दीपक कुमार द्विवेदी. वैदिक काल गणना और सृष्टि के उत्पत्ति के आधुनिक और वैदिक सिद्धान्त में क्या अंतर है मैं जिस विषय पर बात करने जा रहा हू उसे आज के आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने लग गया है जब पृथ्वी के आयु के निर्धारण की बात बात आती है तो जब धार्मिक मान्यता की बात आती है तो आब्रहिक पंथ मानते हैं कि पृथ्वी की उत्पत्ति 6000 हजार वर्ष पूर्व है और सनातन वैदिक धर्म के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति 1 ,96,08,53,124 वर्ष वर्तमान में चल रहा है आज के वैज्ञानिक पृथ्वी की उत्पत्ति आयु 2 अरब वर्ष मान रहे हैं हमे वैदिक काल गणना के विषय बात करना है तो हमे सृष्टि उत्पत्ति कैसे हुई आधुनिक सिद्धान्त और वेदों उपनिषदों में दिए गए सिद्धान्तो की बात करनी होगी और आधुनिक सिद्धान्त के सामने वैदिक सिद्धान्त कहा ठहराता है
आधुनिक महा विस्फोट या बिग बैंग थ्योरी क्या है
बिग बैंग सिद्धान्त के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व(13.7 Billion year ago) ब्रह्मांड सिमटा हुआ था।[1] इसमें हुए एक विस्फोट के कारण इसमें सिमटा हर एक कण फैलता गया जिसके फलस्वरूप ब्रह्मांड की रचना हुई। यह विस्तार आज भी जारी है जिसके चलते ब्रह्मांड आज भी फैल रहा है।[2] इस धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सजर्न हुआ। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे बिग बैंग सिद्धान्त कहा जाता है। महाविस्फोट नामक इस महाविस्फोट के धमाके के मात्र १.४३ सेकेंड अंतराल के बाद समय, अंतरिक्ष की वर्तमान मान्यताएं अस्तित्व में आ चुकी थीं। भौतिकी के नियम लागू होने लग गये थे। १.३४वें सेकेंड में ब्रह्मांड १०३० गुणा फैल चुका था और क्वार्क, लैप्टान और फोटोन का गर्म द्रव्य बन चुका था। १.४ सेकेंड पर क्वार्क मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाने लगे और ब्रह्मांड अब कुछ ठंडा हो चुका था। हाइड्रोजन, हीलियम आदि के अस्तित्त्व का आरंभ होने लगा था और अन्य भौतिक तत्व बनने लगे थे।
ब्रह्मांड का जन्म एक महाविस्फोट के परिणामस्वरूप हुआ। इसी को महाविस्फोट सिद्धान्त या बिग बैंग सिद्धान्त कहते हैं।जिसके अनुसार लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था। उस समय मानवीय समय और स्थान जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी।
बिग बैंग सिद्धांत के आरंभ का इतिहास आधुनिक भौतिकी में जॉर्ज लेमैत्रे ने लिखा हुआ है।[7] लैमेंन्तेयर एक रोमन कैथोलिक पादरी थे और साथ ही वैज्ञानिक भी। उनका यह सिद्धान्त अल्बर्ट आइंसटीन के प्रसिद्ध सामान्य सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आधारित था।
यह ऍडविन हबल थे जिन्होंने वर्ष 1929 में यह बताया कि सभी गैलेक्सी एक दूसरे से सिकुड़ रहे हैं। महाविस्फोट सिद्धांत दो मुख्य धारणाओं पर आधारित होता है। पहला भौतिक नियम और दूसरा ब्रह्माण्डीय सिद्धांत। ब्रह्माण्डीय सिद्वांत के मुताबिक ब्रह्मांड सजातीय और समदैशिक (आइसोट्रॉपिक) होता है। १९६४ में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्गस ने महाविस्फोट के बाद एक सेकेंड के अरबें भाग में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जो भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था। इसे बाद में ‘हिग्गस-बोसोन’ के नाम से जाना गया। इस सिद्धांत ने जहां ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों पर से पर्दा उठाया, वहीं उसके स्वरूप को परिभाषित करने में भी मदद की
इस ब्रह्माण्ड उत्पति कैसे हुई वेदों के अनुसार सृष्टि की रचना भगवान ने किया है और ब्रह्राण्ड बनने का क्रम क्या है यह प्रश्न प्रायः हिंदू सनातन धर्म से पूछा जाता है इसका सरल तथा वैज्ञानिक आधार पर भी है हिंदू धर्म के अनुसार कैसे बना इस पर भौतिक वैज्ञानिक अगर शोध करें तो शायद सिद्ध भी कर दे सबसे पहले के अनुसार यह समझिए की तीन नित्य सदा थे है और रहेंगे तत्व है वेद ने कहा
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नात: पर वेदितव्यं हि किञ्चित
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्व प्रोक्तं त्रिविध ब्रह्ममेतत् “
श्वेतांश्वतर उपनिषद १.१२
भावार्थ तीन तत्व है अनादि जिसका प्रारंभ न हो अनंत शाश्वत सदैव के लिए एक ब्रह्मा एक जीव माया है माया ब्रह्मांड की शक्ति है या ऐसा भी कह सकते हैं कि भौतिक ऊर्जा शक्ति है जिससे यह संपूर्ण ब्रह्मांड बना है आत्मा का निर्माण माया से नहीं हुआ है और न ही ईश्वर से हुआ है क्योंकि उपयुक्त वेद मंत्र से यही कहा गया है की तीन नित्य तत्व है आनदि जिसका प्रारंभ नहीं हुआ है लेकिन यह अवश्य है कि आत्मा और माया की सत्ता भगवान कारण है
श्वेतांश्वतर उपनिषद १.१० क्षरं प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक अर्थात क्षर माया है अक्षर जीव दोनों का शासन करने वाला है भगवान है है अतएव माया और जीव भगवान का अध्यक्ष हैं भूमिरापोऽनलो वायु:खं बुद्धिरेव च अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृति प्रकृतिरष्टधा अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्
जीवभूतः महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्
भावार्थ पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार भी इस प्रकार से विभाजित मेरी जड़ प्रकृति माया है और महाबाहो इससे दूसरी को जिससे संपूर्ण जगत में धारण किया जाता है मेरी जीव रुप परा अर्थात चेतना प्रकृति आत्मा जान
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई जैसे उपर बताया गया है माया भगवान की शक्ति है तथा वो दिन किसी दिन नहीं बनी है और वो अनादि है तो उसी माया की शक्ति से संसार प्रकट हुआ है वैसे तो माया जड़ है अर्थात माया आप कुछ नहीं कर सकती हैं परन्तु भगवान अपनी इच्छानुसार माया को सक्रिय कर देते हैं हालांकि माया एक शाश्वत ऊर्जा है और भगवान की शक्ति है इसलिए सक्रिय करने की आवश्यकता है दूसरे शब्दों माया दिमाग रहित है और निर्जीव ऊर्जा है यह ब्रह्मांड प्रकट करने के लिए स्वयं निर्णय नहीं ले सकती है परन्तु भगवान माया को सक्रिय करते हैं तो स्वयं अंतर्निहित भोतिक गुणो के अनुसार माया ब्रह्मांड के रूप प्रकट करती है
ब्रह्माण्ड बनने का क्रम
तस्माद्वा एतास्मादात्मना आकाश सम्भूतं: आकाशाद्वयुः वायेरग्रिःअग्रेरापः अद्वयंः पृथिवी पृथिव्या ओषधयः ओषधीभ्योन्नम् अन्नात्पुरूषः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः तस्येमेव शिरः अयं दक्षिण पक्ष अयमुत्तर :पक्ष अयमात्मा इदं पुच्छ प्रतिष्ठा तदप्येष श्लोकों भवति तैतिरोयोपनिषद २. १
भावार्थ निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्ध उस परामात्मा के पहल से आकाश तत्व उपन्न हुआ आकाश से वायु से अग्नि से जल और जल तत्व से पृथ्वी तत्व उपन्न पृथ्वी से समस्त औषधियां उत्पन्न औषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ अन्न से ही मनुष्य का शरीर उत्पन्न हुआ वह मनुष्य का शरीर निश्चय ही रसमय है उसका प्रत्यक्ष दिखने वाला सिर ही पक्षी कल्पना में सिर है यह दाहिनी भुजा में पंख है बायी भुजा में ही बाया पंख है यह शरीर का मध्यभाग है यह पर दोनों पैर ही पूछ है उसी विषय
आगे श्लोक कहा जाने वाला है इस मंत्र में ब्रह्राण्ड की उत्पत्ति के साथ मनुष्य के ह्रदय में गुफा वर्णन करने का उद्देश्य से पहले मनुष्य के शरीर की उत्पत्ति का प्रकार संक्षेप बताकर उसके अंगों की पक्षी के अंगों के रूप कल्पना की गई है इस मंत्र का भाव यह है कि परमात्मा से आकाश तत्व उपन्न हुआ आकाश से वायु तत्व वायु तत्व से अग्नि तत्व से जल तत्व और जल तत्व से पृथ्वी उत्पन्न हुई पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां अनाज के पौधे हुए और औषधियों से मनुष्य का आहार अन्न उत्पन्न हुआ उस अन्न से यह स्थूल मनुष्य शरीर है उसकी पक्षी के रूप कल्पना की गई है उपयुक्त उपनिषद के मंत्र पृथ्वी जल से उपन्न होने की बात संक्षेप में की गई है । और पृथ्वी के प्राकट्य विस्तार ऋग्वेद में इस प्रकार से की गई है
भूर्जज्ञ उतानपदो भुवं आशा अजायन्त
ऋग्वेद १०. ७२.४
भावार्थ पृथ्वी सूर्य से उपन्न होती हैं अर्थात , भगवान की प्रेरणा से ब्रह्राण्ड बनता है और प्रलय होता है यह ब्रह्मांड का प्रलय बिल्कुल ब्रह्राण्ड उत्पत्ति के विपरित होता है अर्थात प्रलय कर्म है और पृथ्वी जल विलीन हो गई जल अग्नि में अग्नि वायु में आकाश और आकाश भगवान में अंत में केवल भगवान ही रहते हैं आत्मा महोदर् में रहती हैं तथा माया जड़ समान हो जाती है
वैदिक काल गणना
बिना संकल्प मंत्र के वैदिक काल गणना की बात अधूरी रहेगी क्योंकि संकल्प मंत्र में सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक के समय का जिक्र मिलता है
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2071, तमेऽब्दे प्लवंग नाम संवत्सरे दक्षिणायने ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे मासे पक्षे तिथौ वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री (जिस देवी.देवता की पूजा कर रहे हैं उनका नाम ले)पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये
प्राचीन हिन्दू धार्मिक और पौराणिक वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं। प्राचीन भारतीय मापन पद्धतियां, अभी भी प्रयोग में हैं (मुख्यतः मूल सनातन हिन्दू धर्म के धार्मिक उद्देश्यों में)। इसके साथ साथ ही हिन्दू वैदिक ग्रन्थों मॆं लम्बाई-क्षेत्र-भार मापन की भी इकाइयाँ परिमाण सहित उल्लेखित हैं।यह सभी योग में भी प्रयोग में हैं।
हिन्दू समय चक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं।[1]:
(श्लोक 11) वह जो कि श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है।
(12) और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है।
(13) एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वर्ष बनाते हैं। एक वर्ष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं।
(14) देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं।
(15) बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। यह तैंतालीस लाख बीस हज़ार सौर वर्षों का होता है।
(16) चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:
(17) एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है।
(18) इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होती हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है।
(19) एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।
(20) एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है।
(21) इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
(22) इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) की सत्ताईसवीं चतुर्युगी बीत चुकी है।
(23) वर्तमान में, अट्ठाईसवीं चतुर्युगी का द्वापर युग बीत चुका है तथा भगवान कृष्ण के अवतार समाप्ति से ५१२३वाँ वर्ष (ईस्वी सन् २०२१ में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से) प्रगतिशील है। कलियुग की कुल अवधि ४,३२,००० वर्ष है।
नाक्षत्रीय मापन
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एक परमाणु मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग ४ सैकिण्ड
एक विघटि = ६ परमाणु = २४ सैकिण्ड
एक घटि या घड़ी = ६० विघटि = २४ मिनट
एक मुहूर्त = २ घड़ियां = ४८ मिनट
एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = ३० मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, न कि अर्धरात्रि से)
शतपथ ब्राह्मण के आधार पर वैदिक कालमानम् -शतपथ.१२|३|२|५ इस प्रकार है –
द्वयोः (२) त्रुट्योः- एकः (१) लवः |
द्वयोः (२) लवयोः- एकः (१) निमेषः |
पंचशानाम् (१५) निमेषाणाम् एकम् (१) इदानि (कष्ठा) |
पंचदशानाम् (१५) इदानिनाम् एकम् (१) एतर्हि |
पंचदशानाम् (१५) एतर्हिणाम् एकम (१) क्षिप्रम् |
पंचदशानाम् (१५) क्षिप्राणां एकः (१) मुहूर्तः|
त्रिंशतः (३०) मुहूर्तानाम् एकः(१) मानुषोsहोरात्रः |
पंचदशानाम् (१५) अहोरात्राणाम् (१) अर्धःमासः |
त्रिंशतः (३०) अहोरात्राणाम् एकः (१) मासः |
द्वादशानाम् (१२) मासानाम् एकः (१) संवत्सरः |
पंचानाम् (५) संवत्सराणाम् एकम् (१) युगम् |
द्वादशानाम् (१२) युगानाम् एकः (१) युगसंघः भवति |
वैष्णवं प्रथमं तत्र बार्हस्पत्यं ततः परम् |
ऐन्द्रमाग्नेयंचत्वाष्ट्रं आहिर्बुध्न्यं पित्र्यकम्||
वैश्वदेवं सौम्यंचऐन्द्राग्नं चाssश्विनं तथा|
भाग्यं चेति द्वादशैवयुगानिकथितानि हि||
एके युगसंघे चान्द्राः षष्टिः संवत्सराः भवन्ति|
समय का मापन प्रारम्भ एक सूर्योदयसे और अहोरात्र का मापन का समापन अपर सूर्योदय से होता है |अर्धरात्री से नहीं होता है| जैसा कि कहा है-
सूर्योदयप्रमाणेन अहःप्रामाणिको भवेत्।
अर्धरात्रप्रमाणेन प्रपश्यन्तीतरे जनाः ॥
विष्णु पुराण में दी गई एक अन्य वैकल्पिक पद्धति समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तॄतीय निम्न है:
१० पलक झपकने का समय = १ काष्ठा
३५ काष्ठा= १ कला
२० कला= १ मुहूर्त
१० मुहूर्त= १ दिवस (२४ घंटे)
३० दिवस= १ मास
६ मास= १ अयन
२ अयन= १ वर्ष, = १ दिव्य दिवस
छोटी वैदिक समय इकाइयाँ
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एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्माण्डीय ‘.
एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग
एक वेध =100 त्रुटि.
एक लावा = 3 वेध.[2]
एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना
एक क्षण = 3 निमेष.
एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड
एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट.
15 लघु = एक नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं। इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो। ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है।
2 दण्ड = एक मुहूर्त.
6 या 7 मुहूर्त = एक याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि.[2]
4 याम या प्रहर = एक दिन या रात्रि। [4]
चाँद्र मापन
संपादित करें एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तिथिसिद्धान्त का खण्डतिथि और अखण्डतिथि के हिसाब से दो भेद है। वेदांगज्योतिष के अनुसार अखण्डतिथि माना जाता है। जिस दिन चान्द्रकला क्षीण हो जाता है उस दिन को अमावास्या माना जाता है। दुसरे दिन सूर्योदय होते ही शुक्लप्रतिपदा, तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया। इसी क्रम से १५ दिन में पूर्णिमा होती है। फिर दुसरे दिन सूर्योदय होते ही कृष्णप्रतिपदा। और फिर तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया,और इसी क्रम से तृतीया चतुर्थी आदि होते है।
१४ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो उसी दिन कृष्णचतुर्दशी टूटा हुआ मानकर दर्शश्राद्धादि कृत्य किया जाता है। ऐसा न होकर १५ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो तिथियाँ टूटे बिना ही पक्ष समाप्त होता है | इस कारण कभी २९ दिन का और कभी ३० दिन का चान्द्रमास माना जाता है। वेदांगज्योतिष भिन्न सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष का आधार में खण्डतिथि माना जाता है। उनके मत मे तिथियाँ दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस दिन से अधिक छब्बीस घंटे तक हो सकती है।
एक पक्ष या पखवाड़ा = पंद्रह तिथियाँ
चान्द्रमास दो प्रकारका होता है -एक अमान्त और पूर्णिमान्त। पहला शुक्लप्रतिपदा से अमावास्या तक अर्थात् शुक्लादिकृष्णान्त मास वेदांग ज्योतिष मानता है। इसके अलावा सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष के पक्षधर दूसरा पक्ष मानते हैं पूर्णिमान्त। अर्थात् कृष्णप्रतिपदासे आरम्भ कर पूर्णिमा तक
वेदांग ज्योतिष के आधार पर पंचवर्षात्मक युग माना जाता है | प्रत्येक ६० वर्ष में १२ युग व्यतीत हो जाते हैं। १२ युगों के नाम आगे बताया जा चुके हैं। शुक्लयजुर्वेदसंहिता के मन्त्रों २७|४५,३०|१५ ,२२|२८,२७|४५ ,२२|३१ मे पंचसंवत्सरात्मक युग का वर्णन है | ब्रह्माण्डपुराण १|२४|१३९-१४३ , लिंगपुराण १|६१|५०-५४, वायुपुराण १|५३|१११-११५ म.भारत.आश्वमेधिक पर्व४४|२,४४|१८ कौटलीय अर्थशास्त्र २|२० सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान-६|३-९ पूर्वोक्त ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष के अनुगामी है |
ऊष्ण कटिबन्धीय मापन
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एक याम = 7½ घटि
8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि
एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है)
अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना
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पितरों की समय गणना
15 मानव दिवस = एक पितृ दिवस
30 पितृ दिवस = 1 पितृ मास
12 पितृ मास = 1 पितृ वर्ष
पितृ जीवन काल = 100 पितृ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितृ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष
देवताओं की काल गणना
1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस
30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास
12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष
दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000
2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 360 मानव वर्ष = एक दिव्य वर्ष
4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 सत युग
3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग
2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग
1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग
12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)
ब्रह्मा की काल गणना
1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष; और यही सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है).
(दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं)
30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष)
12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)
50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध
2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)
ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:
ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:
चारों युग
4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष) सत युग
3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग
2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग
1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग
यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं
एक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष)
श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार “सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः”, अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिवस = 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है. एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.)
एक कल्प में 864,000,0000 – ८ अरब ६४ करोड़ सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं
ब्रह्मा का एक दिन बराबर है:
(14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)
= 994 महायुग + (60 चरण)
= 994 महायुग + (6 x 10) चरण
= 994 महायुग + 6 महायुग
= 1,000 महायुग
पाल्या
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‘पाल्या’ समय की एक इकाई है. यह इकाई, भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन (यदि प्रत्येक सूत्र एक शताब्दी में चढ़ाया गया हो) बनाने में लगे समय के बराबर है। दूसरी परिभाषा अनुसार, यह एक छोटी चिड़िया (यदि वह प्रत्येक रेशे को प्रति सौ वर्ष में उठाती है) द्वारा किसी एक वर्गमील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुएं को रिक्त करने में लगे समय के बराबर है. यह इकाई भगवान आदिनाथ के अवतरण के समय की है। यथार्थ में यह 100,000,000,000,000 पाल्य पहले था।
हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष में सातवें मनु, वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत 2079 में हैं। इस प्रकार अबतक १५ नील, ५५ खरब, २१ अरब, ९७ करोड़, १९ लाख, ६१ हज़ार, ६२5 वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।
ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई० पू० में हुआ था। इस बात को वेदांग ज्योतिष के व्यख्याकार नहीं मानते। उनका कहना है कि यह समय महाभारत के युद्ध का है । इसके ३६ साल बाद यदुवंश का विनाश हुआ और उसी दिन से वास्तविक कलियुग प्रारम्भ हुुआ। इस गणित से आज वि॰ सं॰ २०७३|४|१५ दिनांक को कलिसंवत् ५०८१|८वें मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि चल रही है |
ब्रह्मा जी के एक दिन में १४ इन्द्र मर जाते हैं और इनकी जगह नए देवता इन्द्र का स्थान लेते हैं। इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि होती है। दिन की इस गणना के आधार पर ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष होती है फिर ब्रह्मा मर जाते है और दूसरा देवता ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करते हैं। ब्रह्मा की आयु के बराबर विष्णु का एक दिन होता है। इस आधार पर विष्णु जी की आयु १०० वर्ष है। विष्णु जी १०० वर्ष का शंकर जी का एक दिन होता है। इस दिन और रात के अनुसार शंकर जी की आयु १०० वर्ष होती है।
सोर्स आधरित लेख
दीपक कुमार द्विवेदी