“इतिहास में मेरा नाम तो रहेगा न?” मध्य प्रदेश में सिवनी जनपद में राजा जुझारू सिंह की पुत्री अपने पिता से कई बार यह प्रश्न पूछती थी। यह जो तलवारें इतना गरजती हैं, उनके संचालन का मौक़ा मुझे भी मिलेगा या नहीं? मैं भी अश्व पर बैठकर हवा से बातें करूंगी क्या? क्या मैं भी वायु को गति में चकमा दे सकूंगी!” बार बार बालिका मोहिनी स्वयं से पूछती। उसे नहीं पता था कि जब लोक और इतिहास की बात आएगी तो भारत आयातित इतिहास एवं आयातित विमर्श को महत्ता देगा और मोहिनी जैसी स्त्रियों को कहीं भी स्थान न देगा। आखिर ऐसा क्यों था भारत के भाग्य में घटित होना?
मोहिनी को यह लगता था कि वह स्वयं ही एक इतिहास बनाएं। 16 अगस्त 1831 को उनका जन्म हुआ था एवं वह स्त्रियोचित कार्यों के साथ ही अश्वसंचालन,तलवार बाज़ी और तीरंदाजी आदि समस्त युद्ध कौशल में कुशल थी। वह इस परम्परा को आगे बढ़ा रही थी, जिस परम्परा में स्त्री को युद्ध कौशल भी सिखाए जाते थे। हर स्त्री की भांति अवंतीबाई लोधी का विवाह भी होता है और हर स्त्री की तरह वह भी ब्याह कर अपने पति के घर गईं! पति का घर, न जाने स्त्री कितने सपने लेकर जाती है और चाहती है कि वह एक शांतिपूर्ण जीवन जिए, प्रेम पूर्ण जीवन जिए। परन्तु कुछ जीवन होते हैं, वह शांतिपूर्ण जीवन के लिए नहीं बल्कि चेतना के संवाहक होते हैं।
उनका जीवन ऐसा होता है जैसे शांत जल में एकदम से लहर आए और सब कुछ तहस नहस कर जाए। रायगढ़ के महाराजा लक्ष्मणसिंह के देहांत के उपरान्त विक्रमादित्य रायगढ़ के राजा बने और मोहिनी अर्थात अवंतीबाई महारानी बनीं। यह उनके जीवन का सबसे मधुर क्षण था। परन्तु क्या हर राजा रानी इतिहास में दर्ज हो गया है। सृष्टि के आरम्भ से आज तक न जाने कितने राजा रानी हुए हैं, क्या सभी इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गए हैं या कुछ रानियों ने समय से लोहा लिया है? यह प्रश्न अब अवंतीबाई के सम्मुख था। इसी बीच वह दो पुत्रों की माँ बन चुकी थीं। वह थे अमान सिंह और शेरसिंह।
अवंतीबाई अपने जीवन के इस दौर से सबसे अधिक प्रसन्न थीं। ऐसा लग रहा था कि अब बस यही जीवन है। परन्तसंभवतया नियति ने उनके विषय में बहुत कुछ सोच रखा था। कुछ ही वर्ष हुए थे कि राजा विक्रमादित्य का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। और उन दिनों भारत पर शिकारी शिकार की तलाश में रहते थे। वह शिकारी थे गोरे गोरे अंग्रेज, जो हर प्रकार से भारतीयों को दूषित करने में लगे हुए थे। उनके मुंह में भारतीय सम्पन्नता का लहू लग चुका था। और वह अब हर शहर को लीलने के लिए तैयार थे। राजा विक्रमादित्य का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ते ही उनकी नजर उस राज्य पर पड़ गयी और अब रानी को समझ आया कि अब उनका इतिहास में दर्ज होने का समय आ गया है। कहने के लिए शिक्षित और स्त्रियों को पुरुषों को बराबरी पर मानने वाले अंग्रेजों का दिमाग हमेशा से ही स्त्रियों के प्रति दोहरा रहा है। उन्होंने हमेशा ही स्त्रियों को नीचे माना है, किन्तु वह यह नहीं जानते थे कि उनका सामना एक ऐसे देश में उन स्त्रियों के साथ हो रहा है जिनकी रग रग में देवी का वास होता है। वह काली का रूप हैं। वह दुर्गा का रूप हैं।
कम्पनी की काली दृष्टि रायगढ़ पर पड़ चुकी थी और उन्होंने राजा विक्रमादित्य को पागल घोषित करके रायगढ़ का राज्य हड़पने का सोचा एवं प्रस्ताव भेजा। रानी समझ गयी और रानी ने शासन अपने हाथ में ले लिया। रानी जानती थीं कि कम्पनी के हाथों अपना राज्य गिरवी रखने का अर्थ है स्वयं के दोनों बाजू काट देना। रानी ने अपनी प्रजा को देखा, फिर अपने पति और बच्चों की तरफ देखा एवं शासन की बागडोर अपने हाथ में ली।
रानी ने अंग्रेजों की चाल को विफल कर दिया एवं शासन का संचालन कुशलता पूर्वक किया। परन्तु अभी उसकी राह में और रोड़े थे। इतनी ही बात थोड़ी न होती है कि इतिहास आपको स्थान दे! क्या विशेष किया है? भारत देश के वातावरण में घुटन बहुत ज्यादा हो गयी थी। समय आ रहा था नया इतिहास रचने का। समय आ रहा था कि उस युग के नायक आने वाले युग के लिए अपने साहस की कहानियां लिख जाएं। मई 1857 में विक्रमादित्य की मृत्यु हो गयी। अब तक नाम के लिए सहारा होने के कारण तनिक निश्चिन्त रहने वाली रानी अब नितांत अकेली हो गयी थी।
क्रान्ति भी आरम्भ हो गयी थी। रानी को ज्ञात था कि देर सबेर अंग्रेज उस पर भी आक्रमण करेंगे ही। उसने क्रान्ति का समर्थन किया तथा अपने साम्राज्य की सुरक्षा इतनी मजबूत कर रखी थी कि महीनों तक अंग्रेज उसे जीतने में सफल न हो पाए थे। परन्तु उसे ज्ञात था कि अब वह बहुत ज्यादा समय तक रोक नहीं पाएगी तो उसने आसपास के राजाओं को संदेसा भेजा कि वह एक सुरक्षा तंत्र बनाने में सहायता करें। उस समय उस क्षेत्र में अंग्रेजों का नेतृत्व वाडिंगटन कर रहा था। रानी तैयार थी युद्ध के लिए। रानी मंडला पर आक्रमण करना चाहती थी, पर वाडिंगटन बीच में आ गया। रानी ने आव देखा न ताव और जमकर टूट पड़ी। वाडिंगटन की जान एक सैनिक ने अपनी जान देकर बचाई। और वाडिंगटन वहां से भाग गया। रानी की तलवार अपने शत्रु को मारना चाहती थी और उस रोज़ उसकी तलवार ने न जाने कितने सैनिकों को मौत के घाट उतारा। “यह सब मेरी भारत भूमि के शत्रु हैं” और कहती कहती मारती जा रही थी। और वाडिंगटन छिप कर भागने के बाद रानी को सबक सिखाने के लिए परेशान था। रानी ने भी साफा बाँधा और चल पड़ी थी।
रानी को पकड़ने के लिए उसने रामगढ़ में आग लगा दी थी। रानी नेदेवहारगढ़ की पहाड़ियों से छापामार युद्ध जारी रखा। मगर रानी को लग रहा था कि उसके शौर्य की कहानी लिखने को इतिहास उत्सुक है और अब वह पूरी ताकत से टूट पड़ी और जीवन की अंतिम लड़ाई मानकर रोज़ लड़ती। फिर रानी को यह भी ज्ञात था कि उसे जीवित शत्रुओं के हाथों में नहीं पड़ना है। और फिर 20 मार्च 1858 का दिन आया और रानी ने अंग्रेजों की सेना को गाजर मूली की तरह काटकर स्वयं को भी तलवार मार ली। और जब वह इतिहास में अपने शौर्य के लिए दर्ज होने जा रही थीं तो उन्होंने आँखें खोलकर अंग्रेज अधिकारीयों से कहा कि “प्रजा को मैंने विद्रोह के लिए भड़काया था, वह सभी निर्दोष हैं।” और कहकर आँखें मूँद ली, इतिहास में दर्ज होने के लिए!
मगर किसका इतिहास? आज वह पूछ रही हैं, जब रानी को केवल लोधी समाज ही मानता है। केवल लोधी समाज ही यह कहने आता है कि यह हमारी रानी थीं, क्या वह सभी की रानी नहीं थीं? क्या लोधी समाज जो स्वयं को पिछड़ा मानता है वह अपने इस गौरवशाली इतिहास से परिचित नहीं है या वह परिचित होना नहीं चाहता? रानी चली गईं और जिस प्रजा के लिए, जिस भारत के लिए लड़ी, उसने उन्हें जाति विशेष की नायिका बना दिया, जबकि वह पूरी स्त्री जाति की नायिका हैं। जातिगत स्त्रीवाद के जाल में हमारी नायिकाएं कैसे खो सकती हैं?
इतिहास के पन्नों से स्त्री नायिकाओं की कथा को जन जन तक पहुंचने के आप के प्रयासों की मैं सराहना करती हूँ ,साधुवाद।
धन्यवाद, कविता जी
धन्यवाद कविता जी