दुख आये तो देखो–और जानते रहो कि मैं देखनेवाला हूं, मैं दुख नहीं हूं। और तुम बहुत चौंकोगे। इस छोटे-से प्रयोग को उतारो जीवन में।
यह कुंजी है। इससे अमृत के द्वार खुल जाते हैं। दुख आये, देखते रहो। जागे रहना, क्योंकि पुरानी आदत हो गई है, जन्मों-जन्मों की आदत हो गई है जल्दी से दुखी हो जाने की।* कहना कि मैं देखनेवाला हूं, कि मैं तो सिर्फ दर्पण हूं, कि दुख की छाया बन रही है ठीक। क्यूइससे दर्पण दुखी नहीं होता। छाया गई, दर्पण फिर खाली हो जाता है। तुम दर्पण मात्र, द्रष्टा मात्र, साक्षी-मात्र। और फिर देखना, अचानक हैरान हो जाओगे: दुख की बदली है और तुम दुखी नहीं हो! दुख की बदली वहां है, तुम यहां हो; दोनों के बीच अनंत आकाश है! दोनों के बीच अनंत फासला है, जो कभी भरा नहीं जा सकता, कभी जोड़ा नहीं जा सकता। उदासी होगी और तुम उदास न होओगे, तुम सिर्फ निरीक्षण करोगे।
फिर खुशी भी आयेगी, अब खुश मत हो जाना। क्योंकि दुख को तो देखने की आदमी चेष्टा कर लेता है, क्योंकि दुखी तो कोई होना नहीं चाहता; लेकिन सुख…सुख को तो जल्दी से आलिंगन कर लेता है, सुख को तो जल्दी से ओढ़ लेता है। सुख के साथ भी यही करना। वह भी बादल है। वह भी आया-गया मेहमान है। ऐसे हर मेहमान के पीछे चलने लगोगे तो जिंदगी टूट जायेगी–टूट ही गई है। आये सुख, देखते रहना।
अगर तुम सुख और दुख दोनों को देख सको तो तुम्हारे भीतर जो अवस्था पैदा होगी, उस अवस्था का नाम सहज है, साक्षी है, समाधि है। पहले तो क्षण-भर को बनेगी यह बात, मगर क्षण-भर को बनी तो बन गई। पहले तो क्षण भर को झलक मिलेगी साक्षी की, मगर उतनी झलक ही काफी है। स्वाद एक बार आ जाये, बस तुम चकित हो जाओगे कि कितना अपूर्व रस बहता है उस क्षण में! कैसी अमृत की धार बरस जाती है! न दुख न सुख–उस अवस्था को सरहपा ने महासुख कहा है। न दुख न सुख! खयाल रखना, महासुख शब्द से धोखे में मत पड़ जाना। शब्द का कोई उपयोग तो करना ही पड़ेगा। कोई उस अवस्था को आनंद कहता है, मगर उसमें भी वही भूल हो जाती है, क्योंकि तुम समझते हो आनंद यानी सुख ही सुख की महा राशि। सरहपा ने महासुख कहा है, इससे भूल में मत पड़ जाना। तुम्हारे सुख से महासुख का कोई संबंध नहीं है। महासुख तब अनुभव होता है जब सुख और दुख दोनों विदा हो जाते हैं।
बुद्ध का शब्द ज्यादा उचित है। बुद्ध शांति शब्द का उपयोग करते हैं–परम शांति! सब शून्य हो जाता है। एक निर्विकार दशा। कुछ उठता नहीं कुछ गिरता नहीं, कुछ आता नहीं कुछ जाता नहीं। एक सन्नाटा! एक अपूर्व शांति!
मगर महासुख उसमें है। इसलिये सरहपा ठीक कहता है। सहज शून्य अवस्था का…! और इस अवस्था को तुम जान लो तो तुम्हें पता चलेगा: न तो इसका कोई आदि है न अंत, न तो यह कभी शुरू होती और न कभी इसका कोई अंत होता। और स्वभावतः जिसका आदि न हो अंत न हो, उसका मध्य भी नहीं होता। यह शाश्वत है। यह सनातन है। यही है सनातन धर्म।
यह सहज, शून्य, समाधि! वहां न जन्म है न निर्वाण। वहां न कभी कोई जन्मता है न कोई मरता है। वहां समय ही नहीं है–कैसा जन्म कैसी मृत्यु! यह अलौकिक महासुख है।
ओशो