श्वेता पुरोहित-
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
बैठ के तू पिंजरे में काहे तू मुसकाय हम सब है इस जग मे कैदी तु ये समझ ना पाय भजन विना चैन आवे ना जाने कब जीवन कि आ जाए शाम भज राम राम राम।
गतांक से आगे –
जब गोस्वामीजी हाला नामक गाँव में पहुँचे, तब वहाँ के ब्राह्मणों को पता चलने पर वे गोस्वामीजी के पास आकर अपना दुखडा रोने लगे, ‘महाराज ! यहाँ का सूबेदार बड़ा दुष्ट है। हम लोगों को श्रीरामजी के विवाह में बारह गाँव मिले थे, वह इसने छीन लिए हैं। हम लोग वृत्तिहिन होने से बहुत कष्ट पा रहे है।’
गोस्वामीजी ने उन ब्राह्मणों को श्रीरामचरितमानस का नवाह्न पाठ करने को कहा। एक ब्राह्मण ने सर्वथा निराहार रहकर पाठ प्रारंभ कर दिया।
छः दिन के बाद सातवें दिन जब सुंदरकाण्ड का पाठ कर रहा था, उस समय श्रीहनुमानजी एक ब्राह्मण का रूप धारण कर बहुत सा कंदमूल फल फूल लेकर आये और ब्राह्मण को देने लगे ।
परंतु ब्राह्मण ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि जबतक गाँव नहीं मिल जाएगा तब तक हम न तो पाठ छोडेंगे और न कुछ अन्न जल ही ग्रहण करेंगे। चाहे शरीर भले ही नष्ट हो जाये।
श्रीहनुमानजी ने बहुत समझाया कि आप अपना कार्य हुआ ही समझें अतः अन्न जल ग्रहण करिए। लेकिन ब्राह्मण तो सुनता ही नहीं था। तब श्रीहनुमानजी ने कृपा करके अपने मूलरूप में दर्शन दिया।
ब्राह्मण ने चरणों मे पडकर बहुत बिनती की। श्रीहनुमानजी ने प्रसन्न होकर अपनी पूँछ के दो रोम ब्राह्मण को देकर कहा ‘इनमें से यह एक रोम तो जग भस्मकर है और एक शांतिकर है आप लोग पहले तो सूबेदार से शांतिपुर्वक अपना अभिष्ट निवेदन करना, जब न माने तो भस्मकर रोम छोडना। वह डरकर अनुकूल हो जायेगा तब शांति रोम छोड देना। शांति हो जायेगी।’
ब्राह्मण हनुमानजी का बल पाकर सूबेदार के पास आए और जब उसने इनकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया तो जैसा हनुमानजी ने बताया था वैसा किया। सूबेदार के महल में मानो लंकादाह का दृश्य उपस्थित हो गया। वह विकल होकर ब्राह्मणों के चरणों मे गिर पडा। जो पहले वज्रवत कठोर था वही अब मोम हो गया। उसने तुरंत ही शपथपूर्वक बारहों गाँवों का पट्टा लिखकर ब्राह्मणों को दे दिया।
शांतिकर रोम छोडने से पुनः शांति हो गयी। ब्राह्मणों ने गोस्वामीजी का बहुत उपकार माना।
वहाँ से गोस्वामीजी मिथिलापुरी पहुँचे। वहाँ कुछ दिन निवास करके वहाँ के सभी पुण्यस्थलों का दर्शन करके पुनः काशी लौट आए। संवत १६४० में दोहावली की रचना की। संवत १६४१ में श्रीमद वाल्मीकिय रामायण की एक प्रति लिखी। १६४२ में जानकीनवमी के दिन सतसई लिखना प्रारंभ किया। उसी वर्ष फाल्गुन शुक्ल पंचमी को पार्वतीमंगल की रचना प्रारंभ की-
जय संवत् फागुन सुदि पाँचै गुरु दिनु ।
अस्विनि बिरचेउ मंगल सुनि सुख छिनु छिनु ॥
- पार्वतीमंगल
कुछ दिनों बाद विश्वनाथ बीसी लगी । मीन राशिपर शनैश्चर के पहुँचने से काशी में महामारी का बड़ा भारी प्रकोप हुआ। सभी संभावित प्रयत्न करके हार गये पर एक भी उपाय काम नही कर रहा था। अंततोगत्वा सबलोग गोस्वामीजी की शरण में आ गए।
क्रमशः (भाग – ३१)
श्री गौरी शंकर की जय 🙏 🚩
सियावर रामचन्द्र की जय 🙏 🚩
पवनसुत हनुमान की जय 🙏🚩
रामप्रेममूर्ति तुलसीदासजी की जय 🙏🌷