काशी में श्रृंगार गौरी पूजन के अधिकार को लेकर याचिका दायर की गई। यह मामला वाराणसी जिला अदालत के बाद सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया। ज्ञानवापी परिसर की वीडियोग्राफी यह स्थापित करती है कि श्रृंगार गौरी पूजन स्थल के समीप मलबे के नीचे न सिर्फ मूर्तियां, कमल एवं स्वास्तिक जैसे हिंदू चिन्ह मौजूद हैं, बल्कि शिवलिंग भी है। दरअसल ज्ञानवापी परिसर में मंदिर तोड़कर किए गए मस्जिद निर्माण के बारे में कभी कोई संशय रहा ही नहीं। न सिर्फ मस्जिद स्थल पर साक्ष्य चीख-चीख कर मंदिर ध्वस्तीकरण की गवाही देते हैं, बल्कि औरंगजेब का राजकीय अभिलेख ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ स्वयं बादशाह के आदेश पर काशी विश्वनाथ समेत अनेक मंदिरों के ध्वस्तीकरण को बड़ी शान से दर्ज करता है।
ज्ञानवापी मस्जिद को देखकर कोई बात चौंकाती है तो बस यह कि हिंदुओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण मंदिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद में विध्वंस के स्पष्ट दिखते चिन्हों के बाद भी कोई संवेदनशील व्यक्ति वहां इबादत कैसे कर सकता है? कैसे मजहबी उन्माद में तोड़े गए मंदिरों पर बनाई गई मस्जिदों को कोई अपनी अस्मिता का प्रतीक बना सकता है? यदि इसके सिवा कोई और बात हैरान करती है तो वह है भारत के तथाकथित सेक्युलर वर्ग की ढिठाई।
चूंकि ज्ञानवापी में मंदिर ध्वस्तीकरण को झुठलाना असंभव है इसलिए भारतीय सेक्युलरों ने काशी विश्वनाथ विध्वंस को ही उचित ठहराने का प्रयास शुरू कर दिया। इसके लिये बड़ी धूर्तता से एक झूठी कहानी गढ़ी गई। इस कहानी के अनुसार बंगाल की ओर युद्ध अभियान पर जा रहे औरंगजेब के काफिले में कुछ हिंदू राजा सपत्नीक शामिल थे। बनारस से गुजरते समय रानियों ने काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा-अर्चना करने की इच्छा जताई, परंतु पूजा करने गई रानियों में से एक रानी वापस नहीं लौटी। इस मनगढ़ंत कहानी के अनुसार उस रानी को ढूंढ़ने गई टुकड़ी ने मंदिर के गर्भ गृह में कथित बदसलूकी का शिकार हुई रानी को रोते हुए पाया। खबर मिलने पर औरंगजेब क्रोध में आ गया और उसने काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़ने का आदेश दे दिया।
इतिहास से थोड़ा भी परिचित व्यक्ति बता देगा कि यह कहानी कोरी गप्प है, क्योंकि बंगाल या बनारस जाना तो दूर, औरंगजेब पूर्व दिशा में फतेहपुर जिले में पड़ने वाले खजुहा से आगे कभी नहीं गया। साथ ही न तो हिंदू राजा इस प्रकार के अभियानों में रानियों को साथ लेकर जाते थे और न ही उनके सुरक्षाकर्मियों के रहते किसी महंत या पुजारी द्वारा रानी का अपहरण संभव था। इस झूठ को कोईनराड एल्स्ट ने अपनी पुस्तक ‘अयोध्या’ में बेनकाब किया है। एल्स्ट बताते हैं कि इस काल्पनिक कहानी को मार्क्सवादी इतिहासकार गार्गी चक्रवर्ती ने इतिहास का रूप दिया। गार्गी ने गांधीवादी नेता वीएन पांडे को उद्धृत किया और पांडे ने अपनी कहानी का स्नेत कांग्रेस नेता पट्टाभि सीतारमैया को बताया।
अवधेश राजपूत
सीतारमैया अपनी पुस्तक ‘फैदर्स एंड स्टोंस’ में लिखते हैं कि यह कहानी लखनऊ के एक मुल्लाजी ने उनके मित्र को सुनाई थी। सीतारमैया के अनुसार मुल्लाजी ने दावा किया था कि यह कहानी कथित तौर पर एक दस्तावेज के रूप में दर्ज है और उसे वह समय आने पर उनके मित्र को दिखाएंगे। मुल्लाजी इस तथाकथित दस्तावेज को दिखा पाते, उससे पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। एक बेनाम मित्र और एक गुमनाम मुल्लाजी के हवाले से की गई इस गप्पबाजी को इतिहास बनाने की कवायद न सिर्फ विषय और विधा का उपहास है, बल्कि सदियों से इस्लामी उग्रवाद का शिकार हुए हिंदू मानस के साथ क्रूरता भी है।
सेक्युलरिज्म के नाम पर लगातार और इतने बड़े-बड़े झूठ गढ़े गए हैं कि सेक्युलरिज्म का दूसरा नाम ही झूठ और मक्कारी लगने लगा है। राम जन्मभूमि विवाद में सेक्युलर इतिहासकारों ने शपथ लेकर इतने झूठ बोले कि न्यायालय भी सन्न रह गया। कश्मीर में हिंदू नरसंहार को गरीब मुस्लिम बनाम अमीर हिंदू की लड़ाई का रूप और पलायन को जगमोहन के मत्थे मढ़ने का खूब प्रयास किया गया। गोधरा कांड को बाकायदा न्यायिक आयोग बनाकर ट्रेन के भीतर से ही लगाई गई आग बता दिया गया। 26/11 मुंबई हमले को भी हिंदू आतंकी साजिश बनाने की तैयारी थी, लेकिन कसाब के पकड़े जाने से योजना चौपट हो गई। कोई भी अंतरधार्मिक विवाद हो, उसमें कथानक को हिंदू विरोध का रूप देना सेक्युलरिज्म का फर्ज बन गया है।
जिस भारत में सहिष्णुता एक सभ्यतागत विचार रहा हो, वहां सेक्युलरिज्म का महत्व बौद्धिक जुगाली से अधिक कुछ नहीं। स्वस्थ जनसंवाद के लिए आवश्यक बुनियादी सिद्धांतों को दरकिनार कर और समूहों को देखकर अपना समर्थन या विरोध तय करने वाला सेक्युलरिज्म आज नैतिक या सामाजिक आदर्श के रूप में अपनी प्रासंगिकता पूरी तरह खो चुका है।
लव जिहाद हो या शोभायात्रओं पर हमले या फिर हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं की हत्याएं, इन सब पर न सिर्फ गहरी चुप्पी, बल्कि पीड़ित हिंदुओं को ही अपराधी ठहराने की जिद देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि सेक्युलरिज्म आज एक भयंकर विकृति और कट्टरता का रूप ले चुका है। सेक्युलर कट्टरपंथी तत्व आंदोलन या विरोध की आड़ में कभी किसानों को तो कभी मुस्लिम समुदाय को भड़का कर ¨हसा फैलाने की फिराक में रहते हैं। गोमूत्र का पसंदीदा गाली के रूप में उपयोग और कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को नकारना इस कट्टरता के सुबूत हैं।
श्रृंगार गौरी विवाद में न्यायालय जो भी निर्णय दे, वह सबको मंजूर होना चाहिए, मगर न्यायिक फैसले सामाजिक वैमनस्य को कभी कम नहीं कर पाएंगे। भारतीय सभ्यता पर इस्लामी आक्रांताओं के घाव गांव-गांव, शहर-शहर इतने फैले हुए हैं कि सत्य से साक्षात्कार के बिना सुलह-समन्वय नहीं बन पाएगा। जहां हिंदू तोड़े गए प्रत्येक मंदिर की वापसी की उम्मीद नहीं कर सकते, वहीं मुस्लिम समाज को प्रमुख हिंदू स्थलों पर संवेदनशीलता दिखाते हुए हठ छोड़ना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्हें इस्लामी आक्रांताओं के मंदिर विध्वंस और मूर्ति भंजक इतिहास को स्वीकार करना पड़ेगा, परंतु इसमें सबसे बड़ी बाधा सेक्युलर कट्टरपंथियों का झूठ है।