जब अमेरिका में ‘हाउडी मोदी’ के मंच पर भारत अपनी वैश्विक पहचान की नई परिभाषा गढ़ रहा था, तब भारत से ही ऑस्कर अवार्ड्स के लिए एक ऐसी फिल्म भेजी जा रही थी, जो दुनिया को किसी भी एंगल से हमारी सशक्त छवि नहीं दिखाती है। इस साल प्रदर्शित हुई ज़ोया अख्तर की फिल्म ‘गली बॉय’ को भारत से ऑस्कर के लिए अधिकृत एंट्री दी गई है।
एक तरफ भारत दिखा रहा है कि हम कितने शक्तिशाली हो चुके हैं और दूसरी तरफ देश की गरीबी को ग्लोरिफ़ाई करती फिल्म उसी अमेरिका के पुरस्कार समारोह में भेज रहे हैं। गौरतलब है कि हमारी निर्धनता और विवशता को रेखांकित करती फ़िल्में वहां खूब सराही जाती हैं। इसलिए सम्भावना है कि एक अंग्रेजी फिल्म की नकल कर बनाई फिल्म ‘गली बॉय’ ऑस्कर में कुछ दिन दौड़ती नज़र आए।
इसी वर्ष भारत में हिन्दी, तमिल और मराठी भाषाओं में बनी ऐसी उत्कृष्ट फ़िल्में प्रदर्शित हुई जो ऑस्कर में जाने का माद्दा रखती थी। हिन्दी में बनी ‘मिशन मंगल’, एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर और द ताशकंद फाइल्स ऐसी फ़िल्में हैं जो कथानक और निर्देशन के स्तर पर ‘गली बॉय’ से बहुत उम्दा हैं। इन फिल्मों की उपेक्षा कर भारत से ‘गली बॉय’ को ‘इंटरनेशनल फीचर फिल्म केटेगरी’ में ऑफिशियल एंट्री से ऑस्कर भेजा गया।
क्या ये किसी किस्म का मज़ाक है या अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि खराब करने का षड्यंत्र है।ऑस्कर हमेशा से ही भारतीय फिल्मों के प्रति दुर्भावना से भरा रहा है। अपुर संसार (1959), गाइड (1965), सारांश (1984), नायकन (1987), परिंदा (1989), अंजलि (1990), हे राम (2000), देवदास (2002), हरिश्चन्द्रा ची फैक्टरी (2008), बर्फी (2012) और कोर्ट (2015) को भी भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया जा चुका है।
इनमे से गाइड, सारांश, परिंदा,अंजलि, हरिश्चन्द्रा ची फैक्टरी ऑस्कर की प्रबल दावेदार थी लेकिन वे आगे के राउंड क्लियर ही न कर सकी। भारत से ऑस्कर के लिए फिल्म भेजना महज औपचारिकता से भरा है। यहाँ तो यश चोपड़ा की ‘डर’ को ऑस्कर में भेज दिया गया था। गली बॉय को ऑस्कर में भेजने का क्या पैमाना हो सकता है। क्या पैमाना ये है कि स्लम में रहने वाला एक मुस्लिम स्ट्रगलर संघर्ष कर एक बड़ा रैपर बनता है। इसके कथानक में ऐसी क्या बात है। क्या ज़ोया अख्तर की ये फिल्म विषय और निर्देशन के स्तर पर ‘ताशकंद फाइल्स’ और ‘मिशन मंगल’ से बेहतर है। क्या ‘गली बॉय’ को इन फिल्मों से अधिक प्रशंसा मिली है।
सन 2002 में प्रदर्शित हुई हॉलीवुड फिल्म ‘एट माइल’ की हूबहू नकल ‘गली बॉय’ जब ऑस्कर में दिखाई जाएगी तो क्या भारत की छवि खराब नहीं होगी। ऐसी ही नकल आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’ भी थी। लगान का प्लाट सन 1981 में प्रदर्शित ‘एस्केप टू विक्ट्री’ से कॉपी किया गया था। यही कारण है कि बहुत प्रयास करने के बाद भी लगान अवार्ड नहीं जीत सकी। यही ‘गली बॉय’ के साथ भी होगा। एक तो भारत की तथाकथित गरीबी और वर्ग संघर्ष दिखाकर देश की छवि खराब की जाएगी और दूसरा नकलची होने का ठप्पा भी हम दूसरी बार लगवा लेंगे।
सन 1983 में ‘भानु अथैया’ को बेस्ट कास्ट्यूम डिजाइन का अवार्ड ‘गाँधी’ के लिए मिला, जो विदेशी निर्देशक ‘रिचर्ड एटनबरो’ ने बनाई थी। 1992 में ‘सत्यजीत रे’ को लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड दिया गया। 2009 में भारत की गरीबी दिखाती ‘स्लमडॉग मिलिनियर’ के लिए संगीतकार ए आर रहमान गुलज़ार और रेसुल पोकट्टी को अवार्ड दिया गया। 1988 में ‘सलाम बॉम्बे’ भी मुंबई स्लम की गंदगी दिखाकर ऑस्कर में कुछ समय के लिए दौड़ी लेकिन जीत नहीं सकी।
भारत की ओर से किसी भी समारोह में आधिकारिक एंट्री भेजना बहुत जिम्मेदारी का काम होना चाहिए। जो फिल्म यहाँ से भेजी जाएगी, वह अंततः विश्व के सामने हमारी छवि का प्रस्तुतिकरण करेगी। गरीबी दिखाने वाली फिल्मों को भारत से सरकारी प्रविष्टि मिलना ये दिखाता है कि फिल्म भेजने वाली ज्यूरी कितनी नासमझ है। एक अंग्रेजी फिल्म की नकल को ऑस्कर में भेजना ये दिखाता है कि ज्यूरी का विश्व सिनेमा का ज्ञान दो कौड़ी का भी नहीं है। ज़ोया अख्तर की अति साधारण फिल्म को चुन लिया जाना दिखाता है कि भारत में अब भी ‘फिल्म मेकिंग’ को कोई सम्मान नहीं है। यहाँ चयन के मापदंड ही दुनिया से निराले हैं।
बॉलिवुडी लेफ्टिस्टों के लिए भारत को दूनिया में पिछडा दिखाने का एक मौका । ऐसे मौके का वे फायदा नहीं उठाते , तो बड़ा अचरज होता । उन लोगों से और क्या उम्मीद की जा सकती है?