गुरू के जीवन का संक्षिप्त रेखा चित्र
श्वेता पुरोहित –
जब लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं योगियों की असाधारण शक्तियों पर विश्वास करता हूँ तो मेरा हमेशा यही उत्तर होता है- शत प्रतिशत । किंतु दूसरे प्रश्न कि क्या मैं सभी संतों की असाधारण शक्तियों पर शत प्रतिशत विश्वास करता हूँ तो मेरा उत्तर हमेशा ही ‘नहीं’ में है। योगी-योगी के बीच में यह अंतर होता है कि कुछ तो सच्चे संत होते हैं और कुछ छद्म या फिर कुछ छोटे स्तर के संत । पहले मैं असामान्य शक्तियों वाले संतों की विशेषता सरसरी तौर पर बताता हूँ:
१. मंत्रदृष्टा’: कौन सा मंत्र किसके लिए उपयुक्त होगा यह ‘देखा’ जा सकता है किंतु केवल ऐसे संत के द्वारा जिसमें इसे ‘देखने’ की शक्ति होती है। कैसे पता चलता है कि किसी संत विशेष में यह शक्ति है या नहीं ? यह एक कठिन प्रश्न है जिसका उत्तर में एक विरोधाभास दिखाकर, अपने तरीके से दे सकता हूँ। लोगों के लिए इसका ज्ञान अत्यंत कल्याणकारी होगा।
अमेरिका में मैंने हर्षल, प्लूटो और नेपच्यून के भी मंत्र देखे। हिंदू ज्योतिष में इनकी मान्यता नहीं हैं। ऐसे गढ़े हुए मंत्रों में कोई दैवी शक्ति नहीं होती बल्कि ये किसी के दिमाग से निकले घास-भूसे के ढेर मात्र हैं।
जब मुझे अपने गुरू जी से दीक्षा मिली थी तब मुझसे कहा गया था कि वह केवल वही मंत्र देंगे जो दीक्षा के समय उनके सामने प्रकट होगा। उन्होंने मुझे कृष्ण का एक मंत्र दिया जबकि उनकी या किसी अन्य की जानकारी में यह बिल्कुल नहीं था कि भगवान कृष्ण एवं वृंदावन मुझे सर्वाधिक प्रिय रहे हैं। उनके समक्ष मंत्र के प्राकट्य की बात को स्वीकार करना मेरे लिए कटिन था क्योंकि इससे गुरू के समक्ष मंत्रों के प्रकट होने के बारे में मेरे गुरू भाइयों के दावे का खंडन या मंडन नहीं होता था। बाद में मुझे अनेकों रोचक अनुभव हुए। पहला अनुभव था जब मेरी अपनी बड़ी बहन शरद ने, जो एक संस्कृत की विदुषी थी, मेरे गुरू जी बहन शरद ने, दीक्षा लेनी चाही, यद्यपि वह अपने जप के लिए कहीं से कृष्ण का एक मंत्र ग्रहण कर चुकी थी। उसे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ जब गुरू जी ने उसको वही मंत्र दिया।
२. अपने आश्रम प्रवास के दौरान कम से कम तीन बार मैं कुछ ऐसे लोगों से मिला जिन्होंने एक दशक से भी अधि एक पहले गुरू जी से दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने दीक्षा लेकर जाने के बाद, कठोर निषेध के बावजूद मांसाहारी भोजन खाया, दीक्षा में प्राप्त मंत्र को भूल गए और भयंकर मुसीबतों में फंस जाने के बाद भूले हुए मंत्र को पुनः पाने की प्रार्थना लेकर गुरु जी का “आशीर्वाद” पाने की इच्छा से फिर आए।
वे गुरू जी से सीधे यह अनुरोध करने में डरते थे। उन्हें बताया गया कि केवल ‘यदि राव दादा गुरू जी से निवेदन करें तो शायद कुछ किया जा सकता है।
जब मैं किसी के केस की वकालत करता था तो गुरू जी मेरी बात को अक्सर बहुत ध्यान से सुनते थे।
ऐसे एक अवसर पर, जब मैंने गुरू जी से प्रार्थना की तो वे बोले कि ऐसे व्यक्ति की मदद करने की कोई आवश्यकता नहीं है जो अपने दिए गए मंत्र के प्रति गंभीर नहीं होता। किंतु फिर मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि उन्होंने इतने लोगों को और इतनी शीघ्र बिना ‘देखे हुए’ दीक्षा क्यों दी? क्या वे दीक्षा देने के लिए सुयोग्य थे? एक तरह से मैंने इसे उस मार्गभ्रष्ट शिष्य की नहीं अपितु स्वयं गुरू जी की गलती की तरह इंगित किया। एक सच्चे गुरू को बहुत अधिक शिष्यों को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। इसके कारण बाद में बताए गए हैं।
उन सभी को न केवल पुनर्दीक्षा दी गई बल्कि मंत्र भी वही दिए गए जो उन्हें पहले दिए गए थे। वे सब अत्यंत भावविभोर एवं विस्मित हुए और मुझसे बोले कि उन्हें गुरु जी के ‘मंत्रादृष्ट’ होने में किंचित भी संदेह नहीं है। बहुतों को तो गुरु जी द्वारा पहले स्वप्न में दीक्षा दे दी गई और फिर जब वह औपचारिक दीक्षा के लिए आए तो उन्हें ठीक वही मंत्र मिला।
मेरे पास ‘मंत्रदृष्टा’ का यह एक मात्र जीवंत प्रमाण है। जब मैंने एक गुरू भाई से इस पर चर्चा की तो उसने बताया कि उसे यह हमेशा से मालूम था क्योंकि उसे काली-मंत्र दिया गया था जबकि उसकी पत्नी क्यों किण उत्रा पत्नी ने जब गुरु जी से इस बात पर प्रतिवाद किया कि उन्हें उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा, “क्या अपने जीवन भर तुम्हारे पति काली की और तुम वृंदावन के कृष्ण की पूजा नही करती रही हो?”
इसके विपरीत मैं ऐसे बहुतों से मिला हूँ जो स्वयं अपने लिए या फिर उनके शिष्य उनके लिए ऐसे दावे करते थे। लेकिन उनमें से नागपुर का एक व्यक्ति तो निरा धोखेबाज सिद्ध हुआ और जेल जाते-जाते बचा। दूसरे, पूर्वी प्रांत में ऐसे ही एक अन्य धूर्त ने नौ मंत्रों का एक सेट बना रखा था जो वह अपने शिष्यों को देता था-किसी को दो, किसी को तीन और जो ‘अधिक सुयोग्य’ थे उन्हें तो पूरे नौ मंत्र। मैंने उससे ये सभी नौ मंत्र लिखित में लिए। मैंने पाया कि उनमें से छः तो पूरी तौर से अशुद्ध थे। लेकिन कुछ असामान्य शक्तियों वाले इस गुरू को न तो इस बात की चिंता थी कि जो मंत्र वह दे रहा है वे सही हैं या नहीं और न ही उसमें यह शिष्टता थी कि किसी संस्कृत पंडित से उन मंत्रों की संस्कृत व्याकरण ठीक करवा ले।
लेकिन मेरे अपने गुरू जी ने, जैसे कि मैंने और भी कई देखे थे, तमाम लोगों को दीक्षा दी थी जब तक कि मैंने उसका जोरदार विरोध नहीं किया। तब उन्होंने मुझे स्पष्टीकरण दिया….।
मैंने ऐसे बहुत से गुरूओं को अपने शिष्यों को गाजर मूली बाँटने की तरह संन्यास देते हुए देखा है। उनमे से एक तो, जिसे यह भी नहीं पता कि शिष्य को संन्यास में कैसे दीक्षित किया जाता है, एक संस्कृत जानने वाले गृहस्थ की मदद लेता है। जब उसके एक संन्यासी शिष्य ने किसी विषय पर मतभेद के कारण अपनी बात पर जोर दिया तो उस गुरु ने न केवल उसे आश्रम से बाहर निकाल दिया बल्कि यहाँ तक कहा कि उसने उसे कभी भी संन्यास में दीक्षित नहीं किया। मैं नहीं जानता कि सच क्या है, परंतु इतना घटिया संन्यास मैंने भारत में कई स्थानों में देखा है। मेरे गुरु जी कभी किसी को संन्यास की दीक्षा नहीं देते
थे क्योंकि वह तीन बातों के बारे में बिल्कुल स्पष्ट थेः
१. शुद्ध, सात्त्विक, शाकाहारी भोजन आध्यात्मिक जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है।
२. पूजा भक्त और भगवान के बीच गुप्त वार्तालाप है और इस के लिए किसी भी बाह्य चिन्ह जैसे कि पुषपहार, इस के लिाला (सुमिरनी) या गंडा आदि का दिखावा नहीं करना चाहिए।
३. संन्यास के संबंध में उनका विचार था कि केवल सुयोग्य संन्यास के ही इसकी दीक्षा देनी चाहिए। ऐसे व्यक्ति बड़े दुर्लभ होते हैं। संन्यास भौतिक संसार में मृत्युतुल्य अस्तित्त्व की स्थिति है, और इसका पालन करना मनुष्य के लिए अत्यंत दुषकर है।
लेकिन फिर उन्होंने इतने लोगों को दीक्षा क्यों दी? उनका उत्तर था कि समय बीतने के साथ व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से उन्नति करता है। प्रारंभ में अपने गुरू भाइयों और गुरू बहनों के साथ हुए कटु अनुभवों के कारण इस तर्क को गले उतारने में मुझे बहुत परेशानी हुई। बाद में मैंने इसे स्वीकार कर लिया क्योंकि उनमें से कुछ एक लोग युवावस्था के अपेक्षाकृत विक्षुब्ध समय के बाद अत्यंत शांत, प्रकृतिस्थ, मननशील एवं श्रेष्ठ मनुष्य बन गए थे।
यहाँ जो कुछ भी कहा गया है उससे मेरे गुरू जी ब्रह्मलीन स्वामी परमानंद सरस्वती की जन्म कुंडली पर चर्चा के लिए पूर्वपीठिका बनती है। भारत के किसी भी सच्चे एवं वास्तविक संत की तरह उन्होंने ज्योतिष के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। ऐसा उन्होंने किसी धनलोलुपता वश नहीं किया अपितु इसके पीछे उनके दो उद्देश्य थे-एक तो महान वैदिक विरासत को जीवित रखना और दूसरा, प्रयोगात्मक रूप से यह देखना कि ग्रहों के माध्यम से ईश्वर किस प्रकार ब्रह्मांड को नियंत्रित, नियमित एवं निर्देशित करता है। मैंने काफी पहले ही ज्योतिष छोड़ दिया होता किंतु उन्होंने जोर दिया कि मुझे कम से कम अपनी साधना के लिए इसे नहीं छोड़ना चाहिए। ज्योतिषीय लेखन से मेरा विषयांतर होना और भविषयवक्ता बनना-उन्होंने यह पहले ही ‘देख’ लिया था और तीस वर्षों से भी अधिक पहले एक गुरु भाई को ज्योतिताया भी था ऐसा कइयों का मानना है। यह मेरे ज्योतिष पर पहला लेख लिखने का मानना है भी से अधिक पहले की बात है। वह अत्यंत सच्चे उस्यों में एक दृष्टा ये और जिनसे में मिला उनमें महावत अथ्य, यद्यपि उन अन्य लोगों की भी अपने गुरूओं के प्रति वैसी ही शुद्ध-पवित्र, श्रद्धा एवं सम्मान की भावनायें होंगी, जो वास्तविक महान गुरुओं को प्राप्त करके मेरे समान ही सौभाग्यशाली हैं।
जय गुरुदेव 🙏
श्री के० एन० राव जी की योगी प्रारब्ध एवं कालचक्र पुस्तक का एक अंश-
क्रमशः..