पिछले ढाई दशक में भारत के नव सवर्णों ने सरकारी नौकरियों में जरुरतमंदो के नाम पर दी गई आरक्षण की रेवड़ी चाट ली। जरुरतमंदो तक उसकी हक पहुंचने ही नहीं दिया जो उसके हकदार थे। समाजिक न्याय का नारा भी वही बुलंद करते रहे जो सरकारी नौकरियों में दुसरे की हिस्सेदारी की मलाई चाटते रहे। आरक्षण की लालसा में उपेक्षित समाज बस नवसवर्ण जातिवादी नेताओं की राजनीति का शिकार होते रहे। आरक्षण का लाभ वहां तक पहुंच ही नहीं पाया जिन्हें इसकी जरुरत थी। भारत सरकार द्वारा ओबीसी आरक्षण की समीक्षा के लिए गठित एक आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी नौकरियों में ओबीसी को दी जाने वाली आरक्षण का 97 प्रतिशत हिस्सा यादव,कुर्मी,सैनी,वोक्कालिंगा व एझावा जैसे 25 चुनिंदा जातियाें ने ही गटक लिया।
सरकारी आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक ओबीसी में आने वाली 983 जातियों को अब तक आरक्षण का कोई लाभ मिला ही नहीं। बांकि 994 जातियां अब तक आरक्षित सीटों में ढाई प्रतिशत की हिस्सेदारी के लिए लड़ती मरती है। ये है सामाजिक न्याय की बुलंदियों की सच्चाई। जिसके नाम पर क्षेत्रीय राजनीतिक क्षत्रपों की राजनीतिक तीन दशक से चल रही है।
गरीबी और बदहाली से निकल कर एक दशक में अरबपति बने जातिवादी राजनीति करने वाले लालू,मुलायम और करुणानिधि जैसे क्षत्रपों की दुकान आरक्षण के इसी असमान लूट के नशे से चलती रही। सामाजिक न्याय का नारा बस बुलंद होता रहा। जरुरतमंदो तक उसका हिस्सा इन जातिवादी नेताओं ने पहुंचने ही नहीं दिया। इसीलिए जब भी आरक्षण की समीक्षा की बात आई, यह तय करने के लिए कि जरुरमंदों तक आरक्षण का लाभ मिला या नहीं जातिवादी नेताओं ने भावनात्मक आग में देश को ढ़केल दिया।
दिल्ली हाइकोर्ट के पहली महिला (पूर्व) मुख्य न्यायाधीश जी रोहणी की अध्यक्षता में बनी COMMISSION OF EXAMINATAION SUB- CATEGARISATION OF OBCs की रिपोर्ट के मुताबिक आरक्षण व्यवस्था का लाभ जरुरतमंदो तक पहुंच ही नहीं रही। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक आयोग ने सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी है उसमें बताया गया है कि यादव,कुर्मी,सैनी,जाट( राजस्थान में ) वोक्कालिंगा व एझावा जैसे चुनिंदा 25 जातियों ने 97 प्रतिशत आरक्षण गटक लिया। 1993 में सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किए जाने के बाद से लगभग ढाई दशक में ओबीसी कोटा में आने वाले 983 जातियों को कभी आरक्षण का लाभ मिल ही नहीं पाया क्योंकि वो इस योग्य ही नहीं है कि पढ़ लिख कर आरक्षण की रेस में शामिल हो सकें। मोदी सरकार ने इस आयोग का गठन अक्टूबर 2017 में किया था। आयोग की जिम्मेदारी है कि वो यह पता करे कि आरक्षण का लाभ क्या वंचित वर्ग तक पहुंच पाया! सरकार ने इस आयोग का कार्यकाल मई 2019 तक बढ़ा दिया है।
जस्टिस रोहणी की अध्यक्षता वाले आयोग के मुताबिक समाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण की इस व्यवस्था में घोर असमानता दिख रहा है। दिलचस्प यह है कि उत्तर भारत में यादव, कुर्मी जाट व सैनी तथा दक्षिण भारत में वोक्कालिंगा व एझावा जाति न सिर्फ आर्थिक बल्कि राजनीतिक रुप से भी सबल हैं। दलितों और पिछड़ों के नाम कि राजनीति वो कर रहें हैं जो आर्थिक और राजनीतिक रुप से सबल हैं। इनके वोट बैंक के हिसाब से भी इनके पास लगभग 15 से बीस प्रतिशत की ताकत है। ये नेता जातिवाद के नाम पर नशे की घुट्टी उन जातियों को पिलाते हैं जिन्हें कभी आरक्षण का लाभ नहीं मिला । वे बस इस उम्मीद में होते हैं कि कभी ऐसा वक्त आएगा कि उन्हें भी इसका लाभ मिलेगा। दरअसल आजाद भारत में किसी सरकार की यह नियत नहीं रही की जरुरतमंदों तक आरक्षण का लाभ पहुंचाया जा सके। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा की जरुरत थी जो सामाजिक रुप से निचले पायदान पर मौजूद जातियों को मिल ही नहीं पाई। जिन जातियों के जातिवादी नेता ने आरक्षण की पैरोकारी की राजनीतिक की दरअसल में राजनीतिक और सामाजिक रुप से पहले से सबल थे। इसीलिए यादव, कुर्मी,जाट व वोक्कालिंगा जैसी कुछ जातियों ने जरुरतमंदो के नाम पर दी गई सरकारी नौकरी के आरक्षण का हिस्सा गटक लिया।
रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पांच सालों में एक लाख तीस हजार नौकरी आरक्षित वर्ग की जातियों की मिली जिसके 97 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से पर नवसवर्ण जातियों ने कब्जा कर लिया। बचे हुए लगभग ढाई प्रतिशत नौकरी 994 जातियों के हिस्से में गया। बांकी बचे 983 जातियों को आरक्षण का लाभ कभी मिल ही नहीं पाया। ये है समाजिक न्याय के नाम पर जातिवादी राजनीति करने के पैरोकारी का असली सामाजिक न्याय! आयोग के मुताबिक पिछले पांच सालों में रेलवे,पुलिस बस, पोस्टल विभाग,बैंक समेत कई केंद्रीय सरकारी नौकरियों में ओबीसी के हिस्से आई नौकरी के आकलन के हिसाब से यह रिपोर्ट तैयार की गई है। पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था 1993 में मंडल आयोग के तहक की गई थी। आरक्षण ने नाम पर देश में जो जातिवादी राजनीति चली उसने भारत में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के वजूद को बड़ी चुनौती दी। जातिवादी आरक्षण के कारण राज्यों में यादव,कुर्मी और जाट नए सवर्ण बन गए। राजनीतिक और आर्थिक रुप से वे पहले से ही सबल थे। जरुरतमंदो के आरक्षण का हिस्सा गटक कर वे नई राजनीतिक ताकत बन गए। अब वे किसी भी हालत में आरक्षण की समिक्षा इसीलिए नहीं चाहते थे ताकि सच सामने न आ सके। हमेशा आरक्षण को खतरे में बताकर मजबूर और लाचार लोगों को सड़क पर लाकर समाजिक न्याय का ढोल बजा कर समाजिक अन्याय का कब्र खोदते रहे। यही कारण है आरक्षण का लाभ कभी उन तक पहुंच ही नहीं पाया जो इसके असली हकदार थे।
संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ दस साल के लिए दलितों और आदिवासियों के लिए की गई थी। अभी उसकी समिक्षा बांकी। यह पता किया जाना बांकी है कि 70 साल से दलितो को मिल रहे आरक्षण का लाभ क्या सिर्फ कुछ चुनिंदा दलित जातियों तक ही पहुंचे। बाकी इस लायक भी नहीं कि वो आरक्षण का लाभ उठा सके। ये कैसा सामाजिक न्याय है जो सत्तर साल बाद नव सवर्ण पैदा कर दिया। उसी ने जातिवाद के नाम पर आरक्षण का झंडा थाम कर वंचितों से उसका हिस्सा छीन लिया।
URL: social justice on the basis of reservation is naw unjustified…a commission
Keywords : social justice,reservation cast system, सामाजिक न्याय,जातिवाद,आरक्षण.