पाकिस्तान पर जब से भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक किया है, यह शब्द तब से सोशल मीडिया पर सामाजिक बीमारी को जड़ से समाप्त कर देने का मुहावरा बन गया है। लेकिन अब तक किसी ने सर्जिकल स्ट्राइक खुद अपने घर में कराने की मांग नहीं की। अब मीडिया जगत की बड़ी हस्ती चाहती है की एक सर्जिकल स्ट्राइक मीडिया घरानों और पत्रकारों पर भी होना चाहिए।
पत्रकारिता जगत में आलोक मेहता परिचय के मोहताज़ नहीं है। आउट लुक के संपादक आलोक मेहता ने जब नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के कार्यक्रम में पत्रकारिता की गिरती साख पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि अब वक्त आ गया है एक सर्जिकल स्ट्राइक मीडिया पर भी हो! उनकी इस बात पर उपस्थित पत्रकारों ने ताली बजाकर स्वीकृति की मुहर लगा दी। मेहता का मानना है कि इस धंधे में ऐसा क्या है जो मालिक करोड़ों में खेलने लगता है। कुछ पत्रकार ने रातों रात पेशे की साख बेच दी! उन पर कभी कारवाही क्यों नहीं हुई? वे कहते है क्यों सिर्फ नेताओं के भ्रष्टाचार की बात हो? पत्रकारों की क्यों न हो?
कुछ मछलियां पूरे समंदर को गन्दा कर रही है। दूसरों के ऊपर उंगली उठाना जितना आसान है,खुद के गिरेबान में झांकते हुए कटघरे में खड़ा होना उतना ही मुश्किल। पत्रकारों की चिंता इस बात को लेकर ज्यादा रही कि आज मीडिया संजय की भूमिका छोड़ कर बस मोदी विरोध और मोदी समर्थन के धंधे में लिप्त है। टीवी मीडिया खुद एक पार्टी बन गई है! टीवी पत्रकारिता ने पेशे की दलाली की जड़ पर भी हमला किया! सच तो यह है कि जब से टीवी 24 घंटे का हुआ, संपादको ने स्ट्रिंगरो की एक जमात पैदा की जो मूलतः पत्रकार न हो कर जिले के ठेकेदार और दुकानदार ज्यादा होते थे। उन्हें टीवी चैनल के पैसे से नहीं केवल ‘गन माइक’ और ‘कार्ड’ से मतलब था लेकिन जब लोकल स्तर पर पत्रकारों को भी संपादकों ने दलाली का ठेका दे दिया तो वे रिपोर्टर को पांच सौ की स्टोरी भेज कर पाँच- दस हज़ार की कमाई में लिप्त हो गए! बीमारी यहीं से शुरू हुई।
मेहता कहते हैं सिर्फ व्यापारी और नेता ही क्यों? आज तक किसी भी अखबार वाले या पत्रकार के घर छापा क्यों नहीं। फेरा में कोई पत्रकार क्यों नहीं फंसा। हम सिर्फ नेताओं के खिलाफ क्यों बोले? सनसनी सिर्फ टीवी नहीं,अखबार भी करता है! कई बार तो अखबार नग्न तस्वीरें भी छापता है। यह एक अलग तरह का धंधा है। वहां सर्जिकल स्ट्राइक क्यों नहीं? मेहता का कहना है यह स्ट्राइक खबर को लेकर कतई नहीं होना चाहिये! भ्रष्टाचार को लेकर होना चाहिए। आलोक मेहता पत्रकरिता में परिचय के मोहताज़ नहीं है। लेकिन पेशे के अन्दर शुद्धिकरण की उनकी मांग ने नई बहस को जन्म दिया है! यह बहस आगे चलनी चाहिए। खेमेबाजी में बंटी मीडिया के किसी शब्द का मोल कैसे हो सकता है, जब हमें पहले से पता हो कि कौन सा चैनल और उसका पत्रकार किसका पक्षकार है?
इसके लिए तो सोशल मीडिया आ गया है जनाब। फिर जनता आम जन की इस मीडिया पर भारोसा क्यों न करे? मेनस्ट्रीम मीडिया यदि खुद की सफाई न करे तो उसका सर्जिकल स्ट्राइक क्यों न हो ताकि जनता इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पत्रकार और उस मीडिया हॉउस के पीछे के धंधेबाज पक्षकार की पहचान कर सके। सवाल सिर्फ नेताओं पर क्यों? सवाल करने वालों पर सवाल क्यों नहीं?