आनंद कुमार। चंद सवालों पर ही पत्तरकारों को पीट देना तो आपके लिए रोज़ की बात है हुज़ूर! किसने नहीं किया? सलमान ने किया है, शाहरुख़ ने किया है, सैफ़ का तो खैर मतलब ही तलवार होता है। धौंस दिखाने की आपकी मंशा इतने पे ही रूकती तो खैर क्या बात होती ! कई बार तो फैन के साथ मार पीट की घटनाएँ भी सुनाई देती ही रहती हैं। विदेशों में तलाशी लेने के लिए जिनका कच्छा-बनियान उतरवा लिया जाता है वो भी वानखेड़े स्टेडियम के गार्ड को पीट देते हैं।
क्या कसूर था? बस इतना सा था कि वो गरीब था। करोड़पति स्टार के खिलाफ स्टैंड लेता तो नौकरी जाती, खून का घूँट पीकर रह गया। एकजुट होने और आवाज़ उठाने की याद आज क्यों आ रही है? आपके साथी जब गरीब ‘चतुर्थ वर्ग’ के कर्मचारी के साथ नाइंसाफी करते हैं तब नहीं आती? जब किस्म किस्म के हमले आप कलात्मक ढंग से कर रहे हैं तो कुछ जवाब देने की तैयारी भी कीजिये।
मेरा पहला सवाल, इसे घिनौनी हरकत को कानूनी काले बुर्के में ढक देने का प्रयास करने वालों से है। मी लार्ड आप जानते हैं कि ‘अभिव्यक्ति की स्वंत्रता’ की आड़ लेकर आप धार्मिक मान्यताओं को दबाने का धूर्ततापूर्ण प्रयास नहीं कर सकते। मी लार्ड आपको ये भी पता है कि किसी मंदिर में टंगी तस्वीरें, धार्मिक मान्यताएं दर्शाती हैं। काशी विश्वनाथ की दीवारों पर रानी पद्मिनी के जौहर और साका की तस्वीरें हैं। काशी विश्वनाथ बनारस में बना विश्वप्रसिद्ध मंदिर है जिसके बारे में आपको पता ना हो ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे में आपकी हरकत को जान बूझ कर धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाना क्यों ना माना जाए?
मेरा दूसरा सवाल बड़ी बिंदी गिरोह के फेमिनाज़ियों से है। आप ‘कन्सेंट’ के बारे में अच्छी तरह जानती हैं। उसके बिना बनाया गया शारीरिक सम्बन्ध बलात्कार हो जाता है। हालिया दौर में आपने फ्री-सेक्स विवाद से लेकर बलात्कार के कानूनों तक में इस शब्द और कंसेप्ट को खूब उछाला है। जब आज के दौर में कन्सेंट पर सोशल मीडिया या पेड मीडिया में लिखने वालों को आप क्रन्तिकारी मानती हैं तो पांच सौ साल पहले अपने इनकार को जबरन इकरार में बदलने की कोशिश करने का विरोध करने वाली को क्रन्तिकारी क्यों ना माना जाए ? फौज़ी ताकत और तलवारों के जोर पर भी जो इस्लामिक हुक्मरान के आगे ना झुकी हों ऐसी महिलाओं के जौहर का नेतृत्व करने वाली रानी पद्मिनी को ग्लोरिफाय क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
तीसरा सवाल असहिष्णुता और अवार्ड वापसी के छुटभैये गुर्गों से है। आपको थोड़े दिन पहले का विश्वरूपम फिल्म का किस्सा याद होगा। फिल्म पर ऐतराज इसलिए हुआ था क्योंकि आतंकी टोपी-दाढ़ी में नमाज पढ़ते दिखाए गए थे। उस वक्त आपके विरोध के स्वर कहाँ दब गए थे? कुछ ही दिन पहले हृतिक रौशन पर भी चर्च ने मुकदमा ठोकने की धमकी दी थी जब उन्हें माफ़ी मांगनी पड़ी थी। उस समय आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहाँ गई थी । आप ये बताएं कि क्या कारण है जो आपको पी.के. या फिर फायर-वाटर जैसी फ़िल्में बना पाते हैं लेकिन “बोल” जैसी फिल्म ना तो बना पाते हैं ना प्रदर्शित कर पाते हैं? क्यों जयन चेरियन ‘का बॉडीस्केप्स’ में ब्रम्हचारी हनुमान को ‘समलैंगिक’ दिखाने की “कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” लेना चाहते हैं? ये कलात्मक अभिव्यक्ति विश्व-स्तर के आतंकवाद जैसी समस्याओं के मामले में कौन से अंग विशेष में जा घुसती है?
बाकी हम भगवा टाँगे होते हैं और इस से आपकी छुआछूत की भावना ऐसी है कि हमारे सवालों के जवाब देना तो क्या हमारी तरफ देखना भी आपको गवारा नहीं। तो साहेब बहादुर मेरा सवाल ये भी है कि क्या 1400 साल से कुचले जा रहे हिन्दुओं को भी सवाल पूछने का मौका दिया जाएगा?