पैदा होता है। जो आदमी पदार्थ के संबंध में खोज करता है, उसके मन का एक ही हिस्सा विकसित हो पाता है—वह हिस्सा जो पदार्थ के संबंध में खोज में लगता है।
वैज्ञानिक यह कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क के सब हिस्से —अलग काम करते हैं। जिस हिस्से से आप प्रेम करते हैं, उस हिस्से से आप गणित नहीं करते। और जिस हिस्से से आप गणित करते हैं, उस हिस्से से आप खेती—बाड़ी नहीं करते। और जिस हिस्से से आप दुकान चलाते हैं, उससे आप ‘पेंटिग’ नहीं करते, चित्र नहीं बनाते, कविता नहीं लिखते।
अब यह मजे की बात है कि विज्ञान अज्ञान को थोड़ा हटा पाता है, बढ़ा भी जाता है। ब्रह्मविद्या अज्ञान को हटाती नहीं पीछे, विसर्जित करती है। ब्रह्मविद्या अज्ञान के साथ संघर्ष नहीं है, बल्कि ज्ञान का जागरण है। ब्रह्मविद्या अज्ञान को धक्के नहीं देती, ज्ञान को जगाती है।
मनुष्य का मन कोई सात करोड़ कोशों से निर्मित है। और मन के अलग—अलग हिस्से अलग—अलग काम करते हैं। इसलिए काम बदलने में ‘रिलेक्सेशन’ भी हो जाता है। एक आदमी किताब पढ़ रहा है, किताब पढ़ना छोड्कर उसने रेडियो सुनना शुरू कर दिया। अगर मन इकट्ठा काम करे तो किताब पढ़ने में जो मन लगा था वही रेडियो सुनने में लगे, तो थकान और बढ़ेगी, घटेगी नहीं। लेकिन मन का एक कोना किताब पड़ता है, दूसरा कोना रेडियो सुनता है, इसलिए जब आप किताब पढ़ना बंद कर देते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, तो आपके मन को विश्राम मिल जाता है। वह जो हिस्सा काम कर वहा था किताब पर वह विश्राम कर लेता है। जब आप एक काम से दूसरा काम करते हैं, तत्काल मन को विश्राम हो जाता है। वह हिस्सा शांत हो जाता है जिसको काम करना पड़ा था, दूसरा हिस्सा काम में लग जाता है।
और आमतौर से यह होता है कि लोग सब काम बंद करके बैठते हैं, जैसे कोई आदमी ध्यान करने बैठता है, तो मुश्किल में पड़ जाता है। मुश्किल में इसलिए पड़ जाता है कि उसकी जो निश्चित ‘एनर्जी ‘ प्रतिपल काम करती है वह एक कोने में काम करती है, अगर दूसरे कोने में काम करने लगे, तो एक कोना आराम कर लेता है। अगर वह सब कोनों को विश्राम देना चाहे तो वह जो शक्ति उसकी काम करती है, वह भटकती है और विश्राम मुश्किल हो जाता है। इसलिए ध्यान में लोगों को कठिनाई होती है।
लोग ध्यान के लिए बैठते हैं तो कहते हैं, न—मालूम कहां—कहां के खयाल आते हैं, इतने खयाल तो अगर हम जमीन में गड्ढा भी खोदने लगें तो नहीं आते। कोई भी ताश खेलने लगें तो नहीं आते। सिगरेट पीने लगें, तो नहीं आते। यह जब ध्यान के लिए बैठते हैं, तो मन न—मालूम कितने विचारों से भर जाता है।
उसका कुल कारण इतना है कि आपने अपनी पूरी शक्ति को विश्राम देने का कभी कोई अभ्यास नहीं किया है। एक कोने में काम को हटाकर दूसरे कोने में सदा लगा दिया है। लेकिन शक्ति काम में लगी रहती है। एक कोने से दूसरे, दूसरे से तीसरे, और मन के हजार खंड हैं।
विज्ञान जब बाहर चीजों को बांटता है, तो भीतर मन को भी बांट देता है। तो वैज्ञानिक के मन का हिस्सा तो विकसित हो जाता है, शेष हिस्से अविकसित रह जाते हैं।
ब्रह्मविद्या में यहां फिर फर्क है। ब्रह्मविद्या अस्तित्व को बांटती नहीं, इसलिए मन को भी नहीं बांटती। अस्तित्व बाहर एक है, यह जाननेवाला भी भीतर एक हो जाता है। जब हम पूरे अस्तित्व को एक मानकर चलते हैं, तो भीतर हमारा मन भी एक हो जाता है। और इस मन की इकाई में ही वह ज्ञान का जन्म होता है, जिससे अज्ञान पीछे नहीं हटता, समाप्त हो जाता है। निश्चित ही यह ज्ञान और तरह का होगा।
अगर आप महावीर से, या बुद्ध से, या उपनिषद के ऋषि से जाकर पूछें कि मेरे दांत में दर्द है तो कौन—सी दवाई का मैं उपयोग करूं, तो महावीर, या बुद्ध, या उपनिषद का ऋषि आपका जवाब नहीं दे पाएंगे। क्योंकि दांत के दर्द का मतलब हुआ, दर्द को हमने बांट लिया। दांत का दर्द है, सिर का दर्द है, पैर का दर्द है, दर्द भी हमने बांट लिये।
हां, अगर आप महावीर से पूछें कि मैं दर्द में हूं क्या करूं, तो महावीर उत्तर दे सकते हैं। अगर आप कहें मैं दुख में हूं और महावीर से पूछें तो महावीर उत्तर दे सकते हैं। लेकिन आप कहें मेरा पेट दुखता है, तो महावीर उत्तर नहीं दे सकते। तब आपको वैज्ञानिक के पास ही जाना चाहिए। जहां सब चीजें बांटकर चलती हैं।
महावीर या बुद्ध के पास सब चीजें अनबंटी हैं, अविभाज्य हैं। आप पूछें कि दुख कैसे मिटे, विशेष दुख की बात न पूछें, तो महावीर बता सकेंगे कि दुख ऐसे मिटे। अगर आप यह पूछें कि यह बीमारी कैसे मिटे, तो महावीर न बता सकेंगे। लेकिन आप यह पूछें कि यह जीवन का रोग ही कैसे विलीन हो जाए, तो महावीर बता सकेंगे।
बुद्ध ने स्वयं को वैद्य कहा है। बुद्ध ने कहा है, मैं वैद्य हूं लेकिन बीमारियों का नहीं, बीमारी का। और यह सारा जीवन एक दुख है अगर, तो मैं वैद्य हूं। बुद्ध एक—एक पत्तेवाली बीमारी को काटने नहीं जा सकते हैं, लेकिन बीमारी की पूरी जड़ को काटने के लिए तैयार हैं। उनका जो जानना है, वह समग्रीभूत है, इकट्ठा है। उन्होंने जो भी जाना है अस्तित्व के बाबत, स्वयं के बाबत, वह तोड़कर नहीं जाना है, इकट्ठा ही जाना है।
इसलिए यह मजे की बात है कि वैज्ञानिक आपके दर्द मिटाने की आपको सलाह दे सकता है, लेकिन स्वयं दर्द के पार कभी नहीं जा पाता। आपको हजार दुखों को मिटाने की सहायता पहुंचाता है, लेकिन खुद हजार तरह के दुखों में घिरा रहता है। महावीर या बुद्ध आपके किसी भी एक दुख को मिटाने का उपाय नहीं बता सकते, लेकिन दुख के बाहर हो जाते हैं। आपको भी दुख के बाहर हो जाने का उपाय बताते हैं। तो ब्रह्मविद्या का अर्थ है, ब्रह्म को, ब्रह्मांड को, अस्तित्व को एक इकाई मानकर जानने का प्रयास।
और जब अस्तित्व को कोई इकाई मानकर जानने चलता है, तो स्वयं के भीतर भी एकता निर्मित हो जाती है। सारा मन इकट्ठा हो जाता है। और यह मन का इकट्ठा होना ही शांति है। यह मन का इकट्ठा हो जाना ही मौन है। यह मन का इकट्ठा हो जाना ही भीतर से समस्त तरंगों और लहरों का समाप्त हो जाना है।
ओशो
कैवल्य उपनिषद02