कोई आपको यदि यह कहे कि एक स्कूल ने कुछ छात्रों को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल दिया क्योंकि उन्होंने अपने माथे पर विभूति लगाकर स्कूल आने का घोर अपराध किया! आप लोग जरूर यह सोचेंगे कि जरूर यह घटना भारत के बाहर की रही होगी। किन्तु माफ़ कीजिये यह घटना भारत की ही है! जहाँ पर छात्रों को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल दिया जाता है क्योंकि उन्होंने अपने धर्म के हिसाब से अपने माथे पर विभूति धारण की हुई थी!
यह घटना रामेश्वरम की है जहाँ के एक क्रिशियन स्कूल सेंट जोसेप ने अपने स्कूल के दो विद्यार्थियों को सिर्फ इसलिए बाहर निकाल दिया क्योंकि उन्होंने अपने माथे पर विभूति लगाई हुई थी! आपको बता दूं कि हिंदुओं की विशेष भावनाओं से जुड़े रामेश्वरम की यात्रा का स्वपन हर बुजुर्ग देखता है, हर वह बेटा देखता है जो अपने बुजुर्ग माँ पिता को ले जाने के लिए कौड़ी कौड़ी संचित करता है! हिंदुओं के आस्था के केंद्र रामेश्वरम में इस तरह की घटना का होना कहाँ तक सही है?
सूत्रों के मुताबिक यह दोनों छात्र शबरीमाला की तीर्थ यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे थे और रीति-रिवाज के मुताबिक उन्होंने विभूति धारण कर रखी थी। घटना से एक दिन पहले भी उन्होंने माथे पर विभूति लगा रखी थी, जिस पर स्कूल ने आपत्ति जताते हुए आगे ऐसा न करने की हिदायत भी दी किन्तु दोनों छात्र नहीं माने और अगले दिन भी उन्होंने ऐसा ही किया किन्तु स्कूल ने दोनों छात्रों को ‘अनुशानहीनता’ और ‘स्वीकार नहीं किये जाने वाले कृत्यों’ के तहत स्कूल से सस्पेंड कर दिया!
हिन्दू रीति रिवाजों का पालन करने को अनुशासनहीनता कहने वाला स्कूल यदि भारत के बाहर का हो तो बात समझ आती है लेकिन रामेश्वरम जैसी हिन्दू धार्मिक भावनाओं से जुड़े स्थान पर इस तरह की घटना सच में सोचनीय है। और उससे भी ज्यादा सोचनीय यह है कि इस घटना से सम्बंधित कहीं कोई असहिष्णुता जैसा शब्द मुखर नहीं हुआ। न मीडिया को इसमें असहिष्णुता नजर आयी! न पुरस्कार वापसी गैंग को अपने अवार्ड भारी लगे! तथाकथित बुद्धिजीवी वाली जमात को तो हिंदुओं से सम्बंधित घटनाओं पर मुंह में दही जमा कर रखने की पुरानी गंभीर समस्या पहले से ही हैं।
फर्क तो शायद हममें से भी किसी को भी नहीं पड़ता!अगर पड़ता तो शायद मिशनरीज स्कूलों का धंधा इतना न फलता- फूलता! पश्चिमी सभ्यता और मैकाले की शिक्षा-प्रणाली के मकड़जाड़ में हम इस कदर उलझ चुके है कि जितना भी हाथ पाँव मारें बाहर नहीं निकल सकते। महान भारतीय शिक्षा प्रणाली और गुरुकुल परंपरा को छोड़ हमने पाश्चात्य सभ्यता को इस कदर अपने जीवन में शामिल कर लिया है कि हम चाह कर भी इस खोखले खोल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं या कह लीजिये निकलना नहीं चाहते! वरना क्या किसी स्कूल को इतनी शक्ति थी कि स्वधर्म पालन को अनुशासनहीनता कह पाता!