सुमंत विद्वांस। ( वाल्मीकि रामायण )दशरथ जी की आज्ञा के अनुसार सुमन्त्र गये और श्रीराम को अपने रथ पर बिठाकर ले आये। रथ से उतरने पर श्रीराम दोनों हाथ जोड़कर अपने पिता की ओर बढ़े और पास पहुँचने पर उन्होंने अपना नाम सुनाते हुए पिता के चरणों में प्रणाम किया।
श्रीराम को प्रणाम करता हुआ देख राजा दशरथ ने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये और अपने प्रिय पुत्र को पास खींचकर सीने से लगा लिया। फिर उन्होंने श्रीराम को अपने पास ही रखे एक मणिजटित स्वर्णभूषित सिंहासन पर बैठने की आज्ञा दी, जो उन्हीं के लिए वहाँ लाया गया था।
अब दशरथ जी अपने पुत्र को संबोधित करते हुए बोले, ‘बेटा! तुम्हारा जन्म मेरी बड़ी महारानी कौसल्या के गर्भ से हुआ है। तुम अपनी माता के अनुरूप ही जन्मे हो और गुणों में तो तुम मुझसे भी बढ़कर हो, इसीलिए तुम मेरे परम प्रिय पुत्र हो। तुमने अपने गुणों से प्रजा को भी प्रसन्न कर लिया है, अतः कल पुष्य नक्षत्र के योग में तुम युवराज का पद ग्रहण करो।’
‘बेटे! यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो, तथापि मैं स्नेहवश तुम्हारे हित की कुछ बातें तुम्हें बताता हूँ। तुम और भी अधिक विनयी बनो और सदा जितेन्द्रिय रहो। काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग करो। अपने राज्य की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष रूप से स्वयं देखकर तथा गुप्तचरों द्वारा परोक्ष रूप से जानकारी जुटाकर सदा न्यायपूर्वक कार्य करो।’
‘मंत्री, सेनापति आदि समस्त अधिकारियों को व प्रजाजनों को सदा प्रसन्न रखना। जो राजा भण्डारगृह तथा शस्त्रागार के द्वारा उपयोगी वस्तुओं का बहुत बड़ा संग्रह करके मंत्री, सेनापति और प्रजा आदि को प्रिय मानकर उन्हें अपने प्रति अनुरक्त एवं प्रसन्न रखते हुए अपने राज्य का पालन करता है, वही श्रेष्ठ राजा होता है। इसलिए तुम भी अपने मन पर नियंत्रण रखकर ऐसा ही उत्तम आचरण करते रहो।’
राजा की ये बातें सुनकर श्रीरामचन्द्रजी के हितैषियों ने तुरंत ही कौसल्या माँ के पास जाकर उन्हें भी यह शुभ समाचार सुनाया कि श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है। यह प्रिय बात सुनकर महारानी कौसल्या ने उन सबको अनेक प्रकार के रत्न, स्वर्ण और गौएँ पुरस्कार के रूप में दीं।
इधर श्रीराम भी अपने पिता को प्रणाम करके रथ पर बैठे व मार्ग में मिलने वाले नगरवासियों का अभिवादन करते हुए वे अपने निवास को चले गए। नगरवासी भी अत्यंत हर्षित होकर इस शुभ कार्य की सफलता के लिए देवताओं से प्रार्थना करने लगे।
राजसभा से सब नगरवासियों के चले जाने के बाद राजा दशरथ ने अपने मंत्रियों के साथ पुनः विचार-विमर्श करके यह निश्चित किया कि ‘कल पुष्य नक्षत्र में ही मुझे युवराज पद पर श्रीराम का अभिषेक कर देना चाहिए।’ तब उन्होंने अन्तःपुर में जाकर सूत को बुलाया और आज्ञा दी कि ‘जाओ, श्रीराम को एक बार पुनः यहाँ बुला लाओ’।
उस आज्ञा के अनुसार सुमन्त्र पुनः श्रीराम को बुला लाने के लिए शीघ्रता से गए। द्वारपालों से उनके पुनः आगमन की सूचना सुनते ही श्रीराम के मन में संदेह हो गया। उन्होंने बड़ी उतावली के साथ पूछा, “आपको पुनः यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ी? मुझे यह स्पष्ट रूप से बताइये।”
तब सूत ने कहा, “महाराज आपसे मिलना चाहते हैं। वहाँ जाने न जाने का निर्णय आप स्वयं करें।”
यह सुनकर श्रीराम तुरंत ही महाराज से मिलने उनके महल में पहुँचे। तब महाराज ने एकांत में उनसे कहा, “श्रीराम! मैंने अपने जीवन में सभी सुखों का उपभोग कर लिया, बहुत-सी दान-दक्षिणा और सैकड़ों यज्ञ भी कर लिये। मुझे पुत्र के रूप में तुम प्राप्त हुए, जिसकी इस पूरी पृथ्वी पर किसी से तुलना नहीं हो सकती है। अब मेरी आयु बहुत अधिक हो गई है और तुम्हें युवराज पद पर प्रतिष्ठित करने के अतिरिक्त अब मेरे जीवन का कोई कर्तव्य शेष नहीं है। अतः तुम्हें मेरी इस आज्ञा का पालन करना चाहिए।”
“बेटा! आजकल मुझे बड़े बुरे सपने दिखाई देते हैं। दिन में वज्रपात के साथ-साथ बड़ा भयंकर नाद करने वाली उल्काएँ भी गिर रही हैं। ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्म-नक्षत्र को सूर्य, मंगल और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रान्त कर लिया है। ऐसे अशुभ लक्षण दिखाई देने पर प्रायः राजा घोर विपत्ति में पड़ जाता है और अंततः उसकी मृत्यु भी हो जाती है।”
“रघुनन्दन! प्राणियों की बुद्धि बड़ी चंचल होती है। अतः मेरे मन में मोह छा जाए, उससे पहले ही तुम युवराज पद पर अपना अभिषेक करवा लो। ज्योतिषियों ने कहा है कि आज चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में विराजमान हैं तथा कल निश्चय ही वे पुष्य नक्षत्र पर रहेंगे। तुम उसी नक्षत्र में अपना अभिषेक करवा लो। मेरा मन बार-बार मुझसे यह कार्य शीघ्रता से करने को कह रहा है। इस कारण मैं कल अवश्य ही युवराजपद पर तुम्हारा अभिषेक कर दूँगा।”
“अतः इस समय से लेकर सारी रात तुम इन्द्रियसंयमपूर्वक रहो, वधू सीता के साथ उपवास करो और कुश की शय्या पर सोओ। इस प्रकार के शुभ-कार्यों में बहुत-से विघ्न आने की संभावना रहती है, अतः तुम्हारे अंगरक्षकों व सेवकों को आज अधिक सजग रहना चाहिए।”
“जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहाँ हैं, उनके वापस आने से पहले ही तुम्हारा अभिषेक हो जाना उचित है। यद्यपि भरत भी धर्मात्मा, दयालु, जितेन्द्रिय एवं सज्जन हैं, किन्तु मनुष्यों का मन प्रायः स्थिर नहीं रहता है। अतः कोई विघ्न आने से पूर्व ही युवराज पद पर तुम्हारा अभिषेक हो जाना चाहिए।”
पिता की ये सारी बातें सुनकर एवं राज्याभिषेक के लिए व्रत का पालन करने की आज्ञा लेकर श्रीराम अपने महल में वापस लौटे। उन्हें सीता को भी व्रतपालन की सूचना देनी थी, किंतु सीता वहाँ दिखाई नहीं दी। अतः वे तुरंत ही वहाँ से निकलकर अपनी माता के अन्तःपुर में चले गए।
श्रीराम के राज्याभिषेक का शुभ समाचार सुनकर सुमित्रा व लक्ष्मण पहले ही वहाँ आ गए थे। सीता को भी वहीं बुला लिया गया था। वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने देखा कि माता कौसल्या ने रेशमी वस्त्र पहने हैं और वे मौन होकर देवमन्दिर में अपने पुत्र के कल्याण के लिए आराधना कर रही हैं। सुमित्रा, सीता व लक्ष्मण उनके पास ही खड़े थे।
अपनी माता के निकट पहुँचकर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया और अपने राज्याभिषेक के संबंध में उनसे यह बात कही, “माँ! पिताजी ने मुझे प्रजापालन के कार्य में नियुक्त किया है। कल मेरा अभिषेक होगा। अतः पिताजी का आदेश है कि मुझे और सीता को आज रात उपवास करना होगा। उपाध्यायों ने यह बात उन्हें बताई है।”
जिस बात की अभिलाषा चिरकाल से थी, उस शुभ समाचार को सुनकर माता कौसल्या की आँखों में आनन्द से आँसू आ गए। वे गद्गद होकर बोलीं, “बेटा श्रीराम! चिरंजीवी होओ। तुम अवश्य ही किसी मंगलमय नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे, जिससे तुमने अपने गुणों के द्वारा अपने पिता दशरथ को प्रसन्न कर लिया। तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले सभी शत्रु नष्ट हो जाएँ और तुम राजलक्ष्मी से युक्त होकर मेरे और सुमित्रा के बन्धु-बांधवों को आनन्दित करो। मैंने भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए जो भी व्रत-उपवास आदि किया था, वह आज सफल हो गया।”
माता की यह बात सुनने के बाद श्रीराम ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर खड़े अपने भाई लक्ष्मण को देखकर मुस्कुराते हुए उनसे कहा, “लक्ष्मण! तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो। यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है। तुम्हारे लिए ही मैं इस जीवन तथा राज्य की अभिलाषा करता हूँ। तुम मेरे साथ इस राज्य का शासन करो।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और सीता को साथ चलने की आज्ञा दिलाकर वे उन्हें लेकर अपने महल में चले गए।
उधर महाराज दशरथ ने श्रीराम को विदा करने के बाद अपने पुरोहित वसिष्ठ जी को बुलाकर कहा, “तपोधन! आप जाइये एवं राम व सीता से उपवास व्रत का पालन करवाइए।”
‘तथास्तु’ कहकर वसिष्ठ जी श्रीराम को उपवास व्रत की दीक्षा देने के लिए ब्राह्मणों के चढ़ने योग्य श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर श्रीराम के महल की ओर गए। महल की तीन ड्योढ़ियों में उन्होंने रथ से ही प्रवेश किया। उनके आगमन का समाचार पाते ही श्रीराम तुरंत ही उनका स्वागत करने स्वयं घर से बाहर आये और महर्षि का हाथ पकड़कर उन्हें रथ से नीचे उतारा।
उनकी विनम्रता से संतुष्ट होकर वसिष्ठ जी ने कहा, “श्रीराम! तुम्हारे पिता तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, इसी कारण वे कल प्रातःकाल तुम्हारा युवराज पद पर अभिषेक करेंगे। अतः आज की रात तुम वधू सीता के साथ उपवास करो।” ऐसा कहकर उन्होंने श्रीराम और सीता को उपवास के व्रत की दीक्षा दी। श्रीराम ने भी गुरु वसिष्ठ का यथावत् पूजन किया। इसके उपरान्त श्रीराम की अनुमति लेकर मुनि वसिष्ठ वहाँ से चले गए और दशरथ जी को यह कार्य पूर्ण हो जाने की सूचना दी। यह समाचार पाकर राजा दशरथ अत्यंत संतुष्ट हुए और सबसे विदा लेकर उन्होंने अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया।
इधर पुरोहित वसिष्ठ जी के जाने पर श्रीराम ने कुछ समय अपने हितैषियों के साथ बिताया तथा उसके बाद वे भी अपने भवन में लौट गए। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने स्नान करके अपनी पत्नी के साथ भगवान् विष्णु की उपासना आरंभ की। उन्होंने हविष्य-पात्र को सिर झुकाकर नमस्कार किया और प्रज्वलित अग्नि में विधिपूर्वक उस हविष्य की आहुति दी। इसके पश्चात् अपने मनोरथ की सिद्धि का संकल्प लेकर उन्होंने उस शेष हविष्य का भक्षण किया और अपने मन को संयम में रखकर वे मौन हो गए। राजकुमार श्रीराम व विदेहनन्दिनी सीता ने उस रात वहीं बिछी हुई कुश की चटाई पर शयन किया।
तीन पहर बीत जाने पर जब एक ही पहर रात शेष रह गई, तब वे शयन से उठ गये। उन्होंने अपने सेवकों को सभा-मण्डप सजाने की आज्ञा दी। सूत, मागध व बंदियों की सुखद वाणी को सुनते हुए श्रीराम ने प्रातःकालिक उपासना की और फिर वे एकाग्रचित्त होकर जप करने लगे।
इसके पश्चात् रेशमी वस्त्र धारण किये हुए श्रीराम ने मस्तक झुकाकर भगवान् मधुसूदन को प्रणाम करके उनका स्तवन किया तथा ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन करवाया। उन ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन का मधुर स्वर अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि के साथ पूरे अयोध्या नगर में फैल गया। श्रीराम के व्रत का समाचार जानकर सबको अत्यंत प्रसन्नता हुई।
सबेरा होने पर नगरवासी भी श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए अयोध्यापुरी को सजाने में लग गए। सभी घरों, दुकानों, मंदिरों, चौराहों, गलियों, पवित्र वृक्षों आदि में ऊँची ध्वजाएँ लगाईं गईं और पताकाएँ फहराई गईं। पूरे नगर में नटों, नर्तकों व गायकों की मधुर वाणी सुनाई देने लगी। नगरवासियों ने राजमार्ग को फूलों से सजाकर वहाँ धूप की सुगन्ध फैला दी थी, जिससे राजमार्ग अत्यंत मनोहर लगने लगा। राज्याभिषेक का कार्यक्रम पूरा होते-होते रात हो जाएगी, यह विचार करके सड़कों की दोनों ओर कई शाखाओं वाले दीप-स्तंभ खड़े कर दिए गए। इस प्रकार नगर को सजाकर सभी नगरवासी राज्याभिषेक की चर्चा करने लगे व महाराज दशरथ व श्रीराम के हित की कामना करने लगे।
यह कोलाहल सुनकर रानी कैकेयी की दासी मन्थरा महल की छत पर गई। वह कैकेयी के मायके से उसके साथ ही आई थी और सदा कैकेयी के साथ ही रहा करती थी। उसका जन्म कहाँ हुआ था, वह किस राज्य की थी और उसके माता-पिता कौन थे, ये बातें किसी को भी ज्ञात नहीं थीं।
छत पर पहुँचकर मन्थरा ने देखा कि अयोध्या की सड़कों पर चन्दन मिश्रित जल से छिड़काव किया गया है और नगर के सभी लोग उबटन लगाकर सिर के ऊपर से स्नान किये हुए हैं। श्रीराम से प्राप्त माल्य और मोदक हाथों में लेकर ब्राह्मण हर्षनाद कर रहे हैं, देवमन्दिरों के दरवाजे चूने व चन्दन से लीपकर सफेद एवं सुन्दर बनाए गए हैं। सब ओर अनेक प्रकार के बाजों की मनोहर ध्वनि सुनाई दे रही है। पूरे नगर में ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ और पताकाएँ लगाईं गई हैं।
अयोध्या का यह रूप देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
(आगे अगले भाग में…)
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(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
(नोट: वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। मैं केवल सारांश ही लिख रहा हूँ। अधिक विस्तार से जानने के लिए मूल ग्रन्थ को पढ़ें।)