श्वेता पुरोहित-
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
गतांक से आगे –
जौ जगदीस तौ अति भलो, जौ महिस तौ भाग तुलसी चाहत जनम भरि, राम चरन अनुराग
‘कृष्ण भये रघुनाथ’ की वजह से पुरे वृंदावन में गोस्वामीजी की चर्चा हो रही थी। सुनकर कुछ कृष्णभक्त गोस्वामीजी के पास आये और कहने लगे ‘आप श्रीकृष्ण को छोडकर श्रीरामजी की ही क्यों उपासना करते हैं। आपको मालूम होना चाहिए की श्रीकृष्ण पुर्ण पुरुषोत्तम भगवान है, और श्रीराम तो केवल उनके अंश है।’
यह बात सुनकर गोस्वामीजी प्रेम में अत्यंत बेसुध होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इनकी यह दशा देखकर ब्रजवासी बड़े पछताए की हम लोगों ने नाहक ही इनके इष्ट की लघुता बताकर इनके कष्ट पहुँचाया।
मूर्च्छा दूर करने के बहुत से उपाय किए गए। जब बहुत देर में होश हुआ तो लोगों ने मूर्च्छा का कारण पूछा, तब गोस्वामीजी ने कहा की अभी तक तो मैं श्रीराम को केवल दशरथनंदन, और अनुपम सुंदर जानकर ही भजता था, पर आप लोगों की कृपा से आज पता चला की वे भगवान के भी अंश है, अब तो मेरी उनके प्रति प्रीती कोटि गुना बढ गयी है।’
यह बात सुनकर उन कृष्णभक्तों का गोस्वामीजी की निष्ठा परिवर्तन कराने का जो उत्साह था वही गायब हो गया। लेकीन फिर भी कुछ दूराग्रही कहने लगे की ‘ठीक है , लेकीन आप अंश की जगह पुर्ण भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करेंगे तो ही सही रहेगा।’ उनका दुराग्रह देखकर गोस्वामीजी ने उन्हें खड़े बोल सुनाये –
जौ जगदीस तौ अति भलो, जौ महिस तौ भाग ।
तुलसी चाहत जनम भरि, राम चरन अनुराग ॥
- चाहे रामजी भगवान हों या भगवान के अंश से भी रहित एक सामान्य राजा हों, ये तुलसीदास तो जन्म भर केवल और केवल रामजी के ही चरणों में प्रेम की इच्छा करेगा।
यह बात सुनकर वे कृष्णभक्त निराश होकर लौट गये।
कृष्णभक्त जो बात कह रहे थे की राम अंश और कृष्ण पुर्ण भगवान है पर वास्तव में बात इसके बिल्कुल उलटी है। इस बात का प्रमाण ब्रह्मसंहिता मे दिया गया है।
यथा-
पुर्णो पुर्णावतारश्च श्यामो रामो रघुद्वहः ।
अंशा नृसिंहकृष्णाद्या राघवो भगवान स्वयम् ॥
- श्यामल वर्णवाले रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम पुर्ण भगवान हैं, रामलीला के समय वे स्वयं ही पुर्णतः आते है। श्रीनृंसिंह और श्रीकृष्ण जिनके अंश है वे भगवान स्वयं श्रीराम ही हैं।
कुछ श्रीकृष्णभक्तों ने कृष्णभक्ती के प्रचार के लिए श्रीरामभक्ति शाखा के प्रति कुछ गंभीर छल किये हैं। उनमें दो अत्यंत प्रसिद्ध है। पहला तो यह है की पुरुषोत्तम श्रीराम के आगे छली कृष्ण भक्तों ने ‘मर्यादा’ शब्द को चिपका दिया है। ताकी श्रीराम पुर्ण नही अपितु मर्यादित पुरुषोत्तम है ऐसा आभास हो।
क्योंकी ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम’ इस तरह का शब्दप्रयोग न तो वाल्मीकिय रामायण में है न अध्यात्म रामायण में है न रामचरितमानस में है और न ही किसी पुराण में भी है। दूसरा छल है की इस निराधार बात का प्रचार किया गया है की श्रीकृष्ण में भगवान की 16 अर्थात पुरी कलाएँ है और श्रीराम में उसमें से केवल 12 कलाएँ हैं। पर इस बात को कोई शास्त्राधार नहीं है ।
और एक दूसरी बात गोस्वामीजी ने जो कहा की वे पहले श्रीराम को सामान्य राजकुमार समझकर भजते थे। ये केवल उन कृष्णभक्तों की अनन्य निष्ठा पर रिझकर उन्होंने कहा था। पर उनसे ज्यादा श्रीराम की भगवदियता को कौन जान सकता है। भगवान के महात्म्यज्ञान को भूलकर भक्ति करना नारद भक्ति सूत्र के अनुसार दोषपुर्ण होता है।
यथा-
तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ।
तद्विहीनं जाराणामिव ।
- नारद भक्ति सूत्र २२, २३
और गोस्वामीजीने भी अपनी रचनाओं में श्रीराम को केवल सामान्य राजा समझने वालों की निंदा की है ।
श्री गौरी शंकर की जय 🙏 🚩
सियावर रामचन्द्र की जय 🙏 🚩
श्री मदनगोपालजी की जय 🙏 🚩
पवनसुत हनुमान की जय 🙏🚩
रामप्रेममूर्ति तुलसीदासजी की जय 🙏🌷