कश्मीर के उरी में हमारे 18 सैनिकों के बलिदान पर पूरा देश आहत है!गुस्से में है! गुस्सा किसको नहीं है? लेकिन गुस्से में व्यक्ति तो होश खो सकता है, राष्ट्र नहीं! सब्र करें! वक्त लगता है! 2014 से पहले जिस राष्ट्र के पास 20 दिन का गोला बारूद तक नहीं था, वह एकाएक बिना तैयारी युद्ध में उतर जाए तो फजीहत होनी निश्चित है! पिछले 10 सालों में रक्षा की तैयारी पूरी तरह से ध्वस्त थी! रक्षा खरीद में घोटालों की ऐसी बाढ़ आई हुई थी कि इटली से लेकर ब्राजील तक पूर्व की यूपीए सरकार की रिश्वतखोरी की गूंज अभी भी सुनाई दे रही है! ऐसे में आप सोच सकते हैं कि हमारी रक्षा तैयारियों का किस तरह से जनाजा निकाला गया था! ताज्जुब तो तब होता है कि जब देश को इस दुर्गत में पहुंचाने वाले भी दो साल पुरानी सरकार को प्रवचन दे रहे हैं! और उनके प्रवचन में जिस तरह से लोग बह रहे हैं, उससे जाहिर होता है कि इस देश के लोगों को किस तरह से मूर्ख बनाकर दशकों से हांकने में इन्हें महारत हासिल रही है!
वर्तमान मोदी सरकार उन गलतियों को नहीं दोहरा सकती, जिसे लाल बहादुर शास्त्री जी से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी सरकार तक ने दोहराया है! 1965 में शास्त्री जी के नेतृत्व में भारत ने लाहौर तक पर कब्जा कर लिया था, लेकिन इसके बावजूद हमें उनकी जमीन छोड़नी पड़ी और हम POK भी हासिल नहीं कर सके, आखिर क्यों? ऐसा ही हाल इंदिरा गांधी के समय 1971 में हुआ! इंदिरा जी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ दिया, उनके 90 हजार सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा, इसके बावजूद हम LOC को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने या फिर पीओके लेने में असफल रहे तो क्यों? अटलबिहारी वाजपेयी के समय कारगिल पर हमला करने के लिए तब के थल सेना प्रमुख जनरल मलिक बार-बार LOC पार करने की इजाजत मांगते रहे, लेकिन वाजपेयी सरकार ने नहीं दी, क्यों? आज यदि मोदी सरकार भी आते ही बिना तैयारियों के पाकिस्तान पर हमला कर देती तो जानते हैं आप क्या होता?
आधुनिक युद्ध जमीन से अधिक कूटनीति से लड़ी जाती है! ताशकंद में शास्त्री जी किसी भी सूरत में पाकिस्तान को बख्शने के मूड में नहीं थे! वह उस समझौते के लिए जरा भी राजी नहीं थे, जिसके लिए सोवियत संघ ने पाकिस्तान की ओर से दबाव डाला था! इस समझौते के तहत युद्ध में हारे पाकिस्तान को उसकी पूरी जमीन तो मिल गई, लेकिन भारत को एक ईंच जमीन का फायदा नहीं हुआ! शास्त्री जी ताशकंद से आकर देशवासियों को बहुत कुछ बता सकते थे और शायद इसीलिए संदिग्ध तरीके से उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया!
इंदिरा गांधी तो मजबूत थी न? 1971 की लड़ाई में जीत के बाद समझौता इस बार किसी विदेशी धरती पर नहीं, शिमला में रखा गया था! उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि इंदिरा ने LOC को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने की पूरी तैयारी कर ली थी और पाकिस्तान को भी तैयार कर लिया था, लेकिन इसके बावजूद भुट्टो न सिर्फ अपनी हारी हुई जमीन बचाने, बल्कि पीओके को फिर से अपने पास रखने में भी सफल हो गया! आखिर कैसे? साक्ष्य बताते हैं कि शिमला समझौते के बाद भारतीय सेना बेहद आहत हुई थी! और इतनी अधिक आहत थी कि उस समय के विपक्ष के नेता अटल बिजारी वााजपेयी से भी मिली थी कि वह व उनकी पार्टी संसद के अंदर इंदिरा को इसके लिए घेरे, लेकिन वाजपेयी जी राजी नहीं हुए!
आज भी सैनिकों को आप कहते सुन सकते हैं कि ‘जो जमीन हमने युद्ध में जीती, उसे ताशकंद व शिमला में हमने गंवा दिया!’ दरअसल 1965, 1971 व 1999 में जीतने के बावजूद भारत अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे हार गया और इसीलिए युद्ध के मैदान में जीती हुई बाजी, हमने टेबल की बैठक पर गंवा दिया! शास्त्री, इंदिरा या वाजपेयी, ‘आज ही पाकिस्तान पर हमला कर दो’ की मानसिकता वाले लोगों से कोई कम देशभक्त नहीं थे, लेकिन उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ उस वक्त अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल नहीं हुआ, जिसके कारण युद्ध में जीती हुई बाजी वो टेबल पर गंवा बैठे!
वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की लड़ाई केवल मैदान की नहीं, कूटनीति व विदेश नीति के स्तर पर भी लड़ी जाती है! प्रधानमंत्री मोदी अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की गलतियों से सबक लेते हुए पिछले दो साल से जो अंतरराष्ट्रीय दौरे कर रहे हैं और हर मंच पर आतंकवाद का मुद्दा उठा रहे हैं, वह क्या है? वह पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने, उसे एक आतंकवादी देश घोषित करने और उसके मूल शक्तिस्रोत अमेरिका व उसके सैन्य गठबंधनों को उससे दूर करने का पूरा प्रयास है!
अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को यहां बुलाना, उनके घर अचानक जाना, बिल्कुल विपरीत विचारधारा की पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार चलाना- यह सब उस कूटनीति का हिस्सा है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को यह कहीं से न लगे कि आने वाली लड़ाई भारत-पाकिस्तान के बीच है! बल्कि यह लगे कि भारत तो लगातार शांति का प्रयास करने वाला देश है, कश्मीर में वह शांति बहाली में लगा है, कश्मीर भारत का हिस्सा है न कि विवादित हिस्सा, लेकिन पाकिस्तान दुनिया को आतंकवाद आपूर्ति करने वाला देश है! इससे पाकिस्तान के मित्र देश भी खुलकर पाकिस्तान के पक्ष में आने से हिचकेंगे! कूटनीति दो कदम आगे चलने और एक कदम पीछे लौटने की कला है! स्वयं चाणक्य-चंद्रगुप्त ने पाटलीपुत्र में धनानंद से हारने के बाद मगध राज्य की परिधि पर स्थिति राज्यों को मित्र बनाने की कूटनीतिक दांव खेला था और फिर सफल हुए! पाकिस्तान के दूसरी तरफ अफगानिस्तान और उसके अंदर बलोचिस्तान, और बाहर अमेरिका, इजरायल, संयुक्त राष्ट्र संघ की घेरेबंदी में वक्त लगता है और यदि वक्त पिछले दो साल में लगा है!
‘भारतीय वामपंथ का काला इतिहास’-खंड-एक पुस्तक लिखने के दौरान भारत की पूरी विदेश नीति को पढ़ने के दौरान मुझे यह समझ में आया कि वास्तव में भारत की कोई स्वतंत्र विदेश नीति कभी थी ही नहीं! नेहरूवादियों व मार्क्सवादियों ने जिस गुटनिरपेक्षता का ढोल पीट रखा है, वह इतनी खोखली थी कि 1962 के युद्ध में हमें कहीं से नहीं बचा सकी! क्या आप जानते हैं कि चीन युद्ध में सोवियत संघ ने हमें कितना बड़ा धोखा दिया था? जबकि उसी सोवियत संघ के लिए नेहरू ने पूरी गुटनिरपेक्षता की नीति तैयार की थी? इतना सब होने के बाद भी क्या अब भी देश धोखा खाए? अभी भी जमीन पर हम जीत हासिल कर लें और टेबल पर उसे हम गंवा दें वाली मानसिकता में चलें? या इससे आगे बढ़ना है और पाकिस्तान को पूरी तरह से तबाह करना है! याद रखिए, महाभारत के युद्ध के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण व पांडवों को 14 वर्ष तक इंतजार करना पड़ा था! थोड़ा सब्र रखिए! तय मानिए पाकिस्तान से युद्ध अवश्यंभावी है,लेकिन शास्त्री-इंदिरा की तरह जीत कर हारने की जगह, इस बार पूरी विजय सुनिश्चित करनी होगी और सरकार इसी में जुटी हुई है!
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