श्वेता पुरोहित –
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
गतांक से आगे –
फिर जगन्नाथपुरी से गोस्वामीजी श्रीरामेश्वरम गए, फिर द्वारकापुरी, और वहाँ से बद्रीकाश्रम पहुँचे। वहाँ उन्हे भगवान नर नारायण एवं भगवान वेदव्यासजी के साक्षात दर्शन हुए। मानसरोवर में उन्हें दिव्य संतों का सत्संग प्राप्त हुआ।
उन संतों की सहायता से सुमेरुगिरि का दर्शन मिला फिर निलाचल पहुँचकर श्रीकाकभुशुण्डीजी का दर्शन किया तत्पश्चात पुनः लौटकर मानसरोवर आ गए और कैलासपर्वत की परिक्रमा की। इस प्रकार चौदह वर्ष, दस महिने, सत्रह दिन में पैदल तिर्थाटन करके फिर काशीपुरी में निवास किया।
वहांपर उनके मन में भगवान श्रीकोसलचंद्र के दर्शन की इच्छा उनके मन में उत्कट हो उठी । श्रीप्रियादासजी ने काशीआगमन तक का उल्लेख इस प्रकार किया है-
सुनी जब बात मानो ह्वै गयौ प्रभात, वह पाछे पछितात तजि काशीपुरी धाए है ।
कियौ तहाँ वास प्रभु सेवा लैं प्रकाश किनौं लीनौं दृढ भाव नैन रुप के तिसाए है ॥
काशी में गोस्वामीजी श्रीमद्वाल्मीकियरामायण की कथा सुनाया करते थे। उन दिनों घटी एक घटना का उल्लेख श्रीप्रियादासजी इस प्रकार वर्णन करते है –
सौच जल शेष पाय भूत हू विशेष कोऊ बोल्यौ सुख मानि हनुमान जू बताए है ।
रामायण कथा सो रसायन है काननि को आवत प्रथम पाछे जात घृना छाए है ।
जाय पहिचानि संग चले उर आनि आए वन मधि जानि धाय पाँय लपटाए है ।
करैं तिरस्कार कही सकौगे न टारि मै तो जाने रससार रुप धऱ्यो जैसे गाए है ॥
चातुर्मास्यमे रामायण कथा रसिकजन बडे प्रेमसे सुनते।
नगरसे बाहर दक्षिण दिशा में एक विशाल पीपल का वृक्ष था।
गोस्वामीजी अपना शौच-शेष जल उस वृक्ष के नीचे डाल देते थे। उसी वृक्षपर एक प्रेत की जो दुबौली ग्रामका बालक हरिराम था, निवास करता था। प्रेतों की तृप्ती ऐसी निकृष्ट पदार्थोंसे ही होती है। उस जलको पाकर और गोस्वामीजी को पहचानकर वो प्रगट हो गया और बोला ‘गोस्वामीजी !
आप आज्ञा करें, मैं आपका कौनसा प्रिय कार्य करुं ?’ गोस्वामीजी ने कहा ‘क्या तुम मुझे भगवान श्रीराम का दर्शन करा सकते हो ? मुझे और कुछ नही चाहिए।’ प्रेत ने उत्तर दिया ‘मैं तो आपको भगवान का दर्शन नहीं करा सकता, पर एक उपाय बता सकता हूँ।
आपकी रामकथा सुनने नित्य हनुमानजी आते है। वह सबसे पहले आते हैं और सबके बाद जाते है। वे कोढ़ी के वेष में आते है।
अमृत है हरि नाम जगत में इसे छोड़ विषय विष पीना क्या हरि नाम नही तो जीना क्या काल सदा अपने रस डोले ना जाने कब सर चढ़ बोले हरि का नाम भजो निसवासन
🙏जय श्री तुलसीदासजी 🙏
क्रमशः .... (भाग -1५)