श्वेता पुरोहित:-
(रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदासजी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ)
गतांक से आगे –
राम सदा सेवक रुचि राखी बेद पुरान साधु सुर साखी।
दक्षिण देश में एक वैष्णव राजा के पास भगवान की बहुत सी प्रतिमाएँ थी, एक दिन श्रीरघुपती ने राजा पर कृपा करके आज्ञा दी कि मेरे एक बालरुप विग्रह की अयोध्या के जन्मस्थल पर प्रतिष्ठा करवाओ।
राजा ने आज्ञा शिरोधार्य करके बालकरुप श्रीराम के विग्रह को पालकी में विराजमान कराके संग में अपने निजी कर्मचारियों को बहुत सा द्रव्य देकर अयोध्या भेजा। मार्ग में श्रीवृंदावन में यमुनातट पर लोग विश्राम कर रहे थे।
उदयप्रकाश नामक एक ब्राह्मण श्रीरघुपती के दर्शनकर लुभा गया। उसने गोस्वामीजी से प्रार्थना की कि ‘आप ऐसी कृपा करें कि ठाकुरजी यहीं विराजें।’ ब्राह्मण का अनुराग देखकर श्रीगोस्वामीजी ने प्रभु से निवेदन किया। फिर तो प्रभु वहीं अचल हो गये। कोटि उपाय करने पर भी वहाँ से उठे नहीं। उस समय गोस्वामीजी ने यह पद कहा था-
राम सदा सेवक रुचि राखी ।
बेद पुरान साधु सुर साखी ।।
तुलसी रामहिं आपुतें सेवक की रुचि मीठि ।
सीतापति से साहिबहिं कैसे दीजै पीठि ॥
श्रीगोस्वामीजी ने श्रीठाकुरजी का नामकरण किया- ‘कौसल्यानंदन’। पर कुछ लोगों ने कहा कि जो नाम पहले ही राजा के यहाँ रखा गया था वहीं रहें। परंतु जब पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि वहाँ भी यही नाम था। तब तो सब लोगों ने गोस्वामीजी की भूरि भूरि प्रशंसा की ।
अष्टछाप के कवि श्रीनंददासजी कनौजीया श्रीगोस्वामीजी के गुरुबंधु लगते थे। क्योँ की दोनों ने ही काशी में श्रीशेषसनातनजी से विद्या ग्रहण की थी। श्रीनंददासजी ये सुनकर की गोस्वामीजी वृंदावन में पधारे हुए है, उनसे मिलने वहाँ आये और एक पद में गोस्वामीजी की स्तुती करके उन्हें समर्पित किया। वह इस प्रकार है-
श्रीमत्तुलसीदास स्वगुरु भ्राता पद वन्दे ।
शेषसनातन विपुल ज्ञान जेंहिं पाइ आनन्दे ॥
रामचरित जिन्ह किन्ह तापत्रय कलिमल हारी ।
करि पोथी पर सही आदरेउ आपु पुरारि ॥
राखी जिनकी टेक मदनमोहन धनु धारी ।
बालमिकि अवतार कहत जेहिं संत प्रचारी ॥
नन्ददास के हृदय नयन को खोलेउ सोई ।
उज्ज्वल रस टपकाय दियो जानत सबु कोई ॥
श्रीगोस्वामीजी के संग के प्रभाव से श्रीनंददास जी भी पहले श्रीरामभक्त ही थे। परंतु श्रीवृंदावन में आकर श्रीविठ्ठलनाथजी के संग से इन पर श्रीकृष्णभक्ति का रंग चढ गया।
श्रीगोस्वामीजी ने विनोद में पूछा-
‘कहाँ कमी रघुनाथ के छाँडी कुल की बान ।’
श्रीनन्ददासजी बोले – गुरुभाईजी ! रघुनाथजी की कोई कमी देखकर मैं इधर झुका होउँ ऐसी बात नही है बल्कि- ‘मन अनुरागी ह्वै गयौ सुन बंसी की तान।’
इसके बाद श्रीनंददासजी ने हँसकर कहा ‘आप लोगों ने पहलें ही भूल कर दी कि मेरा नाम नन्ददास रख दिया, अतः मैं नन्दसुवन की सेवा में लग गया। यदि आप लोग दशरथदास नाम रखते तो मैं प्राणपण से श्रीदशरथ सुवन की ही सेवा में लग जाता।’ श्रीनंददासजी की यह युक्तिपुर्ण बात सुनकर सब लोग हँसने लगे ।
श्री गौरी शंकर की जय 🙏 🚩
सियावर रामचन्द्र की जय 🙏 🚩
श्री मदनगोपालजी की जय 🙏 🚩
पवनसुत हनुमान की जय 🙏🚩
रामप्रेममूर्ति तुलसीदासजी की जय 🙏🌷