आज पहली मई है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर इसे ‘मजदूर दिवस’ या ‘मई दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इसकी शुरुआत एक यूटोपिया समाज की रचना को लेकर हुआ था, जिसकी सोच के केंद्र में कार्ल मार्क्स और उनके साथी एंजिल्स थे। सम्यवाद की अवधारणा को नये रूप देने वाले मार्क्स व एंजिल्स ने तत्कालीन समाज में पनप रहे आम किसानों व मजदूरों के असंतोष को साहित्यिक व अवधारणात्मक आधार प्रदान किया। ‘दास कैपिटल’, ‘मेनिफेस्टो ऑफ कम्युनिस्ट पार्टी‘ जैसी पुस्तकों की रचना इन दोनों ने की। दोनों ने ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ की अवधारणा दी और कहा कि सभी समाजों में ‘वर्ग संघर्ष’ अनिवार्य है। इन दोनों ने लिखा-‘एक दिन ऐसा आएगा जब शोषण से आजिज ‘सर्वहारा वर्ग’ ‘बुर्जुआ वर्ग’ के खिलाफ क्रांति करेगा और उसकी सत्ता उखाड़ कर अपनी सत्ता स्थापित करेगा। फिर वह समय भी आएगा, जब समाज वर्गविहीन हो जाएगा। वहां कोई वर्ग नहीं होगा। वर्गविहीन समाज ‘साम्यवादी समाज’ कहलाएगा।’
इस वर्गविहीन समाज की रचना के लिए ‘इंटरनेशनल वर्किंग मैन्स एसोसिएशन’ की स्थापना की गई, जिसके सदस्य कार्ल मार्क्स थे। बाद में यही ‘इंटरनेशनल वर्किंग मैन्स एसोसिएशन’ कम्युनिस्ट वर्ल्ड के लिए ‘फर्स्ट इंटरनेशनल’ के रूप में जाना गया। बाद में 19 वीं सदी के आखिर में मजदूरों व किसानों ने पूरे यूरोप में पंूजीवाद के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। पूरे यूरोप में मजदूरों के हड़ताल व झड़प का एक लंबा दौर चला। मजदूरों व किसानों को हक दिलाने के लिए 1889 में ‘सेकेंड इंटरनेशनल’ नामक अंतरराष्ट्रीय संगठन का गठन किया गया। इसी में ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’- का नारा देते हुए यह निर्णय लिया गया कि पूरी दुनिया में पहली मई को एक विराट अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन का आयोजन किया जाए, जिसमे सभी देशों के मजदूर शामिल हों और अपनी-अपनी सरकारों से यह मांग करें कि उनके कार्य के घंटों को आठ घंटों तक सीमित किया जाए। उसी दिन से पहली मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने का चलन शुरू हुआ।
यूरोप में उस समय ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी, इटली और रूस शक्तिशाली देश थे। इन देशों में समाजवादी विचार जड़ जमाने लगा था। ‘सेकेंड इंटरनेशनल’ के निर्माण के नौ साल बाद 1898 में रूस में ‘रूसी समाजवादी लोकतांत्रिक श्रमिक दल’ का गठन किया गया। इसी पार्टी का नेता लेनिन था, जिसने 1917 में खूनी क्रांति के जरिए छल से रूस की सत्ता को हथिया लिया और सोवियत संघ का गठन किया। बाद में लेनिन की इसी पार्टी को वोल्शेविक नाम से पुकारा गया।
लेनिन की पार्टी वोल्शेविक रूस में जरा भी लोकप्रिय नहीं थी। 1906 में पहली ड्यूमा से लेकर 1917 में क्रांति होने तक चार बार ड्यूमा के चुनाव हुए, और हर बाद रूसी जनता ने लेनिन की बोल्वेशिक पार्टी को ठुकरा दिया। इस कारण लेनिन का लोकतांत्रिक व्यवस्था से विश्वास ही उठ गया और उसने हथियार के बल पर चुनी हुई अस्थाई सरकार को गिरा कर पूरे रूस पर कब्जा कर लिया। उसके बाद से ही कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा नहीं करते हैं और हथियार के बल पर सत्ता छीनना चाहते हैं। भारत में पश्चिम बंगाल व केरल से लेकर नक्सवाद, माओवाद के पीछे की असली कहानी यही है।
देखा जाए तो ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’-का नारा और पहली मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने के पीछे की असली वजह मजदूर असंतोष को बढ़ावा देकर पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों द्वारा तानाशाही को स्थापित करने का प्रयास था, जिसका अगुआ रूस और लेनिन थे। 26 दिसंबर 1991 को कम्युनिस्टों के ‘फादरलैंड’ सोवियत संघ के विघटन के बाद कम्युनिस्टों का समूची दुनिया पर शासन स्थापित करने का सपना, सपना ही रह गया। मजदूरों की स्थिति में कहीं कोई बदलाव नहीं हुआ, लेकिन उन मजदूरों को सत्ता दिलाने का सपना दिखा-दिखा कर कम्युनिस्टों ने पूरी दुनिया में 10 करोड़ से अधिक लोगों का नरसंहार किया। यही है मजदूर दिवस के पीछे का ‘यूटोपियाई सच!’
URL: This post is about International Workers’ Day on 1 May, sometimes called May Day
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