विक्रम सूद की लिखी यह किताब न तो ज्ञापन मात्र है न तो किसी खुफिया संगठनों की अंदरुनी दस्तावेज है। लेकिन हां यह किताब जासूसों के बीच एक बुद्धिजीवी द्वारा लिखी ऐसी किताब है जो हमारी मीडिया की असलियत को दिखाती है। इस किताब में विस्तार से चर्चा की गई है किस प्रकार केजीबी और सीआईए के हाथों हमारे मीडिया संस्थान ने अपनी ईमानदारी को गिरवी रख दिया था। 70 और 80 के दशक में मास्को ने भारतीय मीडिया को लेकर दावा किया था कि यहां के अखबारों और समाचार एजेंसियों के माध्यम से हजारों आलेख और रिपोर्ट प्रकाशित कराए गए थे।
मुख्य बिंदु
* पेंगुइन प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब के लेखक विक्रम सूद रॉ के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं
* जासूसी क्षेत्र के बाहर के पाठकों को भी जासूसी के हर पहलू की विस्तृत जानकारी दी जाती है
भारत एक ऐसा देश है जहां हर किसी के पास खुफिया एजेंसियों के बारे में अपना-अपना विचार तो है लेकिन इसके बारे में जानकारी कैसे प्राप्त की जा सकती है इसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं? पत्रकारों को भी खुफिया एजेंसी रॉ के साथ क्या गलत हो रहा है या फिर इसे कैसे ठीक किया जाए इसकी जानकारी तो होती है लेकिन ये जानकारी नहीं होती है कि रॉ काम कैसे करता है या रॉ (RAW) संचालित कैसे होता है? जहां तक नेताओं की बात है तो वे भी बस इतना ही जानते हैं कि इसकी कुछ आवश्यकताएं हैं जिसे पूरी करने की जरूरत है। लेकिन अंदरुनी मामले जानने की बात है तो वे भी शेष दुनिया से अलग नहीं होते हैं।
‘द एन इंडिंग गेम’ के लेखक विक्रम सूद कोई सामान्य व्यक्ति नही हैं। पंजाब के रहने वाले सूद देश की खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख रह चुके हैं। उनका कहना है कि जब वे इस पेशे में आए तो उन्हें बताया गया था कि यह ऐसा गंदा खेल है जिसे प्रतिष्ठित लोगों द्वारा खेला जाता है। जब पहली बार वे इस संगठन में आए तो उन्हें जो जैकेट पहनने के लिए दिया गया उसमें लिखा था मार्केटिंग बेट। अब जब 31 सालों तक इस संगठन में बिताने के बाद किताब लिखी है तो उन्होंने अपनी प्रस्तावना में मार्केटिंग बेट को स्पष्ट किया है। उन्होंने किताब की प्रस्तावना में लिखा है कि यह किताब न तो किसी प्रकार की कोई विज्ञप्ति है न ही 31 सालों तक काम करने वाले संगठन के अंदरुनी मामले का कोई दस्तावेज ही है।
खुफिया एजेंसियों से जुड़े लोगों या विशेषज्ञों के लिए संदर्भ ग्रंथि की बजाए उन्होंने प्राथमिक स्तर की किताब लिखी है ताकि इस दुनिया से दूर रहे पाठकों कि इस प्रकार की किताबें पढ़ने में रूचि हो। उनका कहना है कि आम पाठकों से ही किताब की लोकप्रियता होती है। गंभीर और विद्वान व्यक्ति दस जगह चर्चा करने से बचते हैं जबकि कोई आम नागरिक इस बारे में सामान्य रूप से चर्चा करते हैं और दूसरों को भी किताब पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
सूद ने अपनी इस किताब में आम लोगों को यह बताने की कोशिश की है कि किस प्रकार हमारे देश के खुफिया एजेंसियों को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए (CIA) तथा रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी (KGB) के साथ समझौता करना पड़ता था। किताब में दर्शााया गया है कि यह समझौता भारतीय शासन के कारण करना पड़ा था। देश में आम धारणा है कि बड़ी संख्या में नेता, नौकरशाह, राजनयिक, पुलिस तथा खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को विदेशी खुफिया एजेंसियों से धन मिलता है। अब तो यह भी रहस्य नहीं रह गया है कि भारत की राजनीतिक पार्टियों को भी चुनाव लड़ने के लिए अमेरिका और रुस जैसे देशों से फंड मिलता है। लेकिन लोगों को इस किताब में 70 और 80 दशक के दौरान भारत में खेले गए मनोवैज्ञानिक खेल पढ़कर जरूर आश्चर्य होगा।
रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी ने दावा किया था भारत की दस समाचार एजेंसियां और अखबार उनके वेतन से चला करते थे। मास्को का दावा है कि उसने उस दौर में पूरी दुनिया में फैली समाचार एजेंसियों और अखबारों के माध्यम से एक लाख साठ हजार से भी अधिक आलेख प्रकाशित करवाए थे। अकेले भारत में 1972 से लेकर 1975 के बीच करीब 17 हजार आलेख और रिपोर्ट छपवाए थे।
URL: Vikram Sood’s book ‘The Unending Game’ opened the media conspiracy
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