
‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
झेन संत बोकोजू ने कहा है, मैं यही एक ध्यान जानता हूं। जब मैं भोजन करता हूं तो भोजन करता हूं। जब मैं चलता हूं तो चलता हूं। और जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं। जो भी होता है, होता है; उसमें मैं कभी हस्तक्षेप नहीं करता।
इतना ही करने को है कि हस्तक्षेप न करो। और जो भी घटित होता हो उसे घटित होने दो। तुम सिर्फ वहां मौजूद रहो। यही चीज तुम्हें अवधानपूर्ण बनाएगी। और जब तुम्हें अवधान प्राप्त हो जाए तो यह विधि तुम्हारे हाथ में है, ‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
तुम अनुभव करने वाले को अनुभव करोगे। तुम स्वयं पर लौट आओगे। सब जगह से तुम प्रतिबिंबित होगे, सब जगह से तुम प्रतिध्वनित होगे। सारा अस्तित्व दर्पण बन जाएगा; तुम सब जगह प्रतिबिंबित होगे। पूरा अस्तित्व तुम्हें प्रतिबिंबित करेगा।
और केवल तभी तुम स्वयं को जान सकते हो, उसके पहले नहीं। जब तक समस्त अस्तित्व ही तुम्हारे लिए दर्पण न बन जाए, जब तक अस्तित्व का कण-कण तुम्हें प्रकट न करे, जब तक प्रत्येक संबंध तुम्हें विस्तृत न करे…।
तुम इतने असीम हो कि छोटे दर्पणों से नहीं चलेगा। तुम अंतस में इतने विराट हो कि जब तक सारा अस्तित्व दर्पण न बने, तुम्हें झलक नहीं मिल पाएगी। जब समस्त अस्तित्व दर्पण बन जाता है, केवल तभी तुम प्रतिबिंबित हो सकते हो। तुम्हारे भीतर भगवत्ता विराजमान है।
और अस्तित्व को दर्पण बनाने की विधि है: अवधान पैदा करो, ज्यादा सावचेत बनो, और जहां कहीं तुम्हारा अवधान उतरे-जहां भी, जिस किसी विषय पर भी तुम्हारा ध्यान जाए-अचानक स्वयं को अनुभव करो।
यह संभव है। लेकिन अभी तो यह असंभव है, क्योंकि तुमने बुनियादी शर्त नहीं पूरी की है। तुम एक फूल को देख सकते हो; लेकिन वह अवधान नहीं है। अभी तो तुम फूल के चारों ओर बाहर-बाहर घूम रहे हो। तुमने भागते-भागते फूल को देखा है; तुम उसके साथ क्षण भर के लिए नहीं रहे हो। रुको, अवधान पैदा करो, सावचेत बनो; और समस्त जीवन ध्यानपूर्ण हो जाता है।
‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
बस, स्वयं को स्मरण करो।
इस विधि के सहयोगी होने का एक गहरा कारण है। तुम एक गेंद को दीवार पर मारो; गेंद वापस लौट आएगी। जब तुम किसी फूल या किसी चेहरे को देखते हो तो तुम्हारी कुछ ऊर्जा उस दिशा में गति कर रही है। तुम्हारा देखना ही ऊर्जा है। तुम्हें पता नहीं है कि जब तुम देखते हो तो तुम ऊर्जा दे रहे हो, थोड़ी ऊर्जा फेंक रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा का, तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का एक अंश फेंका जा रहा है। यही कारण है कि दिन भर रास्ते पर देखते-देखते तुम थक जाते हो। चलते हुए लोग, विज्ञापन, भीड़, दुकानें-इन्हें देखते-देखते तुम थकान अनुभव करते हो और आराम करने के लिए आंखें बंद कर लेना चाहते हो। क्या हुआ है? तुम इतने थके-मांदे क्यों हो रहे हो? तुम ऊर्जा फेंकते रहे हो।
बुद्ध और महावीर दोनों इस पर जोर देते थे कि उनके शिष्य चलते हुए ज्यादा दूर तक न देखें, जमीन पर दृष्टि रख कर चलें। बुद्ध कहते हैं कि तुम सिर्फ चार फीट आगे तक देख सकते हो। इधर-उधर कहीं मत देखो, सिर्फ अपनी राह को देखो जिस पर चल रहे हो। चार फीट आगे देखना काफी है; क्योंकि जब तुम चार फीट चल चुकोगे, तुम्हारी दृष्टि चार फीट आगे सरक जाएगी। उससे ज्यादा दूर मत देखो, क्योंकि तुम्हें अकारण अपनी ऊर्जा का अपव्यय नहीं करना है।
जब तुम देखते हो तो तुम थोड़ी ऊर्जा बाहर फेंकते हो। रुको, मौन प्रतीक्षा करो, उस ऊर्जा को वापस आने दो। और तुम चकित हो जाओगे; अगर तुम ऊर्जा को वापस आने देते हो तो तुम कभी थकोगे नहीं। इसे प्रयोग करो। कल सुबह इस विधि का प्रयोग करो। शांत हो जाओ, किसी चीज को देखो। शांत रहो, उसके बारे में विचार मत करो, और एक क्षण धैर्य से प्रतीक्षा करो। ऊर्जा वापस आएगी; असल में, तुम और भी प्राणवान हो जाओगे।
लोग निरंतर मुझसे पूछते हैं; मैं सतत पढ़ता रहता हूं, इसलिए वे पूछते हैं: ‘आपकी आंखें अभी भी ठीक कैसे हैं? आप जितना पढ़ते हैं, आपको कब का चश्मा लग जाना चाहिए था।’ तुम पढ़ सकते हो, लेकिन अगर तुम निर्विचार मौन होकर पढ़ो तो ऊर्जा वापस आ जाती है, वह व्यर्थ नहीं होती है। और तुम कभी थकान नहीं अनुभव करोगे। मैं जिंदगी भर रोज बारह घंटे पढ़ता रहा हूं, कभी-कभी अठारह घंटे भी; लेकिन मैंने थकावट कभी महसूस नहीं की। मैंने अपनी आंखों में कभी कोई अड़चन, कभी कोई थकान नहीं अनुभव की।
निर्विचार अवस्था में ऊर्जा लौट आती है; कोई बाधा नहीं पड़ती है। और अगर तुम वहां मौजूद हो तो तुम उसे पुनः आत्मसात कर लेते हो। और वह पुनः आत्मसात करना तुम्हें पुनरुज्जीवित कर देता है। सच तो यह है कि तुम्हारी आंखें थकने के बजाय ज्यादा शिथिल, ज्यादा प्राणवान, ज्यादा ऊर्जावान हो जाती हैं।
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