विपुल रेगे। केजीएफ: चैप्टर 2 के बारे में ये प्रश्न नहीं है कि बॉक्स ऑफिस पर वह चलेगी या नहीं। प्रश्न ये है कि फिल्म मेकिंग को लेकर निर्देशक प्रशांथ नील चैप्टर एक को पीछे छोड़ सके हैं या नहीं। यश की धुंआधार फैन फॉलोइंग के पहियों पर सवार केजीएफ का दूसरा अध्याय कुछ कमज़ोर रह गया है। एक ब्लॉकबस्टर फिल्म बनाकर दूसरे भाग में अपनी ही लकीर मिटाकर नई लकीर खींचना सिद्धहस्त निर्देशक की पहचान होती है।
केजीएफ का दूसरा अध्याय रॉकी की ताजपोशी के साथ खुलता है। अब रॉकी कोलार गोल्ड माइंस का राजा बन चुका है। माइंस के सभी अधिकार अब रॉकी के हाथ में है। अब रॉकी को रोकने के लिए एक और खूंखार लड़ाके अधीरा को लाया जाता है। अधीरा का केजीएफ से पुराना कनेक्शन है। केजीएफ पर वर्चस्व की लड़ाई सोने की खदानों से शुरु होकर भारत के संसद भवन तक पहुँच जाती है।
अब रॉकी भाई के सामने देश की सरकार और केजीएफ पर ललचाई निगाहें गड़ाए बैठे अपराधी हैं। ये लोग रॉकी को उखाड़ देना चाहते हैं। फिल्म का समग्र प्रभाव देखा जाए तो पहले अध्याय से कमज़ोर दिखाई देता है। आज सुबह से पब्लिक ओपिनियन में फिल्म को भयंकर वाली हिट बताया जा रहा है। पहले दिन और पहले शो में आने वाले दर्शक अधिकांश प्रशंसक होते हैं और फिल्म की कमज़ोरियों को बयान नहीं करते हैं।
भारत में फिल्मों के हिट और फ्लॉप होने का रसायन बड़ा विचित्र होता है। यहाँ पता नहीं लगाया जा सकता कि फिल्म का कौनसा सीक्वेंस दर्शक को छू गया और कौनसे दृश्य ने फिल्म के दर्शक घटा दिए। यहाँ हमें समग्र प्रभाव ही देखने को मिलता है, हम टुकड़ों-टुकड़ों में किसी फिल्म का प्रभाव अलग करके नहीं देख सकते हैं। केजीएफ के दूसरे अध्याय के साथ भी ऐसा ही है।
तकनीकी रुप फिल्म में कई गलतियां है। जैसे ठहराव वाले दृश्य फिल्म में दिखाई ही नहीं देते। एक घटनाक्रम से दूसरे घटनाक्रम तक फिल्म सरपट भागती रहती है। दर्शक को सोचने-समझने का भी समय नहीं मिलता। इसका बैकग्राउंड संगीत अत्याधिक लाउड है। वास्तव में बैकग्राउंड स्कोर तभी दर्शक को प्रभावित करता है, जब उसकी टाइमिंग सही हो।
सेकुलरिज्म से बॉलीवुड ही नहीं, कन्नड़ सिनेमा भी ग्रस्त है। पहले अध्याय में रॉकी को अनाम दिखाया गया है। उसका धर्म-जाति नहीं दिखाई गई है। दूसरे चैप्टर में रॉकी की माँ की कब्र दिखाई गई है। निर्देशक ने संकेतों में रॉकी भाई का धर्म बताया है। फिल्म की विषयवस्तु को देखते हुए इसकी आवश्यकता ही नहीं थी।
क्या ये अदृश्य नियम है कि सेकुलरिज्म और मुस्लिमों के दृश्य दिखाए बिना भारत में फिल्म नहीं बनाई जा सकती ? रॉकी की माँ की कहानी दर्शक को प्रभावित नहीं कर पाती है। फिल्म पूरी तरह से यश पर टिकी हुई है। यश वास्तव में केजीएफ की रीढ़ की हड्डी है। उन्होंने अपने किरदार को ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है। उनका स्टाइल, उनका मैनरिजम, उनका व्यक्तित्व संपूर्ण फिल्म पर भारी है।
वैसे तो उनकी एंट्री ही पैसा वसूल बनाई गई है। संजय दत्त को लेना निर्देशक की तकनीकी गलती रही है। वे एक भी दृश्य में ख़ौफ़ नहीं जगा सके हैं। यदि अग्निपथ में उनके स्वाभाविक अभिनय की तुलना केजीएफ से की जाए तो संजू बहुत कमज़ोर सिद्ध हुए हैं। एक भी दृश्य में वे यश के मुकाबले ठहर नहीं सके हैं। केजीएफ का पहला चैप्टर भी लार्जर देन लाइफ था लेकिन उसमे बहुत कुछ ऐसा था कि दर्शक इससे मन से जुड़ गया था।
फिल्म का दूसरा चैप्टर भी लार्जर देन लाइफ था लेकिन दर्शक इससे मन से नहीं जुड़ता। वह केवल यश की स्टाइल और उसके एक्शन पर मोह जाता है। जब रॉकी क्लाश्निकोव राइफल लेकर संसद भवन में पहुँच जाता है, तब फिल्म पटरी पर से उतर जाती है। दक्षिण के निर्देशकों को अपनी फिल्मों में अतिवाद दिखाने की आदत है। केजीएफ में ये अतिवाद तांडव करता प्रतीत होता है।
दुनिया का सबसे धनवान आदमी बनने की सनक को रॉकी अपनी माँ की इच्छा का नाम देता है। रॉकी के अपराधी बनने के पीछे उसकी माँ की सीख थी, ऐसा जस्टिफिकेशन दर्शक पचा नहीं सकेगा। कुल मिलाकर केजीएफ का द्वितीय अध्याय इसके पहले अध्याय से बहुत अधिक कमज़ोर रह गया है। फिल्म को यश और उनके एक्शन सीक्वेंस बचा ले जाते हैं। पहले दिन फिल्म ने 120 करोड़ से अधिक की ओपनिंग कर डाली है।
किसी भी भारतीय फिल्म की ओपनिंग में ये एक नया कीर्तिमान है। भले ही यश की ये फिल्म कई पहलुओं पर कमज़ोर है लेकिन उनके प्रशंसकों के दम पर ये अपना स्थान बनाने में सफल रही है। पहले दिन ही लागत वसूल कर लेना ये बताता है कि दूसरे दिन से ही निर्माता लाभ कमाने की स्थिति में आ जाएगा। ये केजीएफ के निर्देशक की नहीं बल्कि यश के मैनरिजम और स्टाइल की जीत है।