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India Speak Daily > Blog > धर्म > पूरब का दर्शन और पंथ > गुरूग्रंथ साहब का सच
पूरब का दर्शन और पंथ

गुरूग्रंथ साहब का सच

Courtesy Desk
Last updated: 2021/12/25 at 11:19 AM
By Courtesy Desk 245 Views 9 Min Read
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गुरू गोविन्द सिंह ने कहा था कि पूर्व-जन्म में वे हेमकुण्ठ में योगी थे, जिस ने गौ-ब्राह्मण-जनेऊ की रक्षा के लिए ही जन्म लिया।  वह परंपरा महाराजा रणजीत सिंह तक यथावत चलती रही। उन्हें अंग्रेजों ने ‘आखिरी हिन्दू शासक’ कहा था। अनेक सिख धनी क्रिश्चियनों और तगड़े मुसलमानों से निकटता पसंद करते हैं। हिन्दुओं को पिद्दी समझ दूर रहना चाहते हैं, जो स्वाभाविक है। यह गत सौ साल से हिन्दू नेताओं की धर्म की गलत समझ का दुष्परिणाम है, जिस के वर्तमान उदाहरण संघ-परिवार नेता हैं। Truth of Guru Granth Sahib

गुरुग्रंथ साहब में गुरुओं की वाणी है। पर वे गुरू सभी सिख न थे। उन में देश भर के संतों की वाणी है। गुरुगंथ में 36 गुरुओं-संतों की वाणियाँ संकलित हैं, जिन में सिख मात्र 6 या अधिक से अधिक 10 हैं। शेष सभी भारत के अन्य महान संत कवि हैं। उस में ऐसे संतों की वाणी भी है, जो गुरुग्रंथ के अलावा और कहीं नहीं मिलती। जैसे, संत नामदेव। वे महाराष्ट्र क्षेत्र के कवि थे, जो विट्ठल-विट्ठल गाते वैष्णव भक्ति में सराबोर रहे। तो आज की बुद्धि से वह सिख-वाणी हुई, या हिन्दू-वाणी? 

ऐसे प्रश्न का उत्तर तो दूर, उन पर विचार भी नहीं होता। आज दुनिया में ‘सिख स्टडीज’ के 16 केंद्र हैं, किन्तु ‘गुरु-वाणी अध्ययन’ का एक भी नहीं। यह अनायास नहीं। पंजाब विश्वविद्यालय के प्रो. गुरपाल सिंह के अनुसार गुरु-ग्रंथ को कम महत्व देने की प्रक्रिया चल रही है। उस की पूजा, परन्तु अध्ययन-मनन न करना। यह ऐसे ही लोग कर सकते हैं, जिन्होंने गुरुवाणी को आत्मसात नहीं किया। गुरुग्रंथ में कोई ‘सिख’ मतवाद नहीं, वरन आचार की, ऋत में रहने की सीख है।

आज जो सिख कहे जाते हैं, उन में अधिकांश सच्चे अर्थ में खालसा भी नहीं रह गए। गुरुवाणी पर आचरण करने वाला ही सच्चा सिख है, न कि बाहरी पहचान धारण कर गुरुवाणी से अनजान रहने वाला। पर आज ग्रंथ पर पंथ भारी हो रहा है। अधिकांश सिख अनजाने ही ग्रंथ के बदले पंथ को महत्वपूर्ण मान बैठे है। जबकि गुरू की बातें ही प्रमाणिक हैं।

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गुरुग्रंथ के अनुसार, भगवान शिव ही आदिगुरू हैं। वही सिख परंपरा चार सौ साल तक चलती रही। प्रो. कपिल कपूर के अनुसार, ‘‘गुरुग्रंथ उसी तरह संकलन है, जैसे ऋगवेद। 5000 वर्ष की दूरी पर दोनों ही भारत के महान ज्ञान-ग्रंथ हैं। विशिष्टता यह कि ऋगवेद भारत को पंजाब की देन है, जबकि गुरुग्रंथ पंजाब को भारत की देन है।’’

लेकिन अब हम अपने महान ज्ञान-ग्रंथों को ही किनारे कर रहे हैं। शिक्षा नीतियों में, या शैक्षिक-वैचारिक वक्तव्यों, दस्तावेजों में कहीं नहीं कहा जाता कि ‘इन ग्रंथों को पढ़ें’। इन्हें पढ़ने के सिवा हर तरह की सैकड़ों बातें कही जाती हैं। यह सब राजनीति-ग्रस्तता है। घोर अज्ञान और अहंकार है। दलीय राजनीति का नशा है। वामपंथी विचारों का दुष्प्रभाव है। बड़े-बड़े बौद्धिकों की ऐसी लफ्फाजियाँ जिस का सिर-पैर समझना मुश्किल।

जबकि संतों की वाणी सभी समझते थे। उस से पूरे देश को ज्ञान मिलता था। कोई भाषा समस्या न थी, मौखिक वाणी क्रमशः कमो-बेश बदलती हुई भी सारे देश में अखंड-सी रहती थी। भारतीय भाषाओं के लिए कभी कोई पक्की भौगोलिक सीमा न थी। तमिल, तेलुगु, या पंजाबी, बंगाली, अधिकांश भारतीय भाषाओं में संस्कृत शब्द भंडार के ही तीन चौथाई से अधिक तत्सम्-तदभव शब्द हैं। इसीलिए, वेद-पुराण, रामायण-महाभारत से लेकर गुरुग्रंथ की वाणियाँ तक संपूर्ण देश में समान रूप से सहज समझी जाती थीं। आत्मसात होती थीं। उन की ‘पूजा’ नहीं, बल्कि उन पर अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न होता था। इसीलिए, हिन्दू, जैन, सिख का कोई भेद न था।

फिर, भागवन्त सिंह संधू के अनुसार, गुरूग्रंथ का लगभग एक-तिहाई भाग भगवान विष्णु, राम और कृष्ण के विवरणों से भरा है। भाई केहर सिंह तथा गुरु गोविन्द सिंह ने विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन लिखा। उस में कुल 5571 पद इसी पर हैं। सब से लंबे विवरण कृष्ण अवतार (2492 पद) तथा राम अवतार (864 पद) पर मिलते हैं। गुरू गोविन्द सिंह ने कहा था कि पूर्व-जन्म में वे हेमकुण्ठ में योगी थे, जिस ने गौ-ब्राह्मण-जनेऊ की रक्षा के लिए ही जन्म लिया।

sikh

वह परंपरा महाराजा रणजीत सिंह तक यथावत चलती रही। उन्हें अंग्रेजों ने ‘आखिरी हिन्दू शासक’ कहा था। आज से 190 साल पहले जब रणजीत सिंह ने अफगानों को हराया, तो पराजित अफगान शुजा से महाराजा ने सदियों पहले महमूद गजनवी द्वारा ले जाया गया सोमनाथ मंदिर का द्वार लौटाने की शर्त रखी। उन्होंने अपनी वसीयत में कोहिनूर हीरा जगन्नाथपुरी मंदिर को दिया। उनकी ध्वजा पर सिंहवाहिनी दुर्गा और हनुमान अंकित थे।

तो रणजीत सिंह सिख शासक थे, या हिन्दू? उस जमाने में ये सवाल ही अनर्गल होता। रणजीत सिंह के सैन्य अधिकारी कर्नल हेनरी स्टाइनबाख, जो आठ वर्ष पंजाब में रहे, ने अपनी पुस्तक ‘द पंजाब’ (1845)  में अमृतसर के विवरण में लिखा है कि पवित्र सरोवर के बीच द्वीप पर विष्णु का एक मंदिर है जो सिखों के एक पूज्य देवता हैं (‘a temple of Vishnu, one of the Sikh deities’)। अब उस ‘हरिमंदिर’ नाम को कमतर करते हुए ‘गोल्डेन टेंपल’ मात्र चलाया जाता है।

दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्र भारत के बौद्धिक और नेता अपने ही देश को नहीं जानते। जबकि कई ब्रिटिश विद्वान और शासक भारत की आत्मा को अधिक पहचानते थे। देश-विभाजन से पहले तक हमारी शिक्षा एवं बौद्धिकता बेहतर हाल में थी। उस में यथार्थ आकलन बहुत अधिक था। अब यथार्थ छोड़कर प्रोपेगंडा, दलीयता, और विभाजनकारी मानसिकता का बोलबाला है।

गंभीर शैक्षिक सामग्रियाँ भी लापरवाही से राजनीतिक हथकंडा बनाई जाती हैं, जिस से करोड़ों शिक्षक-विद्यार्थी दुष्प्रभावित होते हैं। बताए जाने पर भी किसी के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। सभी दलों के नेता इस में समान रूप से अपराधी हैं। सिख-हिन्दू विभेद का सारा कारनामा इसीलिए बेखटके चल रहा है। दशकों के भयावह अनुभवों के बावजूद सारी चिन्ता इस या उस दल की गोटी लाल करने भर की रहती है। अंग्रेज शासक भी ऐसे मतिशून्य नहीं थे।

प्रो. कपिल कपूर याद दिलाते हैं कि भारतीय ज्ञान-परंपरा सनातन गंगा-प्रवाह है। वह ऋगवेद से गुरुग्रंथ तक अविच्छिन्न बहती मिलती है। उस में शस्त्र और शास्त्र, दोनों से धर्म की रक्षा पर बल दिया गया है। गरू हरगोविन्द की मीर-पीरी उसी का नया नाम था जिसे आदि शंकर ने शास्त्रार्थ से साथ-साथ पूरे देश में मंदिर एवं अखाड़े बनाकर स्थापित किया था। परन्तु गत डेढ़ सौ साल की कुशिक्षा ने भारतवासियों की दुर्गति कर दी। इस में आधा काल स्वयं भारतीय शासकों का है, जो दिनो-दिन लोगों को भेड़-बकरियों में बदलने की प्रतियोगिता-सी कर रहे हैं।

सिखों में अलगाव भावना का एक कारण हिन्दुओं द्वारा शक्ति की महत्ता छोड़ देना भी है, जबकि शास्त्र के अंतर्गत ही शस्त्र है। फलतः अनेक सिख धनी क्रिश्चियनों और तगड़े मुसलमानों से निकटता पसंद करते हैं। हिन्दुओं को पिद्दी समझ दूर रहना चाहते हैं, जो स्वाभाविक है। यह गत सौ साल से हिन्दू नेताओं की धर्म की गलत समझ का दुष्परिणाम है, जिस के वर्तमान उदाहरण संघ-परिवार नेता हैं। वे आदि शंकर या श्रीअरविन्द के बदले गाँधीजी के प्रचार में धन-काल नष्ट करते हैं। भारतीय ज्ञान के महान समुद्र को अपने पार्टी-डबरे में बदलने की जिद ठानते हैं।

जहाँ तक सिख भावनाओं की दलील है, तो असल दुःख तो गुरू-ग्रंथ को किसी पंथ की वस्तु मानना है। उसे वृहद, व्यापक के बजाए सीमित मतवाद की पुस्तक समझना अधिक दुखद है। आखिर गुरूग्रंथ की रचना और हरिमंदिर का निर्माण भी, खालसा-पंथ के उदय से बहुत पहले की बात है। तब गैर-खालसा श्रद्धालुओं की भी भावना का ध्यान रखना ही ग्रंथ का सच्चा आदर होगा। वरना, पंथ का शरीर तो तगड़ा दिख सकता है, पर उस की आत्मा दुर्बल होती जाएगी।

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TAGGED: Guru Granth Sahib, Truth of Guru Granth Sahib
Courtesy Desk December 25, 2021
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