विकास थपलियाल। महर्षि पतंजलि-‘योगष्चित्तवृत्तिनिरोध:’ यो.सू.1/2अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्त:करण से है। बाह्मकरण ज्ञानेन्द्रियां जब विषयों का ग्रहण करती है, मन उस ज्ञान को आत्मा तक पहुँचाता है। आत्मा साक्षी भाव से देखता है। बुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण क्रिया से चित्त में जो प्रतिबिम्ब बनता है, वही वृत्ति कहलाता है।
यह चित्त का परिणाम है। चित्त दर्पण के समान है। अत: विषय उसमें आकर प्रतिबिम्बत होता है अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।
योग के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि ने आगे कहा है-‘तदा द्रश्टु: स्वरूपेSवस्थानम्।। 1/3 अर्थात योग की स्थिति में साधक (पुरूष) की चित्तवृत्ति निरू़द्धकाल में कैवल्य अवस्था की भाँति चेतनमात्र (परमात्म ) स्वरूप रूप में स्थित होती है।
महर्षि पतंजलि ने योग को दो प्रकार से बताया है- 1. सम्प्रज्ञात योग 2.असम्प्रज्ञात योग सम्प्रज्ञात योग में तमोगुण गौणतम रूप से नाम रहता है। तथा पुरूष के चित्त में विवेक-ख्याति का अभ्यास रहता है। असम्प्रज्ञात योग में सत्त्व चित्त में बाहर से तीनों गुणों का परिणाम होना बन्द हो जाता है तथा पुरुष शुद्ध कैवल्य परमात्मस्वरूप में अवस्थित हो जाता है।