स्वामी चैतन्य कीर्ति। अपने 10 अप्रैल, 1989 के ज़ेन प्रवचन के बाद ओशो एक बार फिर सार्वजनिक रूप से मौन में चले गए –उस दिन उनके अंतस्तल में कुछ घटित हुआ था, जिसका ज़िक्र मा आनन्दो की पुस्तक में है. उसका अर्थ है कि अब ओशो 9-10 महीने से अधिक अपनी देह में नहीं रहेंगे। उस संध्या सत्संग में ओशो के अंतिम शब्द थे : “सम्मासती ! स्मरण रहे कि तुम स्वयं बुद्ध हो !”
इस 9-10 महीने में कितने लोग ऐसा स्मरण रख पाए, उस विषय पर इस लेख में चर्चा नहीं है, लेकिन कितने लोगों में ओशो के उत्तराधिकार की अंतरकलह शुरू हो गयी, यह बड़ी हैरानी की बात है ! और इस अंतरकलह में मुख्य पात्र ओशो के पश्चिमी संन्यासी रहे–भारतीय संन्यासियों की तो गिनती ही नहीं है, वे तो दूर दूर तक कहीं दिखाई भी नहीं पड़ते थे, वे हमेशा से साइड में बने रहे. इन सब में ओशो की भारतीय सचिव मा नीलम भी थी, लेकिन वह अंतरकलह वाले ग्रुप से बाहर ही थी।
यह अंतरकलह का ग्रुप मुख्यतः पश्चिम के स्त्री पुरुषों में बटा हुआ था. यह त्रिकोणीय था अथवा चार भागों में था। लेकिन मुख्यतः दो में बटा हुआ था–स्त्री और पुरुषों में। पुरुषों में मुख्य जयेश और अमृतो, और दूसरी ओर ओशो की सचिव आनन्दो, हास्या, केयरटेकर निर्वाणो, शून्यो, आविर्भावा इत्यादि…। इनमें किसी न किसी भूमिका में मनीषा भी थी. स्त्रियां केयरटेकर के रूप में ज्यादा कुशल होती हैं, पुरुषों में कुछ कमी होती है क्योंकि वे मां नहीं बन पाते। यह मूलतः एक स्त्रैण गुण है.
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ओशो के जीवन के आखिरी 9-10 महीने का अगर हम सूक्ष्म दर्शन करें ( कभी विस्तार से भी लिखा जाएगा–अभी संक्षेप में ) तो यह कहानी मुख्य रूप से स्त्री और पुरुष ( पश्चिमी जगत के ) के बीच सत्ता के संघर्ष की कहानी है और अंततः पुरुष अपनी चालबाजियों से कुछ हथियाने की भाग-दौड़ में ज्यादा सफल होते दिखाई पड़ते हैं और सफल हो भी जाते हैं –और यही उनकी असफलता भी बन जाती है। ओशो के देहत्याग के 23 वर्ष बाद, अमृतो और जयेश द्वारा, ओशो के वसीयतनामे को दर्शाना और मा आनन्दो द्वारा उस वसीयतनामे को अपनी पुस्तक में ख़ारिज कर देना इस बात का उदाहरण है। स्वयं ओशो हमेशा बोलते रहे कि मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं है, अथवा मेरे सब संन्यासी मेरे उत्तराधिकारी हैं…
लेकिन जयेश और अमृतो ओशो के मौन के दिनों में ओशो के वसीयतनामे की रचना कर लेते हैं और 23 वर्षों तक छुपाये भी रखते हैं –वे इंतज़ार करते रहे कि पहले ओशो की सभी सचिव– आनन्दो, हास्या, केयरटेकर निर्वाणो, शून्यो, आविर्भावा, और नीलम –सब ठिकाने पर लगा दी जाएँ, आश्रम से चली जाएँ और वे एकछत्र अपना राज कर सकें। और अब वे मा गरिमो और भारतीय मा साधना जैसी नगण्य स्त्रियों ( लाओत्सु हाउस में कार्य के तल पर ) से अपने ऑनलाइन ओशो टाइम्स में कुछ भी लिखवा कर छाप दें, लोग उसे मान लेंगे। यह कितनी बड़ी चालाकी है जो ये दो पुरुष करते रहे हैं।
आज उनकी चालाकी से आश्रम में स्त्रैण गुण के सौंदर्य का सर्वथा अभाव है –लगता है कोई केयरटेकर है ही नहीं–केवल हॉटेलबाज़ी करने वाले दो पुरुष बचे हैं. जयेश का भाई योगेंद्र ( अब राज आनंद ) और अमृतो आश्रम में आपको थोड़ा-बहुत दिख जाएंगे। अमृतो कम दिखेंगे क्योंकि वे कहीं एक कोने में बैठ कर आने वाले युग के लिए आधुनिक मनु-स्मृति, संहिता लिख रहे होंगे कि ओशो की माला क्यों नहीं पहननी है, ओशो का अतिक्रमण कैसे करना है, आप कैसे ओशो को क्षमा कर सकते हैं और भूल सकते हैं. अमृतो तो मुक्तिदाता हैं –आने वाली पीढ़ी को ओशो से मिलने के पहले ही ओशो से मुक्ति देने में लगे हैं–ओशो की फोटो हटाओ, उनकी कुर्सी हटाओ, उनकी पुस्तकों से ओशो के चित्र हटाओ…।
ओशो के नाम को मिटा कर OSHO ( Capital letters ) नाम के ट्रेडमार्क से जुड़ो, जो कि संगठन है–व्यक्ति नहीं–अमृतो जयेश उसके मालिक हैं। उनके “नेवर बॉर्न, नेवर डाइड” का यही अर्थ है। कहानी बहुत लम्बी है, फिर कभी फुरसत में लिखी जायेगी –लेकिन आज इतना ही !