चाह गयी चिंता मिटी , मनवा बेपरवाह ;
जाको कछू न चाहिये , वो ही शहंशाह ।
कबीर दास का सत्य वचन है , मुक्ति मार्ग का वाहक है ;
इसी मार्ग पर चल कर देखो, परमलक्ष्य का जो साधक है ।
प्रारंभ वहीं से यात्रा होगी , खड़ा जहां पर यात्री है ;
परमार्थ की यात्रा हमको करनी , हम सांसारिक यात्री हैं ।
संसार से यात्रा शुरू हमारी , परमार्थ में हमको जाना है ;
तो पहले संसार को समझो , हमको संसार मिटाना है ।
संसार की स्थिति वैसी ही है , जैसे कि स्वप्न हमारा है ;
सब कुछ मिथ्या भास रहा है , रस्सी में सर्प दुखारा है ।
कहीं नहीं है सर्प की सत्ता , केवल रस्सी ही रस्सी है ;
जो यथार्थ है उसको जानो , वरना गले में रस्सी है ।
गले में रस्सी है माया की , कुछ का कुछ दिखलाती है ;
सारे जीव इसी में जकड़े , माया सबको भटकाती है ।
माया की भटकन मृग-मरीचिका, हिरण प्यास से मरता है ;
इसी तरह अज्ञान के कारण , अज्ञानी- जीव तरसता है ।
पर जब जीव सुपात्र बन जाता , ईश कृपा तब होती है ;
मन में अंकुर शुभ-इच्छा का , गुरु की कृपा बरसती है ।
श्रवण – मनन – निध्यासन ही , केवल पुरुषार्थ हमारा है ;
आत्मकृपा तब हो जाती है , तीनों – काल हमारा है ।
सब कुछ मेरा , मैं सब में हूं , मुझसे कोई भिन्न नहीं ;
मेरी ही अपरिछिन्न है सत्ता , कुछ भी अब परिछिन्न नहीं ।
एकमात्र बस सत्य यही है , शिष्य गुरु से पाता है ;
ब्रह्मनिष्ठ – श्रोतीय गुरु ही , ये सब सत्य बता पाता है ।
अज्ञान दुखों का मूल है केवल , मिथ्या संसार भोगता है ;
गुरु – कृपा ही केवल औषधि , संसार का रोग मिटाता है ।
योगवाशिष्ठ है ज्ञान का सागर, गुरु वशिष्ठ हैं राम शिष्य हैं ;
इसका सार इस मंत्र में जानो,हमको बनना योग्य शिष्य है ।
संसार दीर्घ रोगस्य , सुविचारो महौषधम् ;
को हम ? कस्य च संसारो ? विवेकेन विलीयते ।
“गुरु साक्षात् परब्रह्म,तस्मै श्री गुरुवे नमः”
रचनाकार : ब्रजेश सिंह सेंगर “विधिज्ञ”