‘तांडव’ फिल्म के निर्माता-निर्देशक के लिए सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई किसी सदमे से कम नहीं रही। वे सोच भी नहीं सकते थे कि सर्वोच्च न्यायालय उनको गिरफ्तारी से बचने के लिए कोई आश्वासन नहीं देगा। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने फिल्मों को लेकर ऐतिहासिक सुनवाई की है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया कि वह फिल्म निर्माताओं और निर्देशक की अग्रिम ज़मानत पर कोई राहत नहीं देगा।
कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि देश भर में दाखिल की जा रही एफआईआर को भी वह रद्द नहीं करेगा। कोर्ट ने इसके लिए टीम तांडव को उच्च न्यायालय जाने के निर्देश दिए हैं। केस में लगी धाराओं को देखा जाए तो इतनी शक्तिशाली नहीं है कि आरोपियों को जेल भेज सके लेकिन उत्तरप्रदेश की सरकार ने जो ट्रीटमेंट इस केस के साथ किया, वह प्रशंसनीय है। ऐसा ट्रीटमेंट मध्यप्रदेश सरकार के गृहमंत्री डॉ.नरोत्तम मिश्रा नहीं कर सके।
उन्होंने प्रयास तो किये लेकिन लगता है उनके मुखिया ने इस केस में ऐसी रुचि नहीं ली, जैसी योगी आदित्यनाथ ने दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी स्क्रिप्ट नहीं लिखनी चाहिए, जिससे भावनाएँ आहत हों। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने टीम तांडव के खिलाफ दर्ज सारे मामलों को जोड़ने का नोटिस भी जारी कर दिया है।
संभवतः न्यायालय को ये समझ आया है कि इस देश में किसी को भी धार्मिक भावनाएं आहत करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता, चाहे वह कला का क्षेत्र क्यों न हो। विगत वर्षों में भारत की सरकारों ने बॉलीवुड को जो अनावश्यक छूट प्रदान कर रखी थी, उसका रिफ्लेक्शन कोर्ट के निर्णयों में भी दिखाई देता था। हमें याद नहीं पड़ता कि पिछले दशकों में कभी न्यायालय ने याचिकाकर्ता के हक में फैसला दिया हो।
ऐसे मामलों में बॉलीवुड क़ानूनी लड़ाई जीतकर आता रहा है। अधिक पीछे न जाए तो ‘पद्मावत प्रकरण’ को आप भूले नहीं होंगे। न्यायालय ने उस फिल्म को सुरक्षा के साथ प्रदर्शित करने के निर्देश राज्य सरकारों को दिए थे। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद ‘टीम तांडव’ के अधिकांश सदस्य इस जुगाड़ में लगे हैं कि किसी तरह उन्हें अग्रिम ज़मानत मिल जाए। हालांकि अब ज़मानत मिलना तो मुश्किल दिखाई दे रहा है।
हां ये अवश्य है कि गिरफ्तारी के बाद इन लोगों को थाने से ही ज़मानत मिल जाए। इसे मैं अहंकार के ध्वस्त होने का संकेत मान रहा हूँ। इतना होने के बाद भी जीशान अय्यूब जैसे अभिनेता थाने में पेश होना नहीं चाहते। एक दिन की गिरफ्तारी को टालने के लिए उनके हिमालयी प्रयास देखिये। जेएनयू के सक्रिय क्रांतिकारी जीशान की सारी अकड़ कोर्ट में धरी रह गई। उन्होंने बहाना बनाया कि वे तो एक अभिनेता हैं, उनसे भूमिका निभाने के लिए संपर्क किया गया था।
इस पर कोर्ट ने दो टूक कह दिया कि आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है। आप ऐसा किरदार नहीं निभा सकते हैं जो एक समुदाय की भावनाओं को आहत करता हो। कुल मिलाकर योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इस मामले को गंभीरता के साथ आगे बढ़ाया है और उसके परिणाम भी दिखने लगे हैं। योगी सरकार से शिवराज सरकार अध्याय सीख सकती है कि जनभावनाओं का आदर किस तरह किया जाता है।
अली अब्बास ज़फर और उसकी टीम को जल्द राहत मिलती नहीं दिख रही है। जब वे जेल के सींखचों के भीतर जाएंगे तो कम से कम एक प्रतिज्ञा तो कर ही लेंगे कि किसी के धर्म का अपमान नहीं करना चाहिए। हवालात के मच्छरों को बहुत दिन से बॉलीवुड का ज़ायका नहीं मिला है। आशा है कि कमज़ोर धाराओं के बावजूद दृढ़ प्रतिज्ञ योगी सरकार मच्छरों की इच्छा पूर्ण करेगी।
आईपीसी की धारा 153 (ए) उन लोगों पर लगाई जाती है, जो धर्म, भाषा, नस्ल वगैरह के आधार पर लोगों में नफरत फैलाने की कोशिश करते हैं।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 295A के अंतर्गत वह कृत्य अपराध माने जाते हैं जहाँ कोई आरोपी व्यक्ति, भारत के नागरिकों के किसी वर्ग (class of citizens) की धार्मिक भावनाओं (Religious Feelings) को आहत (outrage) करने के विमर्शित (deliberate) और विद्वेषपूर्ण आशय (malicious intention) से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करता है या ऐसा करने का प्रयत्न करता है।