श्वेता पुरोहित। श्रीव्यास जी बोले – अपने किंकर को हाथ में पाश लिये कहीं जाने को उद्यत देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं—“दूत! तुम भगवान् मधुसूदन की शरण में गये हुए प्राणियों को छोड़ देना; क्योंकि मेरी प्रभुता दूसरे मनुष्योंपर ही चलती है, वैष्णवों पर मेरा प्रभुत्व नहीं है। देवपूजित ब्रह्माजी ने मुझे ‘यम’ कहकर लोगों के पुण्य पाप का विचार करने के लिये नियुक्त किया है।
जो विष्णु और गुरु से विमुख हैं, मैं उन्हीं मनुष्यों का शासन करता हूँ। जो श्रीहरि के चरणों में शीश झुकाने वाले हैं, उन्हें तो मैं स्वयं ही प्रणाम करता हूँ। भगवद्भक्तों के चिन्तन एवं स्मरण में अपना मन लगाकर मैं भी भगवान् वासुदेव से अपनी सुगति चाहता हूँ। मैं मधुसूदन के वशमें हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ। भगवान् विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करने में समर्थ हैं। जो भगवान्से विमुख है, उसे कभी सिद्धि (मुक्ति) नहीं प्राप्त हो सकती; विष अमृत हो जाय, ऐसा कभी सम्भव नहीं है; लोहा सैकड़ों वर्षों तक आगमें तपाया जाय, तो भी कभी सोना नहीं हो सकता; चन्द्रमाकी कलङ्कित कान्ति कभी निष्कलङ्क नहीं हो सकती; वह कभी सूर्य के समान प्रकाशमान नहीं हो सकता; परंतु जो अनन्यचित्त होकर भगवान् विष्णु के चिन्तन में लगा है, वह मनुष्य अपने शरीर से अत्यन्त मलिन होने पर भी बड़ी शोभा पाता है।
महान् लोकतत्त्व का अच्छी तरह विचार करने पर भी यही निश्चित होता है कि भगवान्की उपासना के बिना सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती; इसलिये देवगुरु बृहस्पति के ऊपर सुदृढ़ अनुकम्पा करनेवाले भगवच्चरणों का तुम लोग मोक्ष के लिये स्मरण करते रहो। जो लोग सैकड़ों पुण्यों के फलस्वरूप इस सुन्दर मनुष्य शरीर को पाकर भी व्यर्थ विषय सुखों में रमण करते हैं, मोक्ष पथ का अनुसरण नहीं करते, वे मानो राख के लिये जल्दी-जल्दी चन्दन की लकड़ी को फूँक रहे हैं। बड़े देवेश्वर हाथ जोड़ कर मुकुलित करपङ्कज-कोषद्वारा जिन भगवान्के चरणारविन्दों को प्रणाम करते हैं तथा जिनकी गति कभी और कहीं भी प्रतिहत नहीं होती, उन भवजन्मनाशक एवं सबके अग्रज सनातन पुरुष भगवान् विष्णु को नमस्कार है” ॥ १-८॥
श्रीव्यासजी कहते हैं – इस पवित्र यमाष्टक को जो पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोक को चला जाता है। भगवान् विष्णुकी भक्तिको बढ़ानेवाला यमराजका यह उत्तम वचन मैंने इस समय तुमसे कहा है; अब पुनः उसी पुरानी कथाको अर्थात् भृगुके पौत्र मार्कण्डेयजीने पूर्वकालमें जो कुछ किया था, उसको कहूँगा ॥९-१० ॥
श्रीव्यास उवाच
स्वपुरुषमभिवीक्ष्य पाशहस्तं
वदति यमः किल तस्य कर्णमूले ।
परिहर मधुसूदनप्रपन्नान्
प्रभुरहमन्यनृणां न वैष्णवानाम् ॥ १
अहममरगणार्चितेन धात्रा
यम इति लोकहिताहिते नियुक्तः ।
हरिगुरुविमुखान् प्रशास्मि मर्त्यान्
हरिचरणप्रणतान्नमस्करोमि ॥ २
सुगतिमभिलषामि वासुदेवा
दहमपि भागवते स्थितान्तरात्मा ।
मधुवधवशगोऽस्मि न स्वतन्त्रः
प्रभवति संयमने ममापि कृष्णः ॥ ३
भगवति विमुखस्य नास्ति सिद्धि
विषममृतं भवतीति नेदमस्ति ।
वर्षशतमपीह पच्यमानं
व्रजति न काञ्चनतामयः कदाचित् ॥ ४
नहि शशिकलुषच्छविः कदाचिद्
विरमति नो रवितामुपैति चन्द्रः ।
भगवति च हरावनन्यचेता
भृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः ॥ ५
महदपि सुविचार्य लोकतत्त्वं
भगवदुपास्तिमृते न सिद्धिरस्ति ।
सुरगुरुसुदृढप्रसाददौ तौ
हरिचरणौ स्मरतापवर्गहेतोः ॥ ६
शुभमिदमुपलभ्य मानुषत्वं
सुकृतशतेन वृथेन्द्रियार्थहेतोः ।
रमयतिकुरुते न मोक्षमार्गं
दहयति चन्दनमाशु भस्महेतोः ॥ ७
मुकुलितकरकुड्मलैः सुरेन्द्रैः
सततनमस्कृतपादपङ्कजो यः ।
अविहतगतये सनातनाय
जगति जनिं हरते नमोऽग्रजाय ॥ ८
यमाष्टकमिदं पुण्यं पठते यः शृणोति वा ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ९
इतीदमुक्तं यमवाक्यमुत्तमं
मयाधुना ते हरिभक्तिवर्द्धनम् ।
पुनः प्रवक्ष्यामि पुरातनीं कथां
भृगोस्तु पौत्रेण च या पुरा कृता ॥ १०
श्रीनरसिंहपुराणे यमाष्टकनाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ श्रीनरसिंहपुराण में ‘यमाष्टक नाम’ नवाँ अध्याय॥ ९ ॥
वासुदेव श्री कृष्ण की जय