श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुंख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजीविरचीत मूल गोसाईचरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
काशी में वेद-शास्त्र पुराण पारंगत, वयोवृद्ध, ज्ञानवूद्ध, परमसिद्ध पंडित श्रीशेष सनातनजी विराजते थे। समय समय पर श्रीशेष सनातनजी और श्रीनरहरिदास स्वामीजी का सत्संग हुआ करता था। जब वे दोनों दिव्य विभूतियां भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, आत्मा, परमात्मा विषयक चर्चा करतें तो तुलसी दास जी बडे एकाग्र मन से उनकी बातें सुनते।
इनकी तन्मयता देखकर एक दिन श्रीशेषसनातनजी ने पूछा, ‘क्यों बालक! हम लोगों की बातें कुछ समझमे आती हैं ? तब तुलसी दास जी ने आजतक जो कुछ सुना था, वो सब अक्षरशः दुहराया।
बालक की विलक्षण बुद्धि से श्रीशेषसनातनजी दंग रह गये। उन्हे अपने विशाल ज्ञान-वैभव को संभालने के लिए सुयोग्य उत्तराधिकारी की प्रतिक्षा थी, वह आज मिल गया। उन्होंने बडी प्रसन्नता से श्रीनरहरी स्वामी से तुलसीदासजी की मेधा की सराहना करते हुए उन्हें अध्ययनार्थ अपने पास रखने का अनुरोध किया।
श्रीनरहरिदासजी तो चाहते ही थे और इसके लिए स्वयं प्रार्थना भी करने वाले थे। परंतु जब स्वयं आचार्य ने ही अनुग्रहपुर्वक शिष्य को पढाने का आग्रह किया तो वे बडे मुदित मन से तुलसीदासजी को श्री शेष सनातन जी को सौंपकर स्वयं निश्चिंत हो गये। वे भी कुछ दिन काशी में रहे। जब तुलसी दास जी ब्रह्मसूत्रपर लिखे गये भाष्यों का अध्ययन करने लगे, तब श्रीनरहरिदासजी ने चित्रकूट प्रस्थान किया।
श्री तुलसी दास जी बडी लगन के साथ गुरुकी सेवा करते हुये अध्ययन मे लग गये। इसी समय श्रीनन्ददासजी भी यहाँ अध्ययन कर रहे थे। परम उदार श्रीशेषसनातनजी ने अपनी प्रदीर्घ साधना एवं शास्त्र-चिंतन से प्राप्त समस्त अनुभूतियों को तुलसीदासजी के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया।
पन्द्रह वर्ष के दीर्घकाल में उन्होंने वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, स्मृति, संहिता तथा आर्ष और आप्त वाणियों के गूढ़ रहस्यों का सम्यक बोध कराकर तुलसीदासजी को विद्वन्मुर्ध्न्य बनाने के साथ ही काव्यकला कुशल भी बना दीया। कहते हैं की तुलसी दास जी ने श्रीहनुमानचालीसा की रचना अपने विद्यार्थी जीवन में ही की थी।
श्रीशेषसनातनजी की कुटी के समीप ही एक विशाल पीपल का वृक्ष था। उसपर एक प्रसिद्ध पिशाच निवास करता था। उससे पास-पडोस के लोग तो संत्रस्त थे ही, गुरुकुल के विद्यार्थी भी कभी कभी भयभीत हो जाया करते थे। अतः गोस्वामीजी ने इस विघ्न को दूर करने के लिए ही सिद्ध स्तोत्र हनुमान चालीसा की रचना की, जिसका पाठ करने वाले सदा के लिए निर्भय हो गये।
सीताराम जय सीताराम भज प्यारे श्री सीताराम हे दुख भंजन तुम्हे प्रणाम जय रघुनंदन जय सियाराम
क्रमशः… (भाग – १०)