रामकुमार मिश्र।
बहुत लोग कहते हैं कि कल्कि अवतार हो चुका है और कुछ लोग कहते हैं आगे बहुत शीघ्र होने वाला है ।
आजकल अपने को भगवान् का अवतार मानने वाले कई लोग मर चुके हैं , कई अभी जीवित भी हैं , किन्तु उन भगवानों में भगवान् तो दूर रहे , भक्तों के लक्षण भी नहीं है ।
इसीलिए आज जिस विषय को शीर्षक बनाया हूँ , उसपर लिखने से पूर्व थोड़ा भगवान् के लक्षण समझ लेते हैं —
भगवान् के लक्षण विष्णु पुराण के छठें अंश में पराशर जी ने मैत्रेय के प्रति कहा है —
“उत्पत्ति प्रलयं चैव भूतानामगतिं गतिम् ।
वेत्ति विद्यामविद्या च स वाच्यो भगवानिति ।।”
जो प्राणियों की उत्पत्ति तथा विनाश , प्राणियों की गति – अगति – दुर्गति – परमगति आदि को जानता है अर्थात् कौन जीव कहाँ पर कब कैसे पैदा होगा , जन्म लेकर कैसा कर्म करेगा , सुख पायेगा या दुःख भोगेगा , मरने के बाद किस योनि में जायेगा आदि को जानने वाला भगवान् है ।
मनुष्य शरीर की प्राप्ति गति , नरक तथा पशु-पक्षी , पेड़-पौधे के रूप में जन्म लेना दुर्गति , स्वर्ग-ब्रह्मलोकादि सुगति , परमपद की प्राप्ति परमगति अथवा अगति कहलाता है ।
जो विद्या , अविद्या , सांसारिक-विद्या —- वेदादि शास्त्रों से लेकर आजतक के सम्पूर्ण कला-कौशल अविद्या के अन्तर्गत आता है अथवा अज्ञानोपहित चैतन्य या अज्ञान-विशिष्ट चैतन्य को अविद्या कहा है अथवा भगवान् राम-कृषणादि का अवतार लेकर साधारण बालकों के समान बाल-लीला करते हुए अपने ही प्रतिबिम्ब के साथ खेलते-खेलते डर जाना ; यद्यपि भगवान् में तीनों कालों में अविद्या नहीं है , जैसे सूर्य में तीनों कालों में अंधकार नहीं है ।
फिर भी भगवान् अज्ञानी जैसा नाटक करते हैं , जैसे सीता के वियोग में विलाप करते हुए राम का पशु-पक्षियों , पेड़-लता तथा औषधियों से सीता का पता पूंछना —– इन विरहजन्य लीलाओं में भी भगवान् ने “आत्मेवैदं सर्वम् ब्रह्मैवेदं सर्वं” ऐसा विलाप के व्याज से ब्रह्म की सर्वरूपता का उपदेश किया है ।
भगवान् अजन्मा होने पर भी जन्मधारी के समान प्रतीत होते हैं ।
वेद कहता है — “अजायमानो बहुधा विजायते” भगवान् जन्म रहित होने पर भी वैष्णवी माया से जन्मधारी के समान प्रतीत होते हैं ।
यदि भगवान् वास्तव में जन्म लेते तो भगवान् में तीनों प्रकार (शुभ, अशुभ, मिश्रित) के कर्मों का भी आरोप करना पड़ेगा ।
अतः भगवान् माता-पिता के गर्भ में नहीं आते , अवतार होने से पूर्व ही वे अपनी योगमाया को आज्ञा देते हैं , योगमाया वायु के रूप में माता के गर्भ में प्रवेश करती है , तब क्रमानुसार अदिति , रेणुका , देवकी तथा सुमति के गर्भ में वायु भर आती है , तब देवर्षि तथा देवता भगवान् की गर्भ-स्तुति करते हैं ।
प्रकट होने के समय वह माया वायु के रूप में निकल जाती है और भगवान् चतुर्भुजी रूप में माता-पिता को दर्शन देते हैं ।
यदि सर्वसाधारण बच्चों की तरह भगवान् भी इसी रूप में नौ महीने माता के गर्भ में रहते , तो माता के उठने-बैठने और कार्य करने में भगवान् के सुदर्शन चक्र , कौमुदकी गदा , शंख तथा मुकुट की नोंक आदि से माता के उदर में घाव हो जाता और माता की मृत्यु हो जाती ।
इसीलिए इस रूप में भगवान् माता के उदर में प्रवेश नहीं करते , वैसे तो निराकार रूप से भगवान् अणु-अणु में व्याप्त हैं ।
वास्तव में भगवान् में देह-देही भाव नहीं है , किन्तु माया के कारण प्रतीत होते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् का जन्म नहीं , अवतरण होता है ।
जन्म लेने वाले की तो मृत्यु होती है , चूंकि भगवान् का जन्म नहीं होता , इसीलिए मृत्यु भी नहीं होती है ।
आजकल के पैदा होकर मरे हुए भगवानों में तथा वर्तमान कथित भगवानों में ये लक्षण नहीं पाये जाते , वे माता के उदर से नंगे पैदा हुए तथा राम-कृष्ण जैसा कोई चमत्कार नहीं दिखाया ।
किसी अवतार के जीवन में कहीं भगवान् को खांसी, जुकाम इत्यादि किसी भी प्रकार का रोग नहीं हुआ , किन्तु आजके भगवान् सैंकड़ों रोगों से ग्रस्त पाये जाते हैं ।
भगवान् ने भक्तों की रक्षा की , आज के भगवान् अंगरक्षकों की सुरक्षा में चलते हैं ।
जो अपनी रक्षा नहीं कर सकता , वह देश, धर्म तथा भक्तों की रक्षा कैसे करेगा ?
आधुनिक भगवानों में तो भक्तों वाले लक्षण भी नहीं है , उन भगवान् के भक्त व्यास , वाल्मीकि , पराशर , पाण्डव आदि कभी बीमार नहीं पड़े , किन्तु आजकल के तो भगवान् ही रोगी रहते हैं , अतः वे भगवान् नहीं हो सकते ।
कुछलोगों का कहना है कि कलियुग समाप्त होने वाला है , शीघ्र ही सत्ययुग आने वाला है ।
उनका कहना है पाप कर्म करने से जैसे मनुष्य की आयु कम होती है , वैसे ही कलियुग में पाप अधिक होने से युग की भी आयु शीघ्र समाप्त हो जायेगी ।
कई मनचले लोग तो कल्प का प्रमाण केवल ५००० वर्ष ही मानते हैं । इत्यादि अनेकों भ्रामक तथा पुराण विरोधी बातों का प्रचार किया जा रहा है ।
किन्तु व्यासजी द्वारा रचित पुराणों को पढ़ने से पता चलता है कि सत्ययुग १७,२८,००० वर्ष , त्रेतायुग १२,९६,००० , द्वापर ८,६४,००० तथा कलियुग ४,३२,००० वर्ष का होता है ।
पाप होने पर भी कलियुग की आयु कम नहीं हो सकती , क्योंकि कलियुग पहली बार नहीं आया है , इसी मन्वन्तर में २७ कलियुग बीत चुके हैं ।
यदि प्रत्येक बार कलियुग इतना कम होता जायेगा तो मन्वन्तर का भी परिणाम कम हो जायेगा ।
एक मन्वन्तर जीवी मनु , सप्तर्षि तथा इन्द्र की आयु भी कम हो जाएगी ।
इसीलिए पाप कर्म करने से मनुष्य की आयु तो क्षीण होती है , किन्तु युगों की आयु कम नहीं हो सकती । यदि ऐसा होगा तो सृष्टि की व्यवस्था ही अस्त-व्यस्त हो जायेगी ।
पहले तो इसपर विचार करते हैं कि कलियुग कब आरम्भ हुआ और अन्त कब होगा ?
जिस दिन भगवान् कृष्ण ने इस धराधाम का परित्याग करके परमधाम को गमन किया , तभी से कलियुग का प्रवेश हुआ ।
अर्थात् महाभारत युद्ध की समाप्ति के ३६ या ३७ वर्ष बाद ईसा के ३१०२ वर्ष पूर्व , यह प्रमाण “जगद्गुरु रत्न-मालिका” के “सुषमा” टीका में उल्लिखित है ।
इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत-महापुराण के द्वादश स्कन्ध के दूसरे अध्याय के २३ से २८ श्लोक में भी देखा जा सकता है , यथा —
“यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः ।
कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी ॥
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती ।
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम् ॥
येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवाः ।
ते ते उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः ॥
आरभ्य भवतो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम् ।
एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम् ॥
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि ॥
तेनैव ऋषयो युक्ताः तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।
ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः ॥
विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः ।
तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः ॥
यावत् स पादपद्माभ्यां स्पृशनास्ते रमापतिः ।
तावत् कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत् ।।
यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि ।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिः द्वादशाब्द शतात्मकः ॥
यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः ।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति ॥”
श्लोक व्याख्या —
जब धर्मपति भगवान् हरि कल्कि के रूप में अवतार लेंगे , तब सत्ययुग आयेगा और प्रजा सात्त्विक होंगी ।
जब चन्द्रमा, सूर्य तथा बृहस्पति का पुष्य नक्षत्र के साथ योग होगा , तब सत्ययुग आरम्भ होगा ।
यद्यपि प्रति बारह वर्ष बाद कर्क राशि पर बृहस्पति तथा सूर्य-चन्द्रमा का पुष्य नक्षत्र के साथ योग रहता है , किन्तु यहां “समेष्यन्ति” इस वचन से तीनों का एक साथ प्रवेश होना इच्छित है ।
शुकदेव जी परीक्षित जी से कहते हैं —- हे राजन् ! आपके जन्म से लेकर नन्द राजा के अभिषेक पर्यन्त एक हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष होगा , इस पर श्रीधर स्वामी लिखते हैं कि —
वास्तव में परीक्षित से लेकर नन्द तक का समय एक हजार पांच सौ वर्षों से कुछ न्यून होता है , क्योंकि परीक्षित के समकालीन मगध वंश के राजा मार्जार से लेकर रिपुंजय पर्यन्त बीस राजा एक हजार वर्ष तक पृथ्वी का भोग करेंगे ।
वृहद्रथ राजा के वंश के भावी राजा एक हजार वर्ष तक राज्य करेंगे , तदनन्तर प्रद्योतन के वंशज एक सौ साठ वर्ष तक तथा शिशुनाग के वंशज तीन सौ साठ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे ।
इसी द्वादश स्कन्ध के ही पहले अध्याय से भी सिद्ध होता है कि परीक्षित से लेकर नन्दिवर्धन तक का राज्यकाल दो हजार छः सौ तेरह वर्ष का होता है ।
आकाश में सप्तर्षि मण्डल में स्थित पूर्व दिशा में उदित जो दो तारे दिखाई देते हैं , इन दोनों नक्षत्रों के बीच रात्रि में जो तीसरा तारा दिखाई देता है , वह अरुन्धति नामक है । यह सप्तर्षि मनुष्यों के एक सौ वर्षों तक एक नक्षत्र पर रहते हैं ।
शुकदेव जी परीक्षित से कहते हैं — तुम्हारे जन्म से लेकर आजतक वह मघा नक्षत्र पर है ।
इसपर श्रीधर स्वामीजी लिखते हैं — रात्रि में शकटाकार सात तारों का समूह (सप्तर्षि मण्डल) में दिखाई देता है , इनमें जो सबसे ऊपर अग्रभाग में है वह मरीचि है , इसके बाद कुछ झुके हुए कन्धे के समान दो तारें हैं , वे अरुन्धति सहित वशिष्ठ हैं।
उसके कुछ ऊपर मूलस्थानीय अंगिरा हैं । इसके बाद चतुष्कोणाकृति नक्षत्र-मण्डल है ।
इसमें ईशान कोण में अत्रि , दक्षिण में पुलस्त्य , उसके पश्चिम में पुलह तथा उत्तर में क्रतु हैं ।
इस प्रकार सप्तर्षियों की स्थिति होने पर उनके बीच में उदय काल के पहले जो दो तारें पुलह और क्रतु नाम वाले दिखाई देते हैं , इन दोनों के पूर्व में दक्षिण-उत्तर रेखा समान देश में स्थित है ।
अश्विनी आदि नक्षत्रों में जो अन्यतम है , उससे युक्त यह नक्षत्र मनुष्य वर्ष के अनुसार एक सौ वर्ष तक रहते हैं ।
यह सप्तर्षि नक्षत्र तुम्हारे जन्म से लेकर आजतक मघा में है , तात्पर्य यह कि कलियुग का प्रवेश जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर थे , तभी हुआ था ।
यह सप्तर्षि जब मघा से पूर्वाषाढ़ा में जायेंगे , तब महाराज के राज्यकाल से कलि वृद्धि को प्राप्त करेगा होगा ।
—– उपर्युक्त वचनों से सिद्ध होता है कि जब से भगवान् श्रीकृष्ण ने धराधाम का त्याग किया , तबसे ही कलियुग का प्रवेश हुआ और जब भगवान् कल्कि का अवतार होगा , तब कलियुग की समाप्ति होगी ।
व्यासजी द्वारा रचित पुराणों में नौंवे भविष्य पुराण है , इसके प्रतिसर्ग पर्व में चारों युगों के राजाओं का वर्णन है ।
किसने कितने वर्ष तक राज्य किया तथा कौन राज्य कर रहा है और आगे कौन करेगा , इसका विस्तृत वर्णन इसमें किया गया है ।
यद्यपि प्रत्येक पुराण में कलियुग के राजाओं का वर्णन आता है , परन्तु इस पुराण में विस्तार से चार लाख बत्तीस हजार वर्ष में होने वाले राजाओं का पूर्वजन्म की कथाओं सहित वर्णन हुआ है ।
इस पुराण में में कही हुई घटनाएं आजतक अक्षरसः सत्य उतरी है , जैसे —
महाराणा सांगा , महाराणा प्रताप , पृथ्वीराज चौहान , शिवाजी , विक्टोरिया , पार्ल्यामेंट , मुहम्मद साहब , ईसा मसीह आदि का वर्णन भी इसमें आया है ।
इंदिरा गांधी का नाम तो नहीं है , किन्तु लक्षणों से इसका भी परिचय मिलता है —- प्राचीन काल में एक किन्नर पुत्री ने शिवजी की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया , उसने वर मांगा कि मैं अपने पुत्र-पौत्रों सहित सुख-समृद्धि से युक्त राज्यसुख भोगूँ ।
तब शंकर जी ने कहा —
“इति श्रुत्वा शिव: प्राह गुरुण्डान्ते च भूतले ।
मध्यदेशे च ते राज्यं भविष्यति सुखप्रदमम् ।।”
उनका वचन सुनकर शंकर जी ने कहा — देवि ! अंग्रेजों के शासन के अन्त में मध्यदेश (भारत) में सुख देने वाला तेरा राज्य होगा ।
इतना ही नहीं ! त्रिकालदर्शी भगवान् व्यास जी की दृष्टि आधुनिक भाषाओं से भी ओझल नहीं हुई , वे कहते हैं कि कलिकाल का मानव रसना के वशीभूत हो जायेगा , मीठा तथा खटाई अधिक खाने से संस्कृत के शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर पावेगा । अतः अठ्ठारह यवन भाषाओं की उत्पत्ति होगी ।
इनमें अंग्रेजी , अरबी , फारसी , उर्दू , ब्रज आदि का नामोल्लेख किया है ।
प्रथम हिन्दी का उदाहरण दिया है —
“पानीयं च स्मृतं पानी वुभुक्षा भूख उच्यते।
पानीयं पापड़ी भाषा भोजनं कक्वनं स्मृतम् ।।
रविवारे च सन्डे च फाल्गुने चैवफरवरी। “
इत्यादि का प्रयोग भविष्य पुराण में देखा जा सकता है ।
इसी में आगे कहा है कि भारत के स्वतंत्र होने के बाद विक्रमी सम्वत् २००५ से २२०५ तक दो सौ वर्षों में संसार को सुख नहीं मिलेगा ।
२०० वर्षों तक गणतंत्र पद्धति रहेगी , उसके बाद फिर से राज्य तंत्र आरम्भ होगा । उन सभी राजाओं के नामों का भी उल्लेख आता है ।
ये राजा लोग १२०० वर्षों तक शासन करेंगे ।
इनमें दो राजवंश होंगे , जिनमें एक के राजवंश सात सौ वर्ष और दूसरे के पांच सौ वर्ष राज्य करेंगे ।
इन १२०० वर्षों में महाराज परीक्षित के राज्यकाल में जैसा समय तथा वर्णाश्रम व्यवस्था थी , वैसा ही सुकाल होगा । इसके पश्चात् इस समय से भी कई गुणा भयंकर कलियुग आयेगा ।
कलियुग के चतुर्थ चरण में एक साल की मां तथा तीन साल की नानी होंगी , मनुष्य ह्रस्व-काय हो जायेंगे , आयु की चरम सीमा १५ या २० वर्ष होगी ।
मनुष्य इतना विचारहीन हो जायेगा कि जैसे पशुओं को नाद में चारा भर दिया जाता है और सभी पशु उसी में खाते हैं , उसी प्रकार सभी मनुष्य एक ही पात्र में भोजन करेंगे , उच्छिष्ट का कोई विचार नहीं करेंगे ।
किसी के भी पास देवताओं की मूर्ति या चित्र नहीं मिलेगा तथा रामायण , महाभारत , भागवत आदि ग्रन्थों का लोप हो जायेगा ।
एक मात्र सम्भल वासी विष्णुयश: के यहां ही भगवान् शालग्राम की मूर्ति तथा चित्र गुप्त रूप से रहेगा , तब कहीं भगवान् कल्कि का अवतार होगा ।
पौराणिक – प्रमाणों से सिद्ध है कि कलियुग की समाप्ति में अभी ४,२७,००० वर्ष शेष है , किन्तु लोग मिथ्या प्रचार करके जनता को धोखा देते हैं ।
कल्कि भगवान् अवतार लेकर क्या-क्या लीलाएं करेंगे , इसे भी लिखता हूँ —
माघ शुक्ल तृतीया को सायंकाल के समय जब कलियुग ८०० वर्ष शेष रहेगा , तब देवताओं की प्रार्थना से भगवान् विष्णु सम्भल ग्राम में , जो कि मुरादाबाद जिले में मुरादाबाद से २० मील दूरी पर स्थित है — में ब्रह्मयश: के पुत्र विष्णुयश: की सुमति नाम की पत्नी से चौथे पुत्र के रूप में प्रकट होंगे ।
इनसे पूर्व रवि , कवि और हरि — यह तीन भाई और होंगे ।
जन्म लेते ही इनके दर्शन के लिए आठ चिरंजीवी ऋषिगण पधारेंगे ।
परशुराम तथा कृपाचार्य जी अस्त्र-शस्त्र तथा वेदों का अध्ययन कराएंगे ।
शंकर जी की आराधना से उनके प्रसन्न होने पर नौ हाथ लम्बी तलवार , दत्तक नामक घोड़ा एवं एक तोता प्राप्त करेंगे ।
इनकी दो पत्नियां होंगी , पहली पद्मा जो सिंहल देश के महाराज पद्माक्ष पुत्री लक्ष्मी का अवतार होंगी और दूसरी पत्नी भूमि का अवतार जो पूर्व जन्म में सत्राजित् की पुत्री थी ।
सत्राजित् दूसरे जन्म में हिमालय पर्वत पर विद्यमान भल्लाट नगर के राजा शशिध्वज होंगे तथा उनकी पत्नी सुशान्ता के गर्भ से सत्यभामा रमा नाम की कन्या के रूप में होंगी ।
जब कलियुग को जीतकर अनेकों म्लेच्छों तथा यवनों का संहार राजा पर आक्रमण करेंगे , तब युद्ध में भगवान् के हाथ से राजा मूर्च्छित हो जाएंगे , सुशान्ता भगवान् से प्रार्थना करेगी —-
“मम पतिस्त्वयं सर्वदुर्जयो , यदि तवाप्रियं कर्मणाचरेत् ।
जहि तदात्मान:शत्रुमुद्यतं , कुरु कृपां न चेदीदृगीश्वर ।।”
हे ईश्वर ! सब के लिए दुर्जेय मेरे पति यदि कर्मों के द्वारा आपका अप्रिय करे , तो इस प्रकार शत्रुता का व्यवहार करने के लिए उद्यत मेरे पति को आप क्षमा न करें , बल्कि वध करें , अन्यथा आपके अनुकूल व्यवहार करने पर आप कृपा करें ।
तब भगवान् कृपा दृष्टि से निहार कर उन्हें स्वस्थ कर देंगे और फिर वह राजा शशिध्वज अपनी कन्या को भगवान् कल्कि के साथ वैवाहिक विधि से दान कर देंगे ।
तब भगवान् सप्तर्षियों , नारदादि देवर्षियों के साथ कलाप ग्राम में पहुचेंगे , वहां पर सूर्यवंशी महाराज मरुत् तथा चंद्रवंशी महाराज देवापि को तप करते हुए देखकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करेंगे ।
भगवान् द्वारा परिचय पूछने पर महाराज मरुत् अपने वंश का परिचय देते हुए उन्हें रामायण सुनायेंगे ।
महाराज देवापि भी अपने वंश का परिचय देंगे ।
उसी समय सत्ययुग तथा धर्म दण्डी संन्यासी के रूप में प्रकट होंगे और अपना परिचय देंगे ।
दोनों राजाओं को अर्थात् मरुत् को अयोध्या और देवापि को हस्तिनापुर में अभिषिक्त करके भगवान् चले जायेंगे ।
भगवान् का यह अवतार ८०० वर्ष कलियुग तथा २०० वर्ष सत्ययुग तक इस भूतल पर रहकर परम् धाम सिधारेगा ।
इनके दो पुत्र जय और विजय होंगे , जो कि दिग्विजय में साथ ही रहेंगे । ——- यह चरित्र कल्कि पुराण से उद्धृत किया गया है ।