कुछ लोगों को आपत्ति है कि मैं पत्रकारों को ‘पेटिकोट पत्रकार’ क्यों कहता हूं? ऐसे लोग इतिहास से अनजान और ‘पेटिकोट’ शब्द से असहज हैं! किसी भी चीज के प्रति असहजता अज्ञान और कुंठा से उपजती है!
मैं कई बार ‘पेटिकोट पत्रकार’ की अवधारणा के बारे में बता चुका हूं, एक बार और सही! मुगल बादशाह अकबर के शुरुआती शासन को ‘पेटिकोट शासन’ कहा जाता था, क्योंकि शुरुआती वर्षों में पर्दे के पीछे से शासन उसकी धाय मां महम अंगा चलाती थी!
2004-14 के बीच भी भारत में ‘पेटिकोट तंत्र’ विकसित हुआ! संजय बारू की पुस्तक ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के मुताबिक तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिर्फ मुखौटा थे, और असली सत्ता सोनिया गांधी के हाथ में थी। उन दस सालों में 12 लाख करोड़ का प्रत्यक्ष घोटाला और 52 लाख करोड़ का बैंकिंग घोटाला हुआ, लेकिन किसी भी पत्रकार ने इसके लिए सोनिया और उनके बेटे राहुल गांधी से एक भी सवाल नहीं पूछा!
वो सारे पत्रकार और मीडिया हाउस भी लूट के उस ‘पेटिकोट तंत्र’ का हिस्सा थे। कोयला, स्पेक्ट्रम, कॉमववेल्थ, बैंकिंग-अर्थात सभी घोटाले में ये पत्रकार और मीडिया हाउस ‘पेटिकोट तंत्र’ का हिस्सा बनकर दोनों हाथों से देश को लूट रहे थे! ऐसे पत्रकारों और मीडिया हाउस को ही मैं ‘पेटिकोट पत्रकार’ और ‘पेटिकोट मीडिया’ कहता हूं। कभी-कभी इनके लिए ‘माइनो-मीडिया’ का संबोधन भी करता हूं!
इसलिए जिनको ‘पेटिकोट पत्रकार’ शब्द से आपत्ति है, वो ‘माइनो-मीडिया’ समझ जाए, लेकिन मैं यह अवधारणा नहीं त्यागूंगा! समाजशास्त्र का छात्र हूं, जानता हूं कि अवधारणा एकदम से स्पष्ट होनी चाहिए! ‘पेटिकोट पत्रकारों’ के प्रति मेरी अवधारणा एकदम से स्पष्ट है! आपके मन में किंतु-परंतु है तो मैं क्या करूं? धन्यवाद!
Well and i support with you