किसी भी कथ्य को समझने से पहले उसे पढ़ना और गहराई से समझने के लिये बार बार पढना आवश्यक है। निश्चित ही बिटवीन द लाईंस पढा जाना चाहिये और अनेक अर्थ निकालने चाहिये क्योंकि जिन दिनों की रचनाओं पर आज बात हो रही है तब से ले कर अब तक कविता कहने का तरीका बदल चुका है, विवेचना के तौर बदल चुके हैं, समाज बदल चुका है और सामाजिक परिस्थितियाँ भी बदल चुकी है। बहुत संभव है कि जब हम कोई अर्थ निकाल रहे हों तो वह अनर्थ की ओर ही इशारा करता दिखाई दे? बहुत संभव है कि हम उन बिम्बों के मायनों की तक भी न पहुँच पा रहे हों जिन्हें ले कर हो हल्ला मचाया जा रहा है अथवा आन्दोलन खड़े लिये जा रहे हैं? कुछ भी हो सकता है धरती एक दौर में स्थिर कही जाती थी और सूरज उसके चक्कर लगाता माना जाता था। यह उस युग की अवधारणा थी तथा उस समय के उपलब्ध शोध, विवेचना और तर्क पर आधारित परिणति थी लेकिन नई धारणायें आने तक हम कई गेलेलियो और सुकरातों को मार चुके होते हैं।
अभिव्यक्ति की नियति जहर की तरह है, यह संयम और सोचपूर्णता से प्रयुक्त हो तो औषधि है और यूं ही गटकनी पडे तो प्राणघाती। चर्चा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित महिषासुर दिवस तथा फॉरवर्ड प्रेस के अक्तूबर 2014 अंक में प्रकाशित कतिपय आपत्तिजनक सामग्री की कर लेते है जिसपर स्वाभाविक विवाद हुआ और कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुईं। दुर्गा-महिषासुर प्रसंग पर फॉर्वर्ड प्रेस नामधारी पत्रिका में प्रस्तुत सामग्री चित्रकथा शैली की थी, कुछ पेंटिंग्स हैं जिन्हें डॉ. लाल रत्नाकर ने बनाया है जिसका विवरण हिन्दी और अंग्रेजी में फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका द्वारा दिया गया है। इस पत्रिका में देवी दुर्गा को वेश्या चित्रित किया गया था और बहुत ही भद्दी टिप्प्णियाँ प्रकाशित की गयी थीं।
इसी दौर में विवाद को लाल-साहित्यकार उदयप्रकाश ने आगे बढाते हुए फेसबुक पर लिखा था “दरअसल दुर्गा, महिषासुर (भैंस पालक चरवाहा समुदाय), वृत्रासुर (बांधों को तोडने वाला पूर्व कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर वनवासी समुदाय) आदि वगैरह ही नहीं रामायण में वर्णित हनुमान, जामवंत, अतिबल, दधिबल, सुग्रीव, बालि, अंगद, गुह, निषाद, कौस्तुभ, मारीच, आदि सब के सब विभिन्न समुदाय के मिथकीय, अस्मितामूलक प्रतीक चिन्ह (आयकन) हैं” स्वाभाविक है कि उदयप्रकाश मिथक को इतिहास मान लेने की वकालत कर रहे हैं। उनका इतिहास उनकी मान्यताओं व विधारधारा के अनुरूप किस तरह लिखा जाना चाहिये इसके लिये वे लिखते हैं कि “सुर कौन था या है और असुर कौन था या है, इसे समझने का दौर अब आ चुका है। किसी के भी मौलिक अधिकारों को इतने दीर्घ काल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता”।
उदयप्रकाश जैसा साहित्यकार यह बात कह रहा है तो हर्ज क्या है हमें सारी प्राचीन काव्यकृतियों को इतिहास मान लेना चाहिये यहाँ तक कि पंचतंत्र और जातक कथाओं के सभी पशु-पक्षी बिम्बों में भी अपने अपने पक्ष के आदिवासी-गैरआदिवासी, सुर-असुर, चिन्ह-टोटेम आदि अलग अलग कर लेने चाहिये? नया दौर है इसलिये समाज को लडने-लडाने के अतिबौद्धिक और प्रगतिशील तरीके अपनाने ही चाहिये, क्या रखा है जातिवाद, साम्प्रदायवाद जैसे झगडे-झंझट, खून-खराबे फैलाने के आउट ऑफ डेटेड कारणों में?
दुर्गा-महिषासुर कथा का जो सर्वज्ञात पक्ष है एवं उपलब्ध प्राचीन पुस्तकें हैं उन्हें सामने रख कर तो बात होनी ही चाहिये। कल्पनाशीलता एक हद तक ही सही है। निहितार्थ निकालने वालों को नीबू दिखा कर कद्दू की कल्पना करने की छूट तो दी जा सकती है लेकिन चींटी देख कर डायनासोर पर व्याख्यान होने लगें तो कदाचित बौद्धिक लफ्फाजी पर सवाल खडे करना आवश्यक हो जाता है। भैस प्रतीक देख कर यदि महिषासुर किसी को भैंसपालक कृषक समुदाय लगा तो उनके द्वारा की जाने वाली खेती आदि के कुछ तो विवरण किन्हीं पुरानी पंक्तियों अथवा जनश्रुतियों में छिपे मिले होंगे?
जवाहरलाल नेहरू के लाल-विचारक जिस महिषासुर की चर्चा करते रहे हैं उसे बंगाल का राजा बताया जाता है। कोई इन विद्वानों से पूछे कि उनके लिये मैसूर शहर के दावों को क्यों खारिज कर दिया जाये? यह मान्यता है कि महिषासुर एक समय मैसूर (महिसुर) का राजा था और दुर्गा द्वारा भीषण युद्ध में उसका वध जिस स्थल पर हुआ उसे चामुण्डा पर्वत कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश का शक्तिपीठ नैनादेवी भी दावा करता है कि महिषासुर का वध वहाँ हुआ। झारखण्ड का भी दावा है कि चतरा जिले में तमासीन जलप्रपात के निकट महिषासुर का वध हुआ। छत्तीसगढ का भी महिषासुर पर दावा है जहाँ बस्तर के डोंगर क्षेत्र में अनेक महिष पदचिन्हों को महिषासुर की कथा से जोड कर देखा जाता है और मान्यता है कि यहीं उसका वध हुआ।
जहाँ इतनी मान्यतायें उपलब्ध हैं वहाँ फोर्वर्ड प्रेस के सर्वे सर्वा एवं ईसाई धर्मावलम्बी डॉ. सिल्विया फर्नान्डीज या कि इस पत्रिका के मुख्य सम्पादक और ईसाई धर्मावलम्बी श्री आयवन कोस्का बिना संदर्भ के भी कोई बात रखते हैं तो सवाल खडे किये जाने चाहिये। वाल्मीकी रामायण के अनेक संदर्भ राक्षसों के तीन मुख विभेद करते हैं – विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। वाल्मीकी रामायण मे उल्लेख है कि रावण दानवों की भी हत्या करता है “हंतारं दानवेन्द्रानाम”। यही नहीं उल्लेख है कि जब रावण वध हो जाता है तो विराध (असुर) शाखा प्रसन्नता व्यक्त करती है (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6)। अर्थात असुर, दानव और राक्षस भी आपस में प्रतिस्पर्थी थे और एक दूसरे की पराभव के जिम्मेदार भी थे। अगली कडी में जारी…
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