भारत ने अगस्त 15, 1947 को अंग्रेज़ी राज से स्वतंत्रता पायी और जनवरी 26, 1950 से स्वतंत्र भारत का संविधान लागू हुआ, ये तो सभी जानते हैं। हम में से कितने ये जानते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम का एक पावन मंत्र था जो राष्ट्र की आत्मा था, लाखों क्रांतिकारी जिसे हृदय में धारण कर भारत माँ पर बलिदान हुए थे? वो मंत्र था, ‘वन्दे मातरम्’ जिसे सुनते ही आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मस्तक आदर में झुक जाता है और राष्ट्र प्रेम की धारा नेत्रों से बह निकलती है, वो वन्दे मातरम् स्वतंत्र भारत का राष्ट्र गान क्यों नहीं बनाया गया ?
क्यों 1905 में बनी मुस्लिम लीग के तुष्टिकरण के चलते, 1885 में अंग्रेज़ों द्वारा गठित इंडियन नैशनल कांग्रेस ने वन्दे मातरम् के स्थान पर ‘सारे जहां से अच्छा’ अपनाया?
1882, में बंकिम चंद्र चट्टोपाद्ध्याय के उपन्यास आनंद मठ में लिखा गान वन्दे मातरम् राष्ट्र की आत्मा बन गया था और हर बैठक में गया जाने लगा था, 14 अगस्त, 1947 की आधी रात को स्वतंत्रता मिलने पर भी वन्दे मातरम् गाया गया था, लेकिन फिर भी उसे राष्ट्र गान बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।
बंकिम ने वंदे मातरम् गीत में भारत माँ को देवी दुर्गा का स्वरूप बताते हुए देशवासियों से आग्रह किया कि वे अपनी मातृभूमि को अंग्रेज़ों के अत्याचारों से मुक्त करवाएँ। वंदे मातरम् को बुत परस्ती कह कर मुसलमानों ने विरोध प्रकट किया। मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए 1922 में कांग्रेस ने वंदे मातरम् के विकल्प में मुहम्मद इक़बाल का ‘सारे जहां से अच्छा.’ अपना लिया।
1905 में इकबाल का लिखा “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा”, 1910 में कट्टर इस्लामिक तराना ए मिली, “चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा ..ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा” बन चुका था।
29 दिसंबर 1930 को इलाहाबाद में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के 25 वें सत्र में इक़बाल का ये वक्तव्य , “यदि स्वतंत्र भारत की नीतियां इस्लामी सिद्धांतों के विरुद्ध जाएँगी तो मुसलमान राष्ट्रीय पहचान की वेदी पर अपनी इस्लामी पहचान का बलिदान नहीं करेगा।” इक़बाल ने अंत में पंजाब, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत, सिंध व बलूचिस्तान को एक ही राज्य में मिलाने की माँग की थी। [1]
1857 की क्रांति में ब्रिटिश राज का साथ देने वाले मुसलमानों को हिंदू ज़मीदारों की भूमि दान में दे दी गयी थी, साथ ही दिया गया था, इस्लाम के सम्बंध में हस्तक्षेप ना करने का वचन, जिसने तुष्टिकरण की राजनीति के नींव रखी।
1899 में क्रांति की ज्वाला पुनः प्रज्ज्वलित हुई स्वतंत्रता संग्राम के जनक, लोकमान्य तिलक ने “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा”
का उद्घोष किया। लाल बाल पाल की तिकड़ी, श्री अरबिंदो और बंकिम चंद्र चटर्जी ने स्वतंत्रता के उत्कृष्ट दृष्टिकोण को राष्ट्र के मन मस्तिष्क में प्रतिबिंबित किया।
1905 में दशहरे के दिन वीर सावरकर ने विदेशी वस्तुओं की होली जलाने का सर्व प्रथम आंदोलन छेड़ा। स्वतंत्रता सेनाननियों और राष्ट्र प्रेम का ये सांस्कृतिक उत्थान ब्रिटिश राज के लिए चुनौती बन गया।
उठती क्रांति का सर कुचलने व तिलक के स्वराज के उद्घोष को दबाने के लिए 16 अक्टूबर 1905 को लॉर्ड कर्ज़न ने इस्लामिक समराज्य वादियों के साथ मिलकर 16 अक्तूबर 1905 को बेंगॉल के पूर्वी मुस्लिम क्षेत्र और पश्चिमी हिंदू क्षेत्रों का विभाजन कर दिया।
पूर्वी बंगाल को दार-उल-इस्लाम में परिवर्तित करने के महत्वाकांक्षी मुसलमानों ने अंग्रेजी अधिकारियों व मजिस्ट्रेटों के साथ मिल कर हिंदुओं पर कहर बरसाया, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया, मंदिरों को नष्ट किया गया, संपत्तियाँ लूटी।
क्रांतिकारियों का सामना अब मुसलमान व अंग्रेज़ों, दोनों से था, उन्होंने बंगाल विभाजन के दिन को रक्षाबंधन के रूप में मनाने का संकल्प लिया या। 50,000 से अधिक हिंदुओं ने गंगा जी में डुबकी लगाई और वंदे मातरम् के उद्घोष के साथ एक दूसरे को राखी बंध कर बंगाल को पुन: अखंड करने की प्रतिज्ञा ली।रवींद्र नाथ टैगोर ने स्वयं इस व्यापक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया, “बांग्लार माटी बांग्लार जल, बांग्लार बायू, बांग्लार फल, पुण्य हौक, हे भगबन.”.. अर्थात, बंगाल की मिट्टी, पानी और हवा को पुन: पवित्र करने की सौगंध ली।
नवगठित प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जोसेफ फुलर ने हिंदुओं पर अत्याचारों का प्रलय ढा दिया, ब्रिटिश सैनिकों ने हिन्दुओं की महिलाओं के साथ दुराचार किए जिससे देश भर में हिंदू स्वाभिमान की ज्वाला भड़क उठी।
वंदे मातरम् युद्धघोष बन गया, स्वतंत्रता संग्राम का प्रयाण गीत बन कर बंगाल की सीमाओं से निकलकर समस्त भारत में गूंजने लगा।
जो चमत्कार एक हजार भाषण नहीं कर सकते थे हजारों क्रांतिकारियों के रक्त ने कर दिया, वंदे मातरम् एक पवित्र शक्तिशाली मंत्र बन कर महिला, पुरुष, युवा, बच्चे-बड़े-बूढ़े, शिक्षित-अशिक्षित के होंठों पर सजने लगा।
विद्यालयों में वन्दे मातरम् दैनिक प्रार्थना के रूप में गया जाने लगा। आजाद हिन्द फौज ने भी वन्दे मातरम के गान को अपनाया। सिंगापुर रेडियो स्टेशन से भी वन्दे मातरम का प्रसारण होता रहा।
अंग्रेजी सरकार ने तब वन्दे मातरम् गाने पर प्रतिबंधित लगा दिए। बड़े बड़े जुलूस प्रतिबंध की अवज्ञा कर वन्दे मातरम् गाते हुए निकलने लगे, लाठियों से लहूलुहान हो कर भी लाखों हिंदू वन्दे मातरम् का घोष करते रहे। इस शक्तिशाली मंत्र ने वो चमत्कार दिखाया कि जॉर्ज पंचम को इंग्लैंड से दिल्ली आ कर 12 दिसम्बर 1911, को बंगाल का विभाजन रद्द करने पे विवश होना पड़ा। यह भारतीय राष्ट्रवादी शक्ति की पहली विजय थी।
स्मरण हो कि गांधी जी ने 1927 में कोमिला में कहा था, “वन्दे मातरम् अखंड भारत की छवि को दर्शाता है”, फिर क्यों जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेज़ी राज की जड़ें उखाड़ने वाले दो पावन शब्दों, वन्दे मातरम् को स्वतंत्र भारत के राष्ट्र गान का सम्मान क्यों नहीं दिया?
वन्दे मातरम् पर पहला प्रहार 1908 में हुआ था। 1906 में मुस्लिम लीग ने शिमला में शरीयत और अलग संवैधानिक प्रतिनिधित्व की माँग की, तब से लीग को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखा जाने लगा। लीग के 1908 के अधिवेशन में सैयद अली इमाम ने वन्दे मातरम् को सांप्रदायिक आव्हान बताते हुए कहा, ” क्या हम अकबर और औरंगज़ेब को असफल मान लें?”
कांग्रेस अधिवेशनों के उद्घाटन सत्र विष्णु दिगंबर पलुस्कर के वंदे मातरम के गायन से आरामभ हुआ करते थे। 1932 में काकीनाडा अधिवेशन में मौलाना मोहम्मद अली ने उन्हें गाने से यह कह के रोका, कि इस्लाम में गायन हराम है और वह पलुस्कर को ऐसा नहीं करने देंगे। पलुस्कर टस से मस नहीं हुए और उत्तर दिया,”कांग्रेस पर किसी एक पंथ का एकाधिकार नहीं है, न आपको मुझे वन्दे मातरम् गाने से रोकने का अधिकार है और न ही यह कोई मस्जिद है,…… यदि गाना आपके मज़हब के विरूद्ध है, तो आपने इसे अपने अध्यक्षीय जुलूस में क्यों गाने दिया?” मौलाना मंच छोड़ कर चल दिये……
कांग्रेस के सभी अधिवेशनों में वन्दे मातरम गाने पर लीग द्वारा विद्रोह प्रदर्शन होने लगे। वन्दे मातरम् को बुत परस्ती और इस्लाम विरोधी, आपत्तिजनक गीत बताया जाने लगा। कांग्रेस ने 1937 के प्रांतीय विधानसभा चुनावों में सात प्रांतों में सत्ता में लौटने पर विधानसभा की कार्यवाही वंदे मातरम् से हुई, मुस्लिम लीग ने विरोध जता कर सदन से वॉक आउट कर दिया।
लीग के वंदे मातरम् पर निरंतर विरोध के सामने कांग्रेस ने घुटने टेक दिए, उनकी आपत्ति को वैध मानकर 1937 में वन्दे मातरम् के तीन मुख्य छंद हटा दिए जिनमें भारत माता को देवी दुर्गा कह कर पूजने की बात कही गयी थी, पहले दो छंदों को यथावत रखते हुए मुसलमानों को उन दो छदों या अन्य कोई भी गीत को गाने की अनुमति भी दे दी।
वन्दे मातरम् को व्यापक रूप से गाया जाने वाला राष्ट्रीय गान न बना कर सदा के लिए सेक्युलर राजनैतिक सरकारों का बहुसांस्कृतिक अखाड़ा बना दिया गया। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात भी इस नीति में कोई बदलाव नहीं किया गया जब की भारत भूमि का विभाजन धर्म के नाम पर हुआ था जिसके अंतर्गत मुसलमानों को पाकिस्तान दिया गया था।
लीग के प्रतिनिधियों के लिए कांग्रेस सभाओं में आने की यात्रा, आवास व भोजन आदि के शुल्क माफ़ कर दिए गए। अंग्रेज़ों से जूझते राष्ट्र के धन पर, ज़री व रेशम के चोग़े पहन कर आने वाले मुसलमान मौज करते रहे, लेकिन उनके मुख से वन्दे मातरम् नहीं निकला।
वन्दे मातरम् ना गाने की माँग पूरी होते ही मुसलमानों ने उपन्यास आनंद मठ की पृष्ठभूमि पर भी आपत्ति जतायी। जिन्ना ने, ठीक आज की तरह, एक नया उपद्रव खड़ा किया कि कांग्रेस शासित प्रांतों में मुसलमान सताए जा रहे हैं ।
पीरपुर के नवाब सैयद मुहम्मद मेहदी ने 15 नवंबर 1938 को कोरे झूठ से भरी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें वन्दे मातरम्, तिरंगे, हिंदी शिक्षा, वर्धा योजना पर आरोप लगते हुए आपत्ति जतायी।
1908 से आज तक क्या बदल गया ?
धर्म के आधार पर अलग देश की माँग पूरी हो जाने के बाद भी भारत से ना जाने वाले, ‘सर तन से जुदा’ करने वालों ने 1947, 71, 90… में लाखों हिंदू मार दिए, कमलेश तिवारी, कन्हैया लाल, प्रवीण नेत्तारू, आज भी उस मानसिकता की बलि चढ़ रहे हैं, जिसके लिए राष्ट्र प्रेम का गीत वन्दे मातरम् बुत परस्ती लगता है, उन्हें तब भी वन्दे मातरम् बोलने पर आपत्ति थी, आज भी है।
“वन्दे मातरम्”, केवल राष्ट्र प्रेम का भाव है जो किसी भी दृष्टि से सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता!
जिन दो शब्दों का उद्घोष भारतवासियों ने एक स्वर में किया और अंग्रेज़ी राज की जड़ें उखाड़ दी, उस पवित्र गान से हटाए गए छंद जानना नहीं चाहेंगे आप?
वे हैं
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम्।।
तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वम् हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलाम् अमलाम् अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम्।।
श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम्,
धरणीम् भरणीम् मातरम्। वन्दे मातरम्।।
यह लेख सुप्रसिद्ध व्यवसायी और अयोध्या फाउंडेशन की संस्थापक ‘मिनाक्षी शरण जी’ के अंग्रेजी लेख का अनुवाद है .