विपुल रेगे। एक हत्यारा फिल्म समीक्षकों को बेदर्दी से मार रहा है क्योंकि उसकी एक बोझिल फिल्म को उन्होंने अच्छी रेटिंग नहीं दी थी। इस वन लाइन स्टोरी में इतनी आग नहीं थी, कि बॉक्स ऑफिस पर आग लगा पाती। निर्देशक आर.बाल्की की सस्पेंस-थ्रिलर ‘चुप’ चुपचाप से बॉक्स ऑफिस से विदा ले लेगी। वास्तव में आर.बाल्की का सिनेमा ऐसा नहीं है कि हम ऐसे अवास्तविक विषय पर बनी फिल्म को विश्वासपूर्वक देख सके। सिनेमा यकीन दिलाने की कला है और बाल्की विश्वास दिलाने में कच्चे रहे जाते हैं।
मानसिक रुप से विक्षिप्त एक हत्यारा फिल्म समीक्षकों को मार डालता है और उनके माथे पर वैसी ही रेटिंग देता है, जैसी समीक्षक फिल्मों को देते हैं। सिलसिला एक हत्या पर ख़त्म नहीं होता। लगातार हत्याएं होती जा रही हैं। एक समय ऐसा आता है, जब फिल्म समीक्षक रिव्यू देने से भी डरने लगते हैं। तब केस में पुलिस अधिकारी अरविन्द माथुर की एंट्री होती है। माथुर हत्यारे का कोई सुराग नहीं लगा पा रहा है।
कहानी में दो कैरेक्टर और हैं। एक है डैनी। डैनी की फूलों की दूकान है। उसकी प्रेम कहानी नीला के साथ शुरु हो जाती है। नीला एक फिल्म समीक्षक है। हत्यारे को पकड़ने के लिए माथुर और मनोविद जेनोबिआ मिलकर योजना तैयार करते हैं। सीरियल किलर उस समीक्षक को मारना पसंद करता है, जिसके रिव्यू की स्क्रिप्ट सबसे अच्छी होती है। जिस ढंग से रिव्यू लिखा गया है, क्रिटिक को वैसे ही मारा जाता है।
जैसे एक क्रिटिक रेलवे का ज़िक्र करता है तो उसे ट्रेन के नीचे फेंका जाता है। बाल्की की इस फिल्म में सबसे बड़ी कमी मनोरंजन की दिखाई देती है। फिल्म का कोई हिस्सा ऐसा नहीं, जिसे रोचक कहा जा सके। बाल्की के पास सनी देओल और सलमान दुलेकार जैसे कलाकार थे लेकिन उनसे काम ही नहीं ले सके। सलमान को जो किरदार दिया गया, उसमे वे उखड़े-उखड़े दिखाई दिए। दुलेकार की रेंज के एक्टर्स आज बहुत कम हैं।
आश्चर्य होता है कि बाल्की जैसा निर्देशक उनसे मन जैसा काम नहीं निकलवा सका। सनी देओल का चयन यहाँ नहीं होना चाहिए था। सनी ऐसे किरदारों पर फिट नहीं बैठते। फिल्म में सनी को अधिक एक्शन दृश्य नहीं दिए गए हैं, जो कि उनकी ख़ास विशेषता है। सनी ने अच्छा अभिनय किया है। बाल्की उनके किरदार में और सुधार करते तो शायद बॉक्स ऑफिस पर अच्छे परिणाम आते।
एक सीरियल किलर बनने के पीछे बहुत विशेष कारण होता है। बाल्की ने हत्यारे द्वारा हत्याएं करने के पीछे कोई ठोस कारण नहीं दिखाया। पूजा भट्ट और श्रेया धन्वन्तरि की कॉस्टिंग दम नहीं भर पाती है। इन दिनों फिल्म निर्माताओं और फिल्म समीक्षकों के बीच एक युद्ध चल रहा है। निर्देशक ने फिल्म में उसी तनाव को दिखाने का प्रयास किया है।
ऐसा लगता है कि आर. बाल्की ने विक्टिम कार्ड खेलते हुए फिल्म उद्योग की पीड़ा दर्शकों को दिखाने की कोशिश की है। फ्लॉप फिल्मों के इस दौर में ‘चुप’ जैसी फिल्मों से फिल्म उद्योग का भला नहीं होने वाला है। राहत की बात है कि महज दस करोड़ में ये फिल्म बनाई गई है। सो लागत वसूल करने में अधिक परेशानी नहीं होगी। फिल्म सेटेलाइट अधिकार और डिजिटल राइट्स से लागत वसूल कर लेगी।
आर.बाल्की अक्सर अविश्वसनीय विषय चुनते हैं। ‘इंग्लिश-विंग्लिश’, ‘चीनी कम’, ‘पैडमैन’ बाल्की के कॅरियर की सफल फ़िल्में मानी जाती है। जब उन्होंने आम जनजीवन के विषयों को उठाया तो सफल रहे लेकिन ‘शमिताभ’ और ‘चुप’ जैसे विषयों पर वे फेल हो गए। ‘चुप’ एक अच्छी एक्शन थ्रिलर नहीं बन सकी। यदि दर्शक सस्पेंस-थ्रिलर के ख़त्म होने का इंतज़ार करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि डाइरेक्टर से कोई गलती हुई है।
ऐसा कैसा सस्पेंस कि शुरु के दस मिनट में ही औसत बुध्दि का दर्शक भी समझ जाए कि हत्यारा कौन है। उम्मीद करता हूँ कि इस रिव्यू के लिए कोई सिरफिरा आकर मेरे सिर के दस टुकड़े करने के बारे में नहीं सोचेगा।