हेमन्त शर्मा। यतीन्द्र मिश्र Yatindra Mishra मेरे मित्र हैं. अयोध्या के राजकुमार हैं. संगीत, साहित्य और कला के अध्येता हैं. आप जानते हैं हमारे साहित्य और संगीत को राजघरानों ने सरंक्षण दिया. पर यतीन्द्र उन्हें संरक्षित ही नहीं संवर्धित भी करते है.यतीन्द्र के यहाँ न केवल संगीत और कला के साधकों को संरक्षण मिला बल्कि वो ख़ुद भी इस त्रिविधा की सेवा में समर्पित भाव से जुटे रहते हैं. उन्हें मर्द-ए-महफ़िल भी कहा जा सकता है. गीत, कथा, कविता, सिनेमा, संगीत और नृत्य की अलग-अलग धाराओं में यतीन्द्र लोगों को भगीरथ की तरह रास्ता दिखाते नज़र आते हैं. संगोष्ठियाँ हों, पुस्तकें हों, लेखन हो, कला प्रस्तुतियाँ हों, कोई और सांस्कृतिक जुटान हो या फिर डिजिटल और सोशल मीडिया के विविध गलियारे, यतीन्द्र आपको अपनी विद्वता की टॉर्च लेकर उजाला करते मिल जायेंगे.
अयोध्या राजघराने का तो इतिहास रहा है संगीत और कला के संरक्षण का. मशहूर गायिका बेगम अख़्तर इसी घराने की रक्षिता थीं. आज भी यतीन्द्र उस परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं. मेरा उनका सम्बन्ध राजा और प्रजा का है. वे अयोध्या के राजा हैं और मैं वहाँ का रहने वाला हूँ. स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर और गुलज़ार साहब का जीवन वृत लिखने के बाद अब वो फ़िल्मों के मशहूर गानों का इतिहास ऑडियो वीडियो माध्यम से सुना रहे हैं. ये क़िस्से रोचक हैं और इतने पुराने होकर भी लोगों की जानकारी के लिए एकदम नये ही हैं.
यतीन्द्र ने गीतों का इतिहास बताने की शुरुआत “पिया तोसे नैना लागे रे” गीत से की है. राग खमाज,वृंदावनी सारंग, छायानट और गौड़ मल्हार में गाया गया यह गीत 60 साल पुराना है, लेकिन आज भी लगता है कि बिल्कुल तरोताज़ा हो गये. उन्होंने कुल तीस एपिसोड बनाए हैं. यह पहला और दूसरा है. दरअसल, संगीत के दो पक्ष होते हैं- सुर और ताल. ये एक ऐसा गाना है, जिसमें सुर और ताल दोनों को लेकर सचिन दा (सचिन देव बर्मन) ने विलक्षण प्रयोग किए. इन्हीं प्रयोगों का रहस्य बता रहे हैं यतीन्द्र मिश्र.
दरअसल, गुप्त काल हो या सम्राट हर्ष का ज़माना, हर कालखंड में संगीत और साहित्य राज्याश्रयी रहा. मुग़लों के यहाँ तो दरबार में नौ रत्न पालने की परम्परा रही. इसी सिलसिले में मुझे याद आते हैं एक मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले जो इसमें इतने रमे हुए थे कि वे रियासतें भी गायन, वादन के आधार पर देते थे.जो जितना बड़ा गायक वादक उसे खुश हो उतनी बड़ी रियासत नवाज़ देते थे. संगीत और कला के लिए इस बादशाह की दीवानगी आपको चौंकाती भी है, हँसाती भी है और बताती है कि दीवानापन दरअसल होता क्या है. इसलिए आज क़िस्सा संगीत का और बादशाह रंगीले का.
भारतीय संगीत मंदिरों और दरबारों में ही पला बढ़ा. ब्रह्मा से उत्पन्न हो और महादेव से लयबद्ध होकर संगीत पहले मंदिरों में और बाद में दरबारों में दाख़िल हुआ. हालाँकि संगीत का अस्तित्व ब्रह्माण्ड के शुरुआत से माना गया है. ‘नेमि नमंति चक्षषां मेषं विप्रा अभिस्वंरा.’ ऋग्वेद के इस शुरुआती मंत्र में स्वर और गायन के सूत्र मिल जाते हैं. इस मंत्र के मुताबिक गायक वृत्त बनाकर इंद्र के लिए गायन कर रहे हैं. पर सच यह है कि मंदिरों के निर्माण से बहुत पहले ही संगीत के वाद्य बन गये थे. ऐसा वेद कहते हैं. वाद्य स्वरों के लिए सबसे प्राचीन शब्द ‘स्वराति’ है. ‘अव स्वरातति गर्गर:.’ हम भारतीय संगीत के मूल को तलाशने निकले तो सबसे महत्वपूर्ण शब्द यानी ‘स्वर’ तो तुरन्त ही मिल जाता है. पर संगीत की इस यात्रा में मंदिरों का संदर्भ काफ़ी बाद में आता है. वेदों में ‘ऋचा गायन’ और ‘साम गायन’ का अद्भुत संसार बिखरा पड़ा है. इससे एक धारा ‘छंदानुशासन’ और दूसरी पाठानुशासन’ की ओर निकलती है. बाद में सामवेदी परम्परा में गायन के साथ हस्तमुद्राएं भी जुड़ गईं. संस्कृत का एक सूत्र है- गीयते इति गीता. यानी जो गाया जा सके वो गीता है. संस्कृत और हिन्दी का इतिहास भी पद्य का इतिहास है. गद्य से अधिक पुराना और प्रधान. और जहाँ लेखन में छंद होगा, सूत्र होंगे, पद्य होगा, वहाँ संगीत होगा. मंदिरों से भी पुराना इतिहास वैदिक परम्परा का है. इस परम्परा में यज्ञ और अनुष्ठान के लिए जो मंत्र परम्परा है, वो गेय है. ( समलैंगिक नहीं) यानी गाया जा सकने वाला है.
गायन का पहला प्रकार अर्थहीन ध्वनियों का था. यहाँ ध्वनि के प्रतिध्वनन, कर्पण और लालित्य से संगीत उत्पन्न होता था. कुछ-कुछ आज के तराना जैसा. डॉ. राम विलास शर्मा कहते थे कि यह गायन देवताओं को भा गया. उन्होंने कहा, इसे हमारे हवाले किया जाये. गायकों ने उन्हें सार्थक काव्य वाला गायन दिया. इसे देने से मना कर दिया. क्रोधित देवताओं ने संगीत के गुरु नारद को तलब कर कहा कि उस निर्गीत को नष्ट कर दें जो संगीतकार हमें नहीं दे रहे हैं. नारद ने कहा ऐसा पाप ना कीजिए. यह निर्गीत वाद्यों पर आधारित है. अगर यह नष्ट हुआ तो वाद्य भी किसी काम के नहीं रहेंगे. नारद की बात मान ली गई और वाद्य वृंद की अर्थहीन रचना बच गई.
सभ्यता के बनने के साथ हमारा संगीत भी परिष्कृत होता गया. सृष्टि में ध्वनि के साथ ही संगीत आया. देवाधिदेव महादेव के डमरू से इसकी उत्पत्ति हुई. हालाँकि सिलसिलेवार उत्पत्ति ब्रह्मा द्वारा ही मानते हैं. देवाधिदेव महादेव संगीत के पहले शिक्षक थे. उन्होंने इसे पार्वती और सरस्वती को सिखाया. सरस्वती को संगीत और साहित्य की ‘अधिष्ठात्री’ माना गया है. फिर सरस्वती ने नारद को संगीत की शिक्षा दी. नारद ने गंधर्वों को संगीत सिखाया जो पुराण कथाओं में संगीत नृत्य और गायन करने वाले पहले ‘प्रोफ़ेशनल’ थे. वहाँ से ही भरत, नारद और हनुमान आदि ऋषियों ने संगीत कला का प्रचार पृथ्वी पर किया. यह है हमारे संगीत की वैदिक परम्परा.
यतीन्द्र पर लिखते हुए अनायास रंगीले याद आ गए. इसलिए अब बात रंगीले की. इतिहास में झाँकें तो साहित्य, चित्रकला, संगीत और नृत्य को सबसे ज़्यादा बढ़ावा देने वाले शासक हुए मोहम्मद शाह रंगीले. उनके शासनकाल में मुग़ल साम्राज्य का पतन हुआ. राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक कठिनाई, सैन्य असफलताओं में राज्य डूबा था. पर नृत्य संगीत के लिए वह सुनहरा समय था. जो जितना बड़ा गायक-वादक-नर्तक होता बादशाह उसे उतनी बड़ी रियासत सौंप देते. ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान में पैदा हुए मोहम्मद शाह रंगीले, भारत के 13वें मुग़ल सम्राट थे. वे बहादुर शाह प्रथम के पोते और ख़ुजिस्ता अख़्तर शाह के बेटे थे. उनके शासनकाल में निधा मल और चित्रमन जैसे मशहूर चित्रकार हुए. उनकी सरपरस्ती में ख़्याल संगीत शैली लोकप्रिय हुई.
साल 1707 में बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद के 30 वर्षों में, मुग़ल साम्राज्य सिकुड़ गया और दिल्ली राजनीतिक विवाद का केन्द्र बन गई. राजनीतिक साज़िशें ज़ोरों पर थीं. तीन बादशाहों की हत्या कर दी गई. इसके अलावा, एक को पहले गर्म सुई से अन्धा कर दिया गया, दूसरे की माँ का गला घोंट दिया गया, और तीसरे के पिता को एक खाई में नीचे गिरा दिया गया. इस युग के सबसे लम्बे समय तक जीवित रहने वाले शासक, मोहम्मद शाह रंगीले ही थे. रंगीले नाम सुनते ही लगता है जैसे किसी रंगीन मिज़ाज आदमी के लिए कहा गया हो. और मोहम्मद शाह ने भी इस नाम को सादिक़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने किसी भी जंग में हिस्सा नहीं लिया. बल्कि उनका सारा दिन मुर्ग़े लड़ाने, बाज़ीगरी, जादू, देखने में गुज़रता था. दरअसल मोहम्मद शाह के जन्म के वक़्त औरंगज़ेब ने हिंदुस्तान में एक ख़ास क़िस्म का कट्टर इस्लाम लागू कर दिया था. इसका निशाना वो संगीत कलाकार बने जिनके बारे में ये राय थी कि वो इस्लामी उसूलों का पालन नहीं करते. इतालवी यात्री निकोलो मनूची ने लिखा है कि औरंगज़ेब के दौर में जब संगीत पर पाबंदी लगी तो गवैयों और संगीतकारों की रोज़ी-रोटी बन्द हो गई. आख़िर तंग आकर एक हज़ार कलाकारों ने जुमे के दिन दिल्ली की जामा मस्जिद से जुलूस निकाला और बाजों को जनाज़ों की शक्ल में लेकर रोते-पीटते गुज़रने लगे. औरंगज़ेब ने देखा तो पूछा, “ये किसका जनाज़ा ले जाया जा रहा है, किसकी ख़ातिर इस क़दर रोया-पीटा जा रहा है?” उन्होंने कहा, “आपने संगीत का क़त्ल कर दिया है, ये लोग उसे दफ़नाने जा रहे हैं.” औरंगज़ेब ने जवाब दिया, “क़ब्र ज़रा गहरी खोदना”.
भौतिकी का नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. यही नियम इतिहास और मानवीय समाज पर भी लागू होता है कि जिस चीज़ को जितनी सख़्ती से दबाया जाता है वो उतनी ही ताक़त से उभरकर सामने आती है, इसलिए औरंगज़ेब के बाद भी ऐसा ही कुछ हुआ. मोहम्मद शाह के दौर में वो तमाम कलाएं अपनी पूरी ताक़त और उफ़ान के साथ सामने आ गईं जो उससे पहले दब गई थीं. राजकाज, सैन्य-संचालन, राज्य का विस्तार नेपथ्य में चला गया. मोहम्मद शाह के दिन और रात का हाल यही था. सुबह के वक़्त झरोखा दर्शन में जाकर बटेरों या हाथियों की लड़ाइयों से दिल बहलाना. दोपहर के वक़्त बाज़ीगरों, नटों, नक़्क़ालों और भाटों की कला से आनन्द उठाना, शामें नृत्य और संगीत से सराबोर और रातें….आप समझ सकते हैं.
बादशाह को एक और शौक़ भी था. वो अक़्सर ज़नाना लिबास पहनना पसन्द करते थे और बदन पर ज़नाना रेशमी पोशाक पहनकर दरबार में आ जाते. उस वक़्त उनके पाँव में मोती जड़े जूते हुआ करते थे. इसी के चलते उनके नामर्द होने की अफ़वाह भी फैली. मजबूरन उन्हें मर्दानगी साबित करने के लिए एक पेंटिंग बनवानी पड़ी जिसमें उन्हें एक कनीज़ के साथ सेक्स करते हुए दिखाया गया था. किताबों में लिखा है कि नादिर शाह के हमले के बाद वो ज़्यादातर सफ़ेद लिबास पर ही संतोष करने लगे थे.
मोहम्मद शाह रंगीले को यूँ तो एक कमज़ोर बादशाह माना जाता है. लेकिन उनके दौर में दिल्ली दुनिया का सबसे बड़ा शहर था. इसके ऐश्वर्य की ख्याति देश-विदेशों तक फैली थी. दरगाह क़ुली ख़ान उनके एक दरबारी थे जिन्होंने ‘मरकए-दिल्ली’ नाम से एक किताब लिखी. किताब के अनुसार, दिल्ली के आम लोग भी तब ऐश से रहते थे. इसी दौर में दिल्ली में कहवाखाना यानी कॉफ़ी हाउस का चलन शुरू हुआ जहाँ बैठकर लोग शायरी और क़व्वाली सुनते थे. इसी दौर में दिल्ली के अमीरों ने अपने पहनावे में भी बदलाव किया और तुर्क चोगे की बजाय शेरवानी पहनने का चलन शुरू हुआ.
मोहम्मद शाह रंगीले के दौर में हिन्दुस्तानी संगीत को ख़ूब बढ़ावा मिला. ऐसे कई संगीतकारों का ज़िक्र मिलता है जो शाही दरबार से संबंध रखते थे. उनमें अदारंग और सदारंग सबसे नामी हैं जिन्होंने ख़्याल-तर्ज़-ए-गायकी को नया मुकाम दिया. इससे पहले दिल्ली में ध्रुपद गाया जाता था. क़ुली ख़ान लिखते हैं, ‘ख़ुदा रंग के नाख़ून जैसे ही साज़ के तारों को छूते हैं, दिलों में एक हुक सी उठती है और उसकी आवाज़ मानो अपने साथ बदन से जान लेकर चली जाती है’. उसी दौर की यह बंदिश आज भी गाई जाती है, ‘मोहम्मद शाह रंगीले सजना, तुम बिन कारी बदरिया तन ना सुहाए. क़ुली ख़ान ने दर्जनों क़व्वालों, ढोलक नवाज़ों, पिखलोजियों, धमधी नवाज़ों, सबूचा नवाज़ों, नक़्क़ालों, यहाँ तक कि भाटों तक का ज़िक्र किया है जो शाही दरबार से बावस्ता थे. मरक़ए दिल्ली में लिखा है, “जिस किसी को उसकी महफ़िल का चस्का लगा उसका घर बर्बाद हुआ और जिस दिमाग़ में उसकी दोस्ती का नशा समाया वो बगुले की तरह चक्कर काटता रहता. एक दुनिया ने अपनी पूँजी खपा दी और अनगिनत लोगों ने उस काफ़िर की ख़ातिर सारी दौलत लुटा दी”.
दरग़ाह क़ुली ख़ान एक और तवायफ़ अद बेगम का हैरतअंगेज़ हाल कुछ यूँ बयाँ करते हैं- “अद बेगम दिल्ली की मशहूर बैगम हैं जो पायजामा नहीं पहनतीं, बल्कि अपने बदन के निचले हिस्से पर पायजामों की तरह फूल-पत्तियाँ बना लेती हैं. ऐसी फूल-पत्तियाँ बनाती हैं जो बुने हुए रोमन थान में होती हैं. इस तरह वो अमीरों की महफ़िल में जाती हैं और कमाल ये है कि पायजामे और उस नक़्क़ाशी में कोई फ़र्क़ नहीं कर पाता. जब तक उस राज़ से पर्दा ना उठे कोई उनकी कारीगरी को नहीं भाँप सकता. “ये मीर तक़ी मीर की जवानी का ज़माना था. मीर ने संभव है कि ये शेर अद बेगम से ही प्रभावित होकर कहा हो- ‘जी फट गया है रश्क से चस्पाँ लिबास के, क्या तंग जामा लिपटा है उसके बदन के साथ.’
रंगीले के ज़माने में हिंदुस्तान सैन्य लिहाज़ से कमज़ोर था. पर माल-ओ-दौलत से भरा हुआ था. गिरावट के बावजूद अब भी काबुल से लेकर बंगाल तक मुग़ल शहंशाह का सिक्का चलता था. उनकी राजधानी दिल्ली उस समय दुनिया का सबसे बड़ा शहर था जिसकी बीस लाख नफ़ूस पर शामिल आबादी लंदन और पेरिस की संयुक्त आबादी से ज़्यादा थी और उसका शुमार दुनिया के अमीर तरीन शहरों में किया जाता था. रंगीले अपने नृत्य, संगीत में इतने खोये थे कि उन्हें सैन्य रणनीतिक सूचनाएं भी नहीं होती थीं. 1739 में नादिर शाह ख़ैबर दर्रे को पार कर हिंदुस्तान में दाख़िल हो गया. पर रंगीले को पता ही नहीं चला. एक रोज़ बादशाह अपनी आरामगाह में पसरे हुए थे. शराब और नाच का दौर चल रहा था. अचानक एक हरकारा दौड़ता हुआ आया और बादशाह को एक चिट्ठी पकड़ाई. बेहद ज़रूरी सन्देश ली हुई इस चिठ्ठी को बादशाह ने पकड़ा और शराब के प्याले में डुबोते हुए अर्ज़ किया- आईने दफ़्तार-ए-बेमाना ग़र्क-ए-मय नाब उला. यानी, बिना मतलब की चिट्ठी को तो दारू में डुबा देना ही बेहतर है. ये देखकर हरकारे के पसीने छूटने लगे. उसने दरख़्वास्त की, ‘हुज़ूर! नादिर शाह पहुँचने वाला है.’ रंगीले के कान में जूँ तक न रेंगी. बोतल से प्याले में शराब उड़ेलते हुए बादशाह बोले, ‘हनूज़ दिल्ली दूर अस्त’, यानी अभी दिल्ली बहुत दूर है. लेकिन न दिल्ली दूर थी, न नादिर शाह ही फ़ौज. कहते हैं कि मोहम्मद शाह को जब भी सूचना दी जाती कि नादिर शाह की फ़ौजें आगे बढ़ रही हैं तो वो यही कहते, ‘हनूज़ दिल्ली दूर अस्त यानी अभी दिल्ली बहुत दूर है, अभी से फ़िक्र की क्या बात है.’
जब नादिर शाह दिल्ली से सौ मील दूर पहुँच गया तो इस मुग़ल शहंशाह को ज़िंदगी में पहली बार अपनी फ़ौजों का नेतृत्व स्वयं करना पड़ा. यहाँ भी हालात ऐसे कि उनके लश्कर की कुल तादाद लाखों में थी, जिसका बड़ा हिस्सा बावर्चियों, संगीतकारों, नर्तकों, साजिन्दों, कुलियों, सेवकों, ख़जांचियों और दूसरे नागरिक कर्मचारियों का था जबकि लड़ाका फ़ौज महज़ एक लाख के आस-पास ही थी. उसके मुक़ाबले ईरानी फ़ौज सिर्फ़ 55 हज़ार की थी. पर दोनों में फ़र्क था. कहाँ जंगों में पले नादिर शाही लड़ाका दस्ते और कहाँ हँसी-खेल में धुत मुग़ल सिपाही. करनाल के मैदान में सिर्फ़ तीन घंटों में फ़ैसला हो गया और नादिर शाह, मोहम्मद शाह ‘रंगीले’ को क़ैदी बनाकर दिल्ली के विजेता की हैसियत से शहर में दाख़िल हुआ.
नादिर शाह ने कुल कितनी दौलत लूटी? इतिहासकारों के एक अनुमान के मुताबिक़, उसकी मालियात उस वक़्त 70 करोड़ रुपये की थी जो आज के हिसाब से 156 अरब डॉलर बनते हैं. यानी दस लाख पचास हज़ार करोड़ रुपये. ये मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी सशस्त्र डकैती थी. कहते हैं कि पगड़ी बदलकर भाई बनाने की रस्म की आड़ में नादिर शाह ने मोहम्मद शाह रंगीले से बेशक़ीमती ‘कोहिनूर’ हीरा हड़प लिया. नादिर शाह को दिल्ली की एक तवायफ़ नूर बाई ने, ख़ुफ़िया तौर पर बता दिया था कि ये सब कुछ जो तुमने हासिल किया है, वो उस चीज़ के आगे कुछ भी नहीं है जिसे मोहम्मद शाह ने अपनी पगड़ी में छुपा रखा है. नादिर शाह घाघ था और घाट-घाट का पानी पिए हुए था. उसने मौक़े पर चाल चली. उसने मोहम्मद शाह से कहा, “ईरान में रस्म है कि भाई ख़ुशी के मौक़े पर आपस में पगड़ियाँ बदल देते हैं, आज से हम भाई-भाई बन गए हैं, तो क्यों न इसी रस्म को अदा किया जाए.” मोहम्मद शाह के पास सर झुकाने के अलावा कोई चारा नहीं था. नादिर शाह ने अपनी पगड़ी उतारकर उसके सर रखी, और उसकी पगड़ी अपने सर. और यूँ दुनिया का मशहूर हीरा कोहिनूर हिंदुस्तान से निकलकर ईरान पहुँच गया.
56 दिन दिल्ली में रहते भरपूर लूटपाट के बाद नादिर शाह के वापस ईरान लौटने का वक़्त आ गया. और अब वो हिंदुस्तान की बागडोर दोबारा मोहम्मद शाह ‘रंगीले’ के हवाले करना चाहता था. नादिर शाह ने सदियों से जमा मुग़ल ख़जाने में झाड़ू फेर दी थी और शहर के तमाम अमीर और प्रभावशाली लोगों की जेबें उलटा ली थीं.
मुग़लों की दरबारी और सरकारी ज़बान फ़ारसी थी. लेकिन जैसे-जैसे दरबार की गिरफ़्त आम लोगों की ज़िंदगी पर ढीली पड़ती गई, लोगों की ज़बान उर्दू ऊपर आने लगी. इसलिए मोहम्मद शाह रंगीले के दौर को उर्दू शायरी का सुनहरा दौर कहा जा सकता है. उस दौर की शुरुआत ख़ुद मोहम्मद शाह के तख़्त पर बैठते ही हो गई थी जब बादशाह के साल-ए-जुलूस यानी 1719 में वली दक्कनी का दीवान दक्कन से दिल्ली पहुँचा. उस दीवान ने दिल्ली की ठहरी हुई अदबी झील में ज़बरदस्त तलातुम पैदा कर दिया और यहाँ के लोगों को पहली बार पता चला कि उर्दू (जिसे उस ज़माने में रेख़्ता, हिंदी या दक्कनी कहा जाता था) में यूँ भी शायरी हो सकती है.
बेतहाशा शराब पीने और अफ़ीम की लत ने मोहम्मद शाह को अपनी सल्तनत की ही तरह अंदर से खोखला कर दिया था, इसीलिए उन की उम्र छोटी ही रही. अभी 46 बरस को ही पहुँचे थे कि एक दिन अचानक ग़ुस्से का दौरा पड़ा. उन्हें उठाकर हयात बख़्श बाग़ भेज दिया गया, लेकिन ये बाग़ भी बादशाह की ज़िंदगी की घड़ियाँ लम्बी नहीं कर सका और वो सारी रात बेहोश रहने के बाद अगले दिन चल बसे. उन्हें निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार पर अमीर ख़ुसरो के बराबर में दफ़न किया गया.
ज़ाहिर है कि बाबर, अकबर या औरंगज़ेब के मुक़ाबले मोहम्मद शाह कोई फ़ौजी जनरल नहीं था और नादिर शाह के ख़िलाफ़ करनाल के अलावा उसने किसी जंग में सेना का नेतृत्व नहीं किया था. न ही उनमें जहाँबानी व जहाँग़ीर की वो ताक़त और ऊर्जा मौजूद थी जो पहले मुग़लों का ख़ासा (स्वभाव, ख़ूबी) थी. वो मर्द-ए-अमल नहीं बल्कि मर्द-ए-महफ़िल थे और अपने परदादा औरंगज़ेब के मुक़ाबले में युद्ध की कला से ज़्यादा लतीफ़े की कला के प्रेमी थे. मुग़ल सल्तनत के पतन की ज़िम्मेदारी मोहम्मद शाह रंगीले पर ही डाली जाती है.
सब कहने के बावजूद प्रतिकूल हालात, बाहरी हमलों और ताक़तवर दरबारियों की साज़िशों के दौरान मुग़ल सल्तनत की बिखरी हुई चीज़ों को संभालकर रखना ही मोहम्मद शाह की सियासी कामयाबी का सबूत है. उनसे पहले सिर्फ़ दो मुग़ल बादशाह अकबर और औरंगज़ेब ही हुए हैं जिन्होंने मोहम्मद शाह से लंबी हुकूमत की. दूसरी तरफ़ मोहम्मद शाह को आख़िरी ताक़तवर मुग़ल बादशाह भी कहा जा सकता है. वरना उनके बाद आने वाले बादशाहों की हैसियत दरबारियों, रोहिल्लों, मराठों और आख़िर में अंग्रेज़ों की कठपुतलियों से ज़्यादा कुछ नहीं थी. सारी रंगीनियाँ और रंगरेलियाँ अपनी जगह, लेकिन मोहम्मद शाह रंगीले ने हिंदुस्तान की गंगा- जमनी तहज़ीब और कलाओं को बढ़ावा देने में जो किरदार अदा किया, उसे नज़रअंदाज़ करना नाइंसाफ़ी होगी.
बहरहाल, बादशाह से फिर राजकुमार पर. यतीन्द्र जैसे-जैसे गानों का इतिहास भेजेगें, हम आपको सुनाते रहेंगे.
जय जय