Sonali Misra. एनसीईआरटी की पुस्तकों में बच्चों को बताया जा रहा है कि मुसलमानों को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर मकान नहीं मिलता है और उनके साथ धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव होता है और जाहिर है इसमें हिन्दुओं का ही हाथ है। और सामाजिक विरूपता के उदाहरण को फिल्मों से प्रदर्शित किया जा रहा है, वह भी दीवार जैसी फिल्मों से, जो केवल कमर्शियल फ़िल्में हैं और जिन्हें एक एजेंडे के अंतर्गत ही बनाया गया है! मजे की बात यह है कि जो उन्हें जहर पढ़ाया जा रहा है और जो आज हमें टुकड़े टुकड़े गैंग के आन्दोलन दिखाई दे रहे हैं, उनमें वाकई इन्हीं पुस्तकों का हाथ है, क्योंकि बच्चे पिछले 16 वर्षों से जो जहर पढ़ रहे हैं, उसी हिसाब से आगे बढ़ रहे हैं।
आज सामाजिक विज्ञान की कक्षा 7 के कुछ उदाहरणों से हम समझेंगे कि जो बच्चे आज “आई स्टैंड विद फिलिस्तीन” पर ट्रेंड करने लगते हैं, और फक हिंदुत्व कहते हैं, उनकी प्रेरणा आखिर कहाँ से आई है। उसकी जड़ में केवल और केवल यही पुस्तकें हैं क्योंकि उन्होंने बच्चों को एक ऐसे ऑब्जेक्ट में बदल दिया है, जिस पर कांग्रेस और वामपंथियों ने तमाम तरह के प्रयोग किये हैं।
कक्षा 7 के सामाजिक विज्ञान की पुस्तक सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन भाग-II में प्रथम अध्याय से ही यह सुनिश्चित कर दिया गया कि बच्चे समाज की एक ऐसी तस्वीर लेकर आगे बढ़ें, जो आपस में बिखरा है, टूटा है और एक विशेष वर्ग शोषण कर रहा है। आमुख में ही एक पंक्ति कही गयी है कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा (2005) यह सुझाती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए। इस सिद्धांत के चलते इस पुस्तक में कई उदाहरण ऐसे लिए गए हैं जो बच्चों को उन सच्चाइयों से परिचित कराते ही नहीं हैं, जो आज समाज का सच हैं। बल्कि सच्चाई पर एक झूठा आवरण जैसा भी प्रदान करती हैं।
आइये आरम्भ करते हैं प्रथम अध्याय से। प्रथम अध्याय है समानता का। समानता के सिद्धांत के बहाने हिन्दुओं को पिछड़ा और अत्याचारी घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है एवं जातिप्रथा के उदाहरण के रूप में वैवाहिक विज्ञापन प्रयोग किये गए हैं। और इसीके साथ पुस्तक में दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन से कई उदाहरण लिए गए हैं। परन्तु बच्चों को उनकी मूल पहचान के प्रति घृणा से भरने के लिए वैवाहिक विज्ञापनों के उदाहरण के बाद पूछा गया है “ऊपर दिए गए वैवाहिक विज्ञापनों में से जाति के सूचना देने वाले अंश पर गोला लगाइए।”
बच्चों के दिमाग में बैठ गया कि हिन्दू धर्म बहुत बुरा है क्योंकि उसमें जातिप्रथा होती है, कुछ ऐसा जो सही नहीं है, और जो समाज में भेदभाव पैदा करती है। परन्तु बड़ी सफाई से इसमें यह नहीं बताया कि इस्लाम में कितने फिरके हैं और सैयद किनसे निकाह नहीं करते, जुलाहों के घर कौन पानी नहीं पीता और जुलाहों की बेटियों को क्या कोई ऊंची जाति वाला मुस्लिम परिवार अपनी बहू बनाता है?
मुस्लिम और ईसाई मैट्रीमोनी साइट्स भी जाति और वर्ग के अनुसार ही दूल्हा और दुल्हन का मिलान करते हैं। परन्तु इस पुस्तक में ऐसा कुछ नहीं है बल्कि प्रथम अध्याय में बच्चों को हिन्दुओं के विरुद्ध और भी भड़काया गया है।
सबसे मजेदार तो इसमें फिल्म दीवार का उदाहरण है जिसमें एक बच्चे से यह कहलवाया गया था कि “मैं फेंके गए पैसे नहीं उठाता!” पाठ्यपुस्तक लिखने वालों के वैचारिक दिवालियापन का पता चलता है।
इसमें एक मुस्लिम दंपत्ति को हिन्दू क्षेत्र में मकान न मिलने की बात को भेदभाव के रूप में दिखाया गया है। कि अंसारी दंपत्ति को मकान उनके मजहब के आधार पर नहीं मिला। मगर इस बात को और विस्तार देते हुए पुस्तक में यह कहा गया है कि अंसारी और ओमप्रकाश वाल्मीकि के साथ ऐसा व्यवहार पहचान के आधार पर नहीं होना चाहिए था। और इसमें आमुख में ही प्रश्न पूछा गया है कि “यदि आप अंसारी परिवार के एक सदस्य होते तो प्रॉपर्टी डीलर के नाम बदलने के सुझाव का उत्तर किस प्रकार देते?”
यहाँ पर बच्चों के कोमल दिमाग में एकदम से यह भर दिया गया है कि चूंकि इस समुदाय के साथ पहचान को लेकर अन्याय होता है, तो उसकी प्रतिक्रिया ठीक ही होगी। और यही कारण है कि आज के जो बच्चे हैं वह उन खबरों के प्रति उदासीन रहते हैं जब खबरें आती हैं कि आगरा, कैराना आदि में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से हिन्दुओं को जबरन पलायन करना पड़ा है। और जैसे ही कोई भी क्षेत्र मुस्लिम बहुल होता है वैसे ही हिन्दुओं के साथ भेदभाव शुरू हो जाता है और लडकियां भी सुरक्षित नहीं रहती हैं। यह समाचार उन तक कोई नहीं पहुंचाता!
उन्हें यह सब भड़काऊ लगता है और यही कारण है कि वह अपने धर्म से विमुख होकर उधर ही झुकते हैं, जहां मजहब के नाम पर अन्याय सबसे अधिक होता है।
समानता के इस अध्याय में लेखक ने कपोल कल्पित बातें लिखीं परन्तु धार्मिक पहचान के आधार पर स्वतंत्र भारत का जो सबसे बड़ा पलायन था, अर्थात कश्मीरी हिन्दुओं का मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा किया गया नरसंहार एवं सामूहिक पलायन, जिसमें वह अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं आए थे, उसका उल्लेख तक समानता नामक इस अध्याय में नहीं है।
यही कारण है कि बच्चे किसी अंसारी की उंगली कटने से बिलख पड़ते हैं, परन्तु किसी क़ौल, किसी मिश्रा, किसी अंकित शर्मा की हत्या के साथ नहीं जुड़ पाता। उसे लगता है कि इन कथित उच्च जातियों ने इतना अत्याचार किया है, किसी को अपने साथ नहीं आने दिया और किसी अंसारी को अपने बीच फ़्लैट नहीं लेने दिया, तो इनके साथ जो हो रहा है वह ठीक ही हो रहा है। और फिर वह हिन्दुओं के उस सामूहिक पलायन से भी प्रभावित नहीं होते, जो उनकी धार्मिक पहचान के कारण होता है. पिछले कई वर्षों से यह खबरें छाई हुई हैं, फिर मेरठ का कैराना हो या आगरा हो या फिर उत्तराखंड!
जिन बच्चों का स्वर आज यह कहता है कि आई स्टैंड विद कश्मीर, तो वह सही कहता है क्योंकि किसी भी पुस्तक में कश्मीर से हिन्दुओं का पलायन, केस स्टडी के रूप में है ही नहीं! एनसीईआरटी की पुस्तक का आमुख जब यह कहता है कि वह आम जीवन के उदाहरणों के साथ बच्चे को पढ़ाना चाहते हैं तो हर वर्ष उदाहरणों में परिवर्तन क्यों नहीं हो रहे है? क्यों डॉ. नारंग की हत्या का विवरण नहीं है समानता के अध्याय में समानता की परिभाषा में? क्यों धर्म के आधार पर अंकित सक्सेना की हत्या नहीं है?
निकिता तोमर जैसी कई लड़कियों की हत्या क्यों केस स्टडी में नहीं है जब यह घटनाएं दिनों दिन बढ़ रही हैं एवं कोरोना में भी शांत नहीं हुई हैं?
और क्या यह सरकार का उत्तरदायित्व नहीं है कि वह हर वर्ष पुस्तकों की समीक्षा करे, यदि बच्चों को समानता के नाम पर अधकचरी और एजेंडापरक ख़बरों का डंपिंग यार्ड बनाया जा रहा है, तो वह कुछ करे? क्या वर्ष 2005 की रूपरेखा पर ही यह सरकार चलेगी और अपने बच्चों के दिमाग में वह जहर भरती रहेगी जो उन्हें उनके देश और समाज के विरोध में लेजाकर खड़ा कर दें या फिर सरकार कदम उठाएगी? क्या हमारे शिक्षा मंत्री कहानियाँ और कविता लिखने के साथ साथ यह भी सुनिश्चित करेंगे कि बच्चों का मस्तिष्क दूषित न हो या फिर वह इसी कथित प्रगतिशील समाज एवं देश तोड़ने वाले एजेंडापरक पाठ्यक्रम को चलने देंगे?