सुमंत विद्वांस मिथिला में विवाह की बातचीत तय हो ही रही थी कि भरत के मामा युधाजित भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने दशरथ जी को प्रणाम करके कहा, “महाराज! केकय नरेश ने आपका कुशल समाचार पूछा है। वे मेरे भान्जे भरत को देखना चाहते हैं। अतः उन्हें लेने के लिए ही मैं अयोध्या आया था। परन्तु वहाँ पता चला कि आपके सभी पुत्र विवाह के लिए आपके साथ मिथिला पधारे हैं, अतः मैं भी तुरंत ही यहीं चला आया।”
अगले दिन प्रातःकाल नित्यकर्म के बाद महाराज दशरथ ऋषियों के साथ जनक जी की यज्ञशाला में पहुँचे। तत्पश्चात् विजय नामक शुभ मुहूर्त में दूल्हे के अनुरूप वेशभूषा से अलंकृत होकर श्रीराम अपने भाइयों के साथ वहाँ आए। वसिष्ठ मुनि व अन्य महर्षि उनके आगे-आगे चल रहे थे।
मंडप में पहुँचने पर वसिष्ठ जी ने राजा जनक से कहा, “राजन्! श्रेष्ठ नरेश महाराज दशरथ अपने पुत्रों के विवाह से संबंधित समस्त मंगलाचार संपन्न करके सबके साथ यहाँ पधारे हैं। अब यदि आपकी भी सहमति हो, आप विवाह-संबंधी शुभ कर्मों का अनुष्ठान पूरा करवाकर अपनी कन्याओं को भी यहाँ बुलाइए और कन्यादान कीजिए।”
यह सुनते ही जनक जी बोले, “महर्षि! आप इतना सोच-विचार क्यों कर रहे हैं? यह राज्य जैसा मेरा है,वैसा ही आपका भी है। मेरी कन्याओं के वैवाहिक सूत्र में बंधने से पूर्व का मंगल कार्य संपन्न हो चुका है। अब हम सब यज्ञवेदी में आप लोगों की ही प्रतीक्षा कर रहे हैं।” यह सुनकर महाराज दशरथ अपने पुत्रों व सभी महर्षियों को लेकर महल के भीतर गए।
इसके उपरान्त विदेहराज जनक के अनुरोध पर महर्षि वसिष्ठ ने मुनि विश्वामित्र व धर्मात्मा शतानन्द जी के साथ मिलकर विवाह की क्रिया आरंभ की।
सर्वप्रथम विवाह मण्डप के मध्यभाग में विधिपूर्वक वेदी बनाई गई तथा गन्ध व पुष्पों के द्वारा उसे चारों ओर से सुन्दर रूप में सजाया गया। इसके साथ ही अनेक सुवर्ण-पालिकाएँ, यव के अंकुरों से चित्रित कलश, अंकुर जमाये हुए सकोरे, धूपपात्र, शंखपात्र, स्त्रुवा, स्त्रुक, अर्घ्य आदि पूजनपात्र, लावा (खीलों) से भरे पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्री यथास्थान रखी गई। इसके बाद वसिष्ठ जी ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चरों ओर बिछाकर मंत्रोच्चार करते हुए विधिपूर्वक अग्निस्थापन किया व विधि के अनुसार ही मंत्रपाठ करते हुए प्रज्वलित अग्नि में हवन किया।
अब जनक जी सभी प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीता जी को अपने साथ लाए व उन्हें अग्नि के समक्ष श्रीरामचन्द्र जी के सामने बिठा दिया। फिर उन्होंने श्रीराम से कहा, “रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप में उपस्थित है। इसका हाथ अपने हाथों में लो। यह परम पतिव्रता, महान सौभाग्यवती व छाया के समान तुम्हारे साथ चलने वाली होगी।”
यह कहकर उन्होंने मन्त्र से पवित्र किया हुआ संकल्प का जल श्रीराम के हाथ में छोड़ दिया। इसके बाद एक-एक करके इसी प्रकार लक्ष्मण का उर्मिला से, भरत का माण्डवी से व शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से पाणिग्रहण संपन्न हुआ।
तब वसिष्ठ जी के संकेत पर उन चारों राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अग्नि, वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि मुनियों की परिक्रमा की एवं वेदोक्त विधि के अनुसार सभी कर्म पूर्ण किए। उस समय आकाश से बड़ी भारी पुष्प-वर्षा हुई, जो अत्यंत सुहावनी लगती थी। दिव्य वाद्यों की मधुर ध्वनि से वातावरण हर्षित हो गया, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्वों ने गीत गाए।
शहनाई आदि वाद्यों के मधुर स्वर के बीच उन महातेजस्वी राजकुमारों ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा करके अपनी पत्नियों को स्वीकार किया व इस प्रकार विवाह कार्य संपन्न हुआ।
अगले दिन प्रातःकाल महामुनि विश्वामित्र ने राजा जनक व महाराज दशरथ दोनों की स्वीकृति ली और वे उत्तरपर्वत पर कौशिकी नदी के किनारे स्थित अपने आश्रम को चले गए। उनके जाने पर महाराज दशरथ भी विदेहराज से अनुमति लेकर अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए।
अपनी कन्याओं को विदा करते समय विदेहराज ने अनेक बहुमूल्य उपहार दिए। कई लाख गाएँ, अच्छे-अच्छे कालीन, बड़ी संख्या में रेशमी व सूती वस्त्र, अनेक प्रकार के गहनों से सजे कई हाथी, घोड़े, रथ, पैदल सैनिक और अपनी पुत्रियों के लिए सहेली के रूप में सौ-सौ कन्याएँ व उत्तम सेवक-सेविकाएँ साथ भेजीं। इसके अतिरिक्त उन सबके लिए एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रजतमुद्रा, मोती व मूँगे भी दिए। फिर महाराज दशरथ को प्रणाम करके वे अपने महल में वापस लौट गए और दशरथ जी ने भी सब लोगों के साथ अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।
उस समय दशरथ जी ने एक विचित्र बात देखी कि भयंकर बोली बोलने वाले पक्षी उनके चारों ओर चहचहाने लगे व भूमिपर विचरने वाले सभी मृग उनकी बायीं ओर से जाने लगे। तब दशरथ जी ने वसिष्ठ मुनि से पूछा, “मुनिवर! एक ओर तो ये सभी पक्षी इतने भयंकर स्वर में बोल रहे हैं और दूसरी ओर ये मृग हमें दाहिनी ओर करके जा रहे हैं। यह अशुभ और शुभ दोनों प्रकार का शकुन कैसा है? मेरा हृदय इससे अत्यंत कम्पित हो रहा है। मेरा मन विषाद में डूबा जा रहा है।”
तब महर्षि वसिष्ठ ने मधुर वाणी में कहा, “राजन्! इस शकुन अर्थ मैं आपको बताता हूँ। आकाश में ये पक्षी भयंकर स्वर में चहचहा रहे हैं, जो इस बात का संकेत है कि कोई भीषण संकट उपस्थित होने वाला है। परन्तु इधर ये मृग भी हमें दाहिनी ओर रखकर जा रहे हैं, जो इस बात का सूचक है कि वह संकट शीघ्र ही शान्त हो जाएगा। अतः आप यह चिंता छोड़िये।”
उन दोनों के बीच इस प्रकार की बातें हो ही रही थीं कि अचानक वहाँ बड़े जोरों की आँधी उठी। बड़े-बड़े वृक्ष उसमें धराशायी होने लगे, सूर्य अन्धकार में घिर गया, धूल के गुबार में पूरा सेना मूर्छित सी होने लगी।
उसी समय राजा दशरथ ने देखा कि क्षत्रिय राजाओं का मानमर्दन करने वाले भृगुकुलनन्दन जमदग्निकुमार परशुराम सामने से आ रहे हैं। वे बड़े भयानक दिखाई दे रहे थे। उन्होंने मस्तक पर बड़ी-बड़ी जटाएँ धारण कर रखी थीं। उनका तेजोमंडल जाज्वल्यमान था। सामान्य लोगों के लिए तो उनकी ओर देखना भी बड़ा कठिन था। कंधे पर फरसा रखे और हाथ में दीप्तिमान् धनुष व भयंकर बाण लिए हुए वे त्रिपुरविनाशक भगवान् शिव के समान ही जान पड़ते थे।
(आगे अगले भाग में…)
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(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)
(नोट: वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। मैं बहुत संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिख रहा हूँ। पूरा ही ग्रन्थ जस का तस यहाँ नहीं लिखा जा सकता, लेकिन अधिक विस्तार से जानने के लिए आप मूल ग्रन्थ को भी अवश्य पढ़ें।)