श्वेता पुरोहित –
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
गतांक से आगे –
बुद्धि बड़ी, चतुराई बड़ी और सुंदरता तन में प्रकटी है मान बड़ो, धन धाम बड़ो, यश किराती हु जग में प्रगई है झूमत द्वार गजेन्द्र हजार, सो इंद्रा हु से कछु न ही घाटी है तुलसी जगदीश की भक्ति बिना, जैसे सुन्दर नारी की नाक कटी है।
स्वयं भगवान को मेरे कारण कष्ट उठाना पडा ऐसा सोचकर गोस्वामीजी ने कुटिया का सब सामान गरीबों मे बाँट दिया और रामचरितमानस की वह प्रति जिसे चुराने चोर आए थे वह अपने परममित्र और काशी के सुप्रसिद्ध व्यक्ति श्रीटोडरमलजी के घर में रख दी।
श्रीटोडरमलजी ने उस प्रति को चाँदी की मंजुषा में बड़े यत्नपुर्वक रखा। और वहाँ नित्यप्रति उसकी पूजा-आरती होने लगी। गोस्वामीजी ने और एक प्रति लिखी। उसके आधार पर और भी प्रतिलिपीयाँ तैयार होने लगी। दिन दूना रात चौगुना प्रचार होने लगा।
पंडितों का दुख और भी बढने लगा। उन्होंने काशी के प्रसिद्ध तांत्रीक वटेश्वर मिश्र से प्रार्थना की कि हमलोग बड़ी विपत्ति में हैं, वे किसी भी प्रकार से तुलसीदास को नष्ट करें। वटेश्वर मिश्र ने कालभैरव का आवाहन करके तुलसीदासजी के उपर मारण प्रयोग किया। यद्यपि कालभैरव ने वटेश्वर को बहुत मना किया, कहा की भगवदभक्तों का अनिष्ट करने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है। परंतु वटेश्वर ने हठ करके भैरव को भेज ही दिया।
वहाँ पर स्वयं श्रीपवनतनय बडी सावधानी के साथ गोस्वामीजी की रक्षा में तत्पर थे। अतः भैरव ने उनके पास जाने का सोचा भी नहीं। मारणप्रयोग उलट गया। भैरव ने क्रोध में भरकर वटेश्वर मिश्र के ही प्राण ले लिये ।
इतने पर भी पंडीतों का समाधान नहीं हुआ था, वे काशी के प्रसिद्ध अद्वैतवादी संन्यासी श्रीमधुसूदन सरस्वतीजी के पास गये और बोले-‘महाराज ! भगवान शिव ने श्रीरामचरितमानस को सत्यं शिवं सुंदरम् कहकर प्रमाणित तो किया है पर ये ग्रंथ वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि में से किस श्रेणी का ग्रंथ है यह नही बताया है अतः आप ग्रंथ का अवलोकन करके कृपया इस बात का निर्णय कर दें।’
पंडित ये जानते थे की अद्वैतवाद में निराकारवाद तथा केवल ज्ञान का महत्त्व होता है। और भक्ति सगुणमत पर आधारित होती है। अतः सरस्वतीजी रामचरितमानस को महत्त्वपुर्ण नहीं मानेंगे। पर इन पंडितों जैसे मुर्खों को ये पता नहीं होता की अद्वैतवाद के मूल प्रणेता आद्य शंकराचार्यजी स्वयं भगवान शिव ही है जिन्हें सबसे बडा वैष्णव माना जाता है।
उन्होंने केवल बौद्धमत को निष्प्रभ करने के लिए ही अद्वैतवाद की स्थापना की पर बाद में उन्होंने स्वयं कहा था की भगवान की भक्ति के बिना निस्तार नहीं होगा। अतः
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं ।
पायेहु ज्ञान भगति नहिं तजहीं ॥
श्रीमधुसूदन सरस्वतीजी ने रामचरितमानस को मँगवाकर उसे आद्योपांत्य मनोयोगपुर्वक पढ़ा तो उन्हे परमानंद का अनुभव हुआ।
और भावविभोर हृदय से ग्रंथ पर लिख दिया-
आनन्दकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः ।
कवितामञ्जरी भाती रामभ्रमरभूषिता ॥
- इस काशी रुपी आनंदवन में तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कवितारूपी मञ्जरी बडी ही सुंदर है, जिसपर रामरुपी भँवरा सदा मँडराया करता है ।
श्री गौरी शंकर की जय 🙏 🚩
सियावर रामचन्द्र की जय 🙏 🚩
पवनसुत हनुमान की जय 🙏🚩
रामप्रेममूर्ति तुलसीदासजी की जय 🙏🌷
क्रमशः ….(भाग – २७)