
वाल्मीकि रामायण (भाग 17)
सुमंत विद्वांस (वाल्मीकि रामायण)महाराज दशरथ जी के चारों पुत्रों एवं वधुओं के स्वागत् में पूरी अयोध्यापुरी को बहुत सुन्दर सजाया गया था। चारों ओर ध्वज और पताकाएँ फहरा रही थीं। सड़कों पर जल का छिड़काव किया गया था। प्रमुख मार्गों पर फूल बिखेरे गए थे। मधुर वाद्य बज रहे थे। नगरवासी हाथों में मांगलिक वस्तुएँ लेकर प्रवेशमार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक स्वागत के लिए उपस्थित थे। उन्होंने बहुत दूर तक आगे जाकर महाराज की अगवानी की।
अपने कीर्तिवान् पुत्रों के साथ श्रीमान दशरथ जी ने हिमालय के समान गगनचुंबी व सुन्दर दिखने वाले अपने राजभवन में प्रवेश किया। वहाँ स्वजनों ने उनका आदरपूर्वक स्वागत एवं पूजन किया। महारानी कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी व अन्य राजपत्नियों ने बहुओं को वाहनों से उतारा और मंगल गीत गाती हुईं वे उन नववधुओं को घर के भीतर ले गईं। वे आभूषणों से सुशोभित व रेशमी साड़ियों से अलंकृत थीं। भीतर जाने पर सबसे पहले देवमन्दिर में ले जाकर उन वधुओं से देवताओं का पूजन करवाया गया। इसके पश्चात् उन सभी नववधुओं ने अपने सास-ससुर आदि के चरणों में प्रणाम किया। इस प्रकार विवाह के बाद चारों राजकुमार और उनकी पत्नियाँ आनंदपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगे।
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विवाह के बाद कुछ काल बीत जाने पर एक दिन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरत से कहा, “प्रिय भरत! ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् तुम्हें लेने आये हैं और कई दिनों से यहाँ ठहरे हुए हैं।”
यह बात सुनकर भरत जी ने उसी समय भाई शत्रुघ्न के साथ अपने मामा के यहाँ जाने का विचार किया। उन्होंने अपने पिता, अपनी सभी माताओं व अपने भाई श्रीराम से आज्ञा लेकर भाई शत्रुघ्न के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। उन्हें लेकर मामा युधाजित् बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में चले गए।
भरत और शत्रुघ्न के चले जाने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई अब अपने पिता की सेवा में और अधिक संलग्न रहने लगे। उनकी आज्ञा के अनुसार वे राजकाज में सहयोग करने लगे, नगरवासियों के सब काम देखने लगे और प्रजा के हितकर सभी कार्य करने लगे। वे अत्यंत संयमित व्यवहार करते थे और अपनी माताओं व गुरुजनों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। कठिन से कठिन कार्य को भी वे निश्चयपूर्वक पूर्ण कर देते थे। उनके इस उत्तम शील एवं श्रेष्ठ व्यवहार से राजा दशरथ, सभी रानियाँ, गुरुजन एवं सभी नगरवासी उनसे अत्यंत प्रसन्न व संतुष्ट रहते थे। दशरथ जी के सभी पुत्रों में श्रीराम विशेष रूप से गुणवान् एवं यशस्वी थे और वे ही विशेष रूप से सभी को अत्यंत प्रिय भी थे।
जनकनन्दिनी सीता के हृदय में सदा श्रीराम का ही विचार रहता था व श्रीराम का मन भी सदैव सीता में ही लगा रहता था। सीता के सद्गुणों व सौन्दर्य के कारण उनके प्रति श्रीराम का प्रेम अधिकाधिक बढ़ता ही जाता था और सीता के मन में सदा श्रीराम के प्रति वही भावना रहती थी। वे दोनों एक-दूसरे के हृदय का अभिप्राय सहजता से समझ लेते थे और अपने मन की भावनाएँ भी स्पष्टता से एक-दूसरे को बता देते थे। उन दोनों की जोड़ी देवी लक्ष्मी व भगवान् विष्णु जैसी मनोहारी लगती थी। इस प्रकार श्रीराम और सीता ने एक-दूसरे के साथ अनेक वर्षों तक विहार किया।
(बालकाण्ड समाप्त। अब अगले भागों में अयोध्याकाण्ड…)
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(स्रोत: वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस )
(नोट: वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। मैं बहुत संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिख रहा हूँ। पूरा ही ग्रन्थ जस का तस यहाँ नहीं लिखा जा सकता, लेकिन अधिक विस्तार से जानने के लिए आप मूल ग्रन्थ को भी अवश्य पढ़ें।)
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