शंकर शरण । एक सब से बड़े भाजपा नेता ने गर्व से कहा कि उन्होंने लाखों-लाख ह्वाट्सएप ग्रुप बनवा रखे हैं, जिस से ‘सच या झूठ को भी’ वायरल करवा सकते हैं। उन्होंने एक घृणित झूठ का उदाहरण दिया – फलाँ नेता ने अपने बाप को थप्पड़ मारा – जिसे उन के किसी चेले ने गढ़कर सनसनीखेज समाचार की तरह फैला दिया था! नेता के शब्दों में, ”काम तो है करने जैसा, मगर करना मत।” उन्होंने दोहरा कर कहा, ”समझ में आता है? ये करने जैसा काम है, मगर करना मत।”
इस द्विअर्थी बोली में वे कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दे रहे थे। ह्वाट्सएप ग्रुप के अलावा आईटी सेल भी सक्रिय हैं, जो झूठ-सच फैलाते रहते हैं। ऐसे ह्वाट्सएप ग्रुप के ‘संगठन’ बनाकर संघ-परिवार ने अपना चाहे जो स्वार्थ साधा हो, पर उसका यह काम समाज की भारी बौद्धिक-नैतिक हानि कर रहा है।
लेकिन उन की ठसक: ‘देखो, हमारी क्षमता! हम झूठी बात भी घर-घर फैला दे सकते हैं।’ उन्हें आभास भी नहीं कि वे एक लज्जाजनक काम पर अपनी छाती फुला रहे हैं। अपने ऊँचे पद के प्रभाव से युवाओं में नीच प्रवृत्तियाँ उकसा रहे हैं।
पहली, द्वेषपूर्ण झूठी बातें फैलाकर लोगों को भ्रमित करना। दूसरी, सही जानकारी को प्रोत्साहन के बदले प्रोपेगंडा को महत्व देकर सब की रुचि बिगाड़ना। स्वाभिमान और विवेक के बदले कायर प्रपंच एवं मूर्खता का आदी बनाना। तीसरी, एकता के नाम पर देशवासियों, विशेष कर हिन्दुओं को दलबंदी में बाँट कर द्वेष प्रेरित करना। वैसी अभद्र टिप्पणियों से सभी परिचित हैं जो ऐसे ह्वाट्सएप ग्रुपों में हैं जहाँ दलीय प्रचार वाली चीजें फैलाई जाती रहती हैं। वहाँ संघ-भाजपा के विरुद्ध पड़ने वाली किसी सही बात पर भी तीखी या व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया तुरत आती है। चेतावनी जैसी कि कायदे में रहें, वरना अपमानित होने और ग्रुप से निकाले जाने को तैयार रहें। इस के लिए ग्रुप संचालकों को भी ललकारा जाता है। ऐसी प्रवृत्तियों के प्रचार से अच्छे-अच्छे लोगों का चरित्र गिरता है। वे सामान्य बुद्धि ही नहीं, शिष्टाचार भी ताक पर रख देते हैं! यह ह्वाट्सएप ग्रुपों में रोज होता रहता है।
एक उदाहरण देखिए। एक सुशिक्षित बुजुर्ग ने अपने ह्वाट्सएप ग्रुप में यह लिख कर अपने पुराने मित्र को निकाल दिया:
“मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परम प्रशंसक हूँ। उसे निश्चित रूप से देशभक्तों का अति विशिष्ट संगठन पाता हूँ। इन दिनों उन लोगों की कुछ बातें और कुछ योजना मुझे मेरी बुद्धि से पागलपन प्रतीत होती हैं! परंतु यह असंभव है! अतः मैं मान लेता हूँ कि मैं उन के अर्थ नहीं समझता और इसीलिए मैं उन के विरुद्ध कोई टिप्पणी नहीं करूँगा और अपने पेज पर उन के विरुद्ध कोई भी टिप्पणी सहन नहीं कर सकूँगा। तथा ऐसी टिप्पणी करने वालों को ब्लॉक कर दूंगा! हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए। देखें तो कि इतना बड़ा संगठन पागलों से दिखने वाले काम क्यों कर रहा है?
कुछ वर्ष प्रतीक्षा करने में कोई हानि नहीं है। हम कहाँ हर काम संघ के अनुसार करते हैं ? हम ने कब हर काम संघ से पूछ कर किया है? जब हम एक व्यक्ति होकर भी इतने बड़े संगठन से पूछ कर हर काम नहीं करते तो फिर इतना बड़ा संगठन हमारी बुद्धि और हमारी योजना से काम क्यों करे? हमें इस दुनिया में बहुत सी अपनी बातों से समायोजन करना पड़ता है। फिर संघ की ऐसी बातें जो बिल्कुल समझ में नहीं आती उन से समायोजन करना अथवा उन्हें न समझ पाए तो धैर्य पूर्वक कुछ वर्षों तक देखना, इस में कठिनाई क्या है?”
इतना लिखकर उन्होंने अपने एक शुभचिंतक को ग्रुप से निकाल बाहर किया। केवल इसलिए कि उस ने संघ की आलोचना की थी। उस की किसी बात का खंडन करने की स्थिति में अपने को न पाकर उन्होंने उक्त पोस्ट लिख कर लेख और लेखक दोनों को हटा दिया।
जबकि उक्त एक पोस्ट में लगभग सभी बातें गलत भी हैं। जो यह भी दिखाता है कि दलबंदी किस तरह बुद्धि भ्रष्ट करती है। मानो, देशभक्त लोग रक्षा में हत्या जैसी मूर्खताएं नहीं कर सकते! और 99 वर्ष का विचित्र रिकॉर्ड सामने रहने पर भी ‘पागलपन’ करने वालों द्वारा चमत्कार कर देने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
दर्शनीय है कि सालों भर अपने सभी निजी काम बुद्धि से करने वाले एक ‘बड़े’ संगठन के संबंध में बुद्धि को घूरे पर फेंक देते हैं। संगठन के ‘पागलपन’ जैसे कामों पर किसी आधिकारिक सफाई के बिना! ऊपर से वही बुद्धिहीनता सब पर थोपते हैं कि सभी अपनी बुद्धि कूड़े में डाल ‘बड़े’ संगठन के सामने चुप रहें। जब कि ह्वाट्सएप ग्रुप में शामिल करते हुए नहीं कहा था कि ग्रुप उस संगठन की सेवा के लिए है। अर्थात, पहले मित्र को धोखा देना, फिर उस का अपमान करना।
चौथी, संघ को पैमाना समझना जिस से देशवासियों को पूछ-पूछ कर काम करना चाहिए, वरना आलोचना नहीं करनी चाहिए। मानो गज से कपड़े थान को न मापना, बल्कि थान विशेष के अनुसार गज को काट-छाँट देना चाहिए। सो, आप की हर टिप्पणी, कोई तथ्य, समाचार, रोजमर्रे के काम, आदि को ही संघ अनुरूप होना चाहिए! चूँकि आप ऐसा नहीं करते, इसलिए संघ नेताओं को ‘पागलपन’ का अधिकार है जिस की आलोचना कोई न करे!
आप ने संघ से पूछे बगैर इतिहास, साहित्य और धर्म का पाठ पढ़ लिया, अतः अपने विवेक से सोचने-समझने या लिखने-बोलने का आप का अधिकार छिन गया! फिर, वे आलोचना का आशय किसी को ‘अपनी इच्छा से चलाना चाहना’ मानते हैं। मानो हर किसी को सोच-समझ की, करने-धरने की स्वतंत्रता नहीं है। मानो खेल-समीक्षकों को खिलाड़ियों से पूछ कर अपना जीवन चलाना चाहिए, अन्यथा उन्हें खिलाड़ियों की आलोचना का अधिकार नहीं।
उक्त पोस्ट उदाहरण है कि सेंसरशिप की सनक अच्छे भले लोगों को कैसा जीव बना देती है। दलबंदी के लिए मूढ़ता, विवेकहीनता, अशिष्टता, और अमानवीयता तक सहज मान ली जाती है।
मजे की बात कि उक्त पोस्ट लिखने वाले ग्रुप संचालक ने अपने ग्रुप का नाम ‘आजाद अभिव्यक्ति’ सा कुछ रखा हुआ है। यानी, ‘बड़े संगठन’ की सेवा में शब्दों का भी अर्थ बदल डाला! उन के लिए आजाद अभिव्यक्ति का अर्थ हुआ: ‘संघ के प्रति दासवत् आदर रखने वाली अभिव्यक्ति’। इस कड़ाई से कि संघ अनुरूप न होने पर किसी को ग्रुप से निकाल दिया जाएगा!
यह प्रसंग सीताराम गोयल का अवलोकन पुनः प्रमाणित करता है कि संघ-परिवार ‘पूरे विश्व में वज्रमूर्खों का सब से बड़ा संग्रह’ है। उन के नेता मूढ़ बातें ऐसे गर्व से करते हैं मानो कुछ महान कार्य किया हो! वह ग्रुप अकेला उदाहरण नहीं। स्वतंत्र व्यक्तियों द्वारा चलाए जा रहे ह्वाट्सएप ग्रुप में भी संघ से जुड़े लोग संघ-भाजपा पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने वाले को अपशब्द कहते हैं, और उसे ग्रुप से निकालने की माँग करते हैं। मानो, संघ के प्रति आलोचनात्मक व्यक्ति को कहीं रहने का अधिकार नहीं! यदि यह डफर होना नहीं तो क्या है?
याद रहे, असहिष्णुता शिक्षा में कमी का प्रधान लक्षण है। यह एक सार्वभौमिक नियम है। लेकिन सत्य की महत्ता से अनजान, संघ परिवार के लोग उसे सेंसरशिप से दबाने की कोशिशें करते हैं। इस क्रिया में यशपाल की अबोध फूलो की तरह खुद हास्यास्पद रूप से नंगे हो जाते हैं। अबोध से ही अपनी हालत से अनजान। बल्कि गर्वित!
एक मनीषी ने सटीक लिखा था कि सत्य के पंख होते हैं, जिस से वह अपने लेखक के जीवन, देश-काल की सीमाएं तोड़ कर संसार में फैल जाता है। जबकि सेंसर बड़े हुजूम में होकर भी सदा पंखहीन रहता है। वह उछल कर हमला तो करता है, पर कुछ ही कदम पर धप से गिर पड़ता है। सेंसरशिप का ‘बड़ा संगठन’ किसी अकेले सत्य तक को छू भी नहीं सकता। उसे हानि पहुँचाना तो दूर रहा।
दूसरी ओर, कोई समाज यदि संगठित सेंसरशिप के अधीन रहे, जहाँ विचारों का खुला आदान-प्रदान बंद रहे, तो उस के लोग वास्तव में एक दूसरे से कट कर टूट जाते हैं। वे एक समाज रह ही नहीं जाते। अतः संघ-परिवार एकता का दंभ भर कर वास्तव में समाज का क्या करता रहा है – यह हमें देख सकना चाहिए।