हेमंत शर्मा । चैत्र प्रतिपदा, यानी गुड़ी पड़वा, अपना न्यू ईयर, नवीनता का पर्व। हम यह मानते हैं कि दुनिया इसी रोज बनी थी। यह हमारा नया साल है, लेकिन अपना यह नववर्ष रात के अँधेरे में नहीं आता। हम नववर्ष पर सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हैं। जबकि पश्चिम में घुप्प अँधेरे में नए साल की अगवानी होती है। हमारे नए साल का तारीख से उतना संबंध नहीं है, जितना मौसम से है। उसका आना सिर्फ कलेंडर से पता नहीं चलता। प्रकृति झकझोरकर हमें चौतरफा फूट रही नवीनता का अहसास कराती है। पुराने पीले पत्ते पेड़ से गिरते हैं। नई कोंपलें फूटती हैं।
प्रकृति अपने शृंगार की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, नीले, गुलाबी फूल खिलते हैं। ऐसा लगता है कि पूरी-की-पूरी सृष्टि नई हो गई है। नव गति, नव लय, ताल, छंद, नव; सब नवीनता से लबालब। जो कुदरत के इस खेल को नहीं समझते, वे न समझें। जो नहीं समझे, उनके लिए फरहत शहजाद की एक गजल भी है, जिसे मेंहदी हसन ने गाया था—कोंपलें फिर फूट आईं, शाख पर कहना उसे/वो न समझा है, न समझेगा मगर कहना उसे।हम दुनिया में सबसे पुरानी संस्कृति के लोग हैं। इसलिए समझते हैं कि ऋतुचक्र का घूमना ही शाश्वत है, जीवन है।
तभी हम इस नए साल के आने पर वैसी उछल-कूद नहीं करते, जैसी पश्चिम में होती है। हमारे स्वभाव में इस परिवर्तन की गरिमा है। हम साल के आने और जाने दोनों पर विचार करते हैं। पतझड़ और बसंत साथ-साथ। इस व्यवस्था के गहरे संकेत हैं। आदि-अंत, अवसान-आगमन, मिलना-बिछुड़ना, पुराने का खत्म होना, नए का आना।
सुनने में चाहे भले यह असगंत लगे। पर हैं साथ-साथ, एक ही सिक्के के दो पहलू। जीवन का यही सार हमारे नए साल का दर्शन है।काल को पकड़ उसे बाँटने का काम हमारे पुरखों ने सबसे पहले किया। काल को बाँट दिन, महीना, साल बनाने का काम भारत में ही शुरू हुआ। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर भी मानते हैं—‘आकाश मंडल की गति, ज्ञान, काल निर्धारण का काम पहले-पहल भारत में हुआ था।’ ऋग्वेद कहता है, ‘ऋषियों ने काल को बारह भागों और तीन सौ साठ अंशों में बाँटा है।’ वैज्ञानिक चिंतन के साथ हुए इस बँटवारे को बाद में ग्रेगेरियन कलेंडर ने भी माना।
आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त ने छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी काल की इकाई को पहचाना। बारह महीने का साल और सात रोज का सप्ताह रखने का रिवाज विक्रम संवत् से शुरू हुआ।वीर विक्रमादित्य उज्जयिनी का राजा था। शकों को जिस रोज उसने देश से खदेड़ा, उसी रोज से विक्रम संवत् बना। इतिहास देखने से लगता है कि कई विक्रमादित्य हुए। बाद में यह पदवी हो गई। पर लोकजीवन में उसकी व्याप्ति न्यायपाल के नाते ज्यादा है। उसकी न्यायप्रियता का असर उस सिंहासन पर भी आ गया था, जिस पर वह बैठता था।
जो उस सिंहासन पर बैठा, गजब का न्यायप्रिय हुआ। लोक में शकों से विक्रमादित्य के युद्ध की कथा नहीं, उसके सिंहासन की चलती है।विक्रम संवत् से 6667 ईसवी पहले सप्तर्षि संवत् यहाँ सबसे पुराना संवत् माना जाता था। फिर कृष्ण जन्म से कृष्ण कलेंडर, उसके बाद कलि संवत् आया। विक्रम संवत् की शुरुआत 57 ईसा पूर्व में हुई। इसके बाद 78 ईसवीं में शक संवत् शुरू हुआ। भारत सरकार ने शक संवत् को ही माना है। विक्रम संवत् की शुरुआत सूर्य के मेष राशि में प्रवेश से मानी जाती है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही चंद्रमा का ‘ट्रांजिशन’ शुरू होता है।
इसलिए चैत्र प्रतिपदा चंद्रकला का पहला दिन होता है। मानते हैं कि इस रोज चंद्रमा से जीवनदायी रस निकलता है, जो औषधियों और वनस्पतियों के लिए जीवनप्रद होता है। इसीलिए वर्ष प्रतिपदा के साथ ही वनस्पतियों में जीवन भर आता है।चंद्रवर्ष 354 दिन का होता है। यह भी चैत्र से शुरू होता है। सौरमास में 365 दिन होते है। दोनों में हर साल दस रोज का अंतर आ जाता है। ऐसे बढ़े हुए दिनों को ही ‘मलमास’ या ‘अधिमास’ कहते हैं। कागज पर लिखे इतिहास से नहीं, परंपरा से हमारी दादी वर्ष प्रतिप्रदा से ही नया वर्ष मानती थीं। यही संस्कार मुझमें है।
जिस कारण मैं अपने बच्चों को आज भी तिथि-ज्ञान देता रहता हूँ। हमारी परंपरा में नया साल खुशियाँ मनाने का नहीं, प्रकृति से मेल बिठा खुद को पुनर्जीवित करने का पर्व है। तभी तो नए साल के मौके पर नीम की कोंपलें काली मिर्च के साथ चबाने का खास महत्त्व था। ताकि साल भर हम संक्रमण या चर्मरोग से मुक्त रहें। इस बड़े देश में हर वक्त, हर कहीं, एक सा मौसम नहीं रहता। इसलिए अलग-अलग राज्यों में स्थानीय मौसम में आनेवाले बदलाव के साथ नया साल आता है। वर्ष प्रतिप्रदा भी अलग-अलग जगह थोड़े अंतराल पर मनाई जाती है।
कश्मीर में इसे ‘नवरोज’ तो आंध्र और कर्नाटक में ‘उगादि’, महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’, केरल में ‘विशु’ कहते हैं। सिंधी इसे ‘झूलेलाल जयंती’ के रूप में ‘चेटीचंड’ के तौर पर मनाते हैं। तमिलनाडु में ‘पोंगल’, बंगाल में ‘पोएला बैसाख’ और गुजरात में दीपावली पर नया साल मनाते हैं।कहते हैं—ब्रह्मा ने चैत्र प्रतिप्रदा के दिन ही दुनिया बनाई। भगवान् राम का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ था। महाराज युधिष्ठिर भी इसी दिन गद्दी पर बैठे थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदू पद पादशाही की स्थापना इसी दिन की।
परंपरा से धड़कते ‘पोएला वैशाख’ की महिमा लाल से लाल मार्क्सवादी भी मानते हैं। बंगाल की संस्कृति में रचे-बसे इस पर्व के रास्ते कभी मार्क्स ने बाधा नहीं डाली।सैकड़ों सालों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत् प्रयोग में आते रहे। इससे काल निर्णय में अनेक भ्रम हुए। अरब यात्री अलबरुनी के यात्रा वृत्तांत में पाँच संवतों का जिक्र है। श्री हर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ और गुप्त संवत्। प्रो. पांडुरंग वामन काणे अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में लिखते हैं—‘विक्रम संवत् के बारे में कुछ कहना कठिन है।’ वे विक्रमादित्य को परंपरा मानते हैं।
पर कहते हैं, ‘यह जो विक्रम संवत् है, वह ई.पू. 57 से चल रहा है और सबसे वैज्ञानिक है।’ अगर न होता तो पश्चिम के कलेंडर में यह तय नहीं है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण कब लगेंगे, पर हमारे कलेंडर में तय है कि चंद्रग्रहण पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण अमावस्या को ही लगेगा।जो भी हो—परंपरा, मौसम और प्रकृति के मुताबिक ‘वर्ष प्रतिपदा’ नए सृजन, वंदन और संकल्प का उत्सव है। मौसम बदलता है, शाम सुरमई होती है, रात उदार होती है। जीवन का उत्सव मनाते कहीं रंग होता है, कहीं उमंग। इसलिए इस नए साल की परंपरा, नूतनता और इसके पावित्र्य का स्वागत कीजिए