आदित्य जैन। वर्तमान में वैश्विक पटल पर युवा वर्ग और प्रौढ़ वर्ग दोनों ही चिंता , तनाव , क्रोध , बेचैनी आदि से ग्रसित है । काम में मन न लगना , आलस्य में रहना , सोते रहना , छोटी – छोटी बातों पर लड़ाई करना , जीवन में स्थायी निराशा का भाव होना , हर बात में नकारात्मकता देखना , उमंग व उत्साह की कमी होना , मुझे कोई प्रेम नहीं करता – ऐसी मन: स्थिति का होना आदि इस बात का संकेत है कि अब व्यक्ति में अवसाद या डिप्रेशन आ रहा है ।
अवसाद का होना अर्थात जीवन में कोई प्रसाद नहीं है , कोई खुशी नहीं है , कोई लक्ष्य नहीं है , कोई उद्देश्य नहीं है ; का प्रकटीकरण होना । और जब जीवन में कोई प्रसाद , खुशी , लक्ष्य , उद्देश्य नहीं है तो इसकी स्वाभाविक , तार्किक परिणति है कि मेरा जीवन व्यर्थ है । जब मेरा जीवन व्यर्थ है तो इसे जीने की कोई जरूरत नहीं है और तब पहली बार व्यक्ति के मस्तिष्क में आत्महत्या का विचार आता है ।
आत्महत्या की भावना क्षणिक भी ही सकती है और दीर्घकालिक भी । यदि छोटी – मोटी असफलता मिलने के बाद मन में पल दो पल के लिए ऐसा भाव आकर चला जाता है तो कोई समस्या नहीं है । लेकिन जब बार – बार मन में ऐसा भाव आए तो व्यक्ति को सचेत , सजग और सावधान हो जाना चाहिए । अधिकतर प्रकरणों में मित्र , परिवारजन , शिक्षक , मार्गदर्शक , अच्छी पुस्तकें , सकारात्मक फिल्में व्यक्ति के नकारात्मक मनोभावों को बदलने में सहायक होती हैं फिर भी व्यक्ति अन्ततः कुछ समय बाद फिर से उसी अवस्था में चला जाता है । जिनकी ऐसी नकारात्मक भावनाएं चरम पर पहुंच जाती हैं तो वो अपने जीवन को समाप्त भी कर लेते हैं। भारत में प्रतिवर्ष प्रतिदिन औसतन 381 लोग आत्महत्या करते हैं जिसमें से 28 विद्यार्थी होते हैं। वैश्विक पटल में आत्महत्या करने वाले व्यक्तियों की संख्या प्रतिवर्ष आठ लाख है ।
प्रतिवर्ष विश्व अपनी संभावनाओं को खो दे रहा है । न जाने कितने रोजर फेडरर , सचिन तेंदुलकर , मैरी कॉम , रतन टाटा , राधाकृष्णन , अरस्तू , अगस्त्य मुनि , अब्दुल कलाम , इलोन मस्क बनने वाले बच्चे मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं । इसका कारण क्या है ? यदि सीधे जड़ को , मूल कारण को देखा जाए तो वह है – प्रकृति केंद्रित , न्याय आधारित , संतुलित , वैज्ञानिक मनोवृत्ति से युक्त जीवनशैली को न जी कर भौतिकतावादी – उपभोक्तावादी – स्वार्थवादी – अतिशय प्रतिस्पर्धा युक्त जीवन शैली को अपनाना । आज कल केवल भोग को , संपत्ति को ही गौरव प्रदान किया जा रहा है । व्यक्ति के पास कितनी संपत्ति है , सुख व विलासिता की वस्तुएं हैं , इस आधार पर वह स्वयं तथा दूसरों की खुशी का मूल्यांकन करने लगा है । रिश्तों का मूल्य , परिवार का मूल्य , भावों का मूल्य दिन – प्रतिदिन गिरता जा रहा है ।
जीवन में किस वस्तु , विचार , व्यक्ति को कब , कहां , कितना और क्यों महत्व देना है , यह हमें अध्यात्म सिखाता है । अध्यात्म अर्थात् अपनी आत्मा में स्थित होना। आत्मा यानि व्यक्ति के जन्म से लेकर वर्तमान तक ऐसी ऊर्जा , ऐसी सत्ता जो सभी भौतिक परिवर्तनों की वाहक है , परन्तु उनसे अछूती है । आत्मा को चेतना , सोल , स्पिरिट आदि नामों से भी पुकारा जाता है । अध्यात्म का अर्थ है कि जीवन में स्थूल , मूर्त , दृश्य वास्तविकता से सूक्ष्म , अमूर्त और अदृश्य वास्तविकता की ओर जाने की दृष्टि , बोध और समझ विकसित करना । जब हम इसे विकसित करते हैं तो हम आध्यात्मिक होते हैं । आध्यात्मिक व्यक्ति भौतिक उपलब्धियों और मन की शांति दोनों में संतुलन बैठाना जानता है ।
अध्यात्म की यात्रा के कई चरण होते हैं । पहले चरण में अपने “शरीर” को समझा जाता है । अस्थि , मांस , मज्जा , रक्त , स्वेद , शुक्र , रज आदि से बना यह शरीर कैसे कार्य करता है । पाचन तंत्र , रक्त परिसंचरण तंत्र , तंत्रिका तंत्र , प्रजनन तंत्र सहित शरीर में क्रियामाण दस तंत्र को समझते हैं । सिद्धांत रूप में भी समझते हैं और व्यावहारिक रूप में भी समझते हैं। शरीर को साधते हैं। दूसरे चरण में “श्वास” को समझते हैं। जीवन में आने के बाद और जाने के पहले जो महत्वपूर्ण कार्य किया जाएगा वो क्रमशः श्वास लेना व छोड़ना ही है । वर्तमान समय के शोध बताते हैं कि श्वास की मात्रा और गति कैसे हमारे चिंतन , तनाव , क्रोध तथा शरीर के मेटाबॉलिज्म को प्रभावित करती है । यदि आप 120 सेकंड तक श्वास को आसानी से रोक सकते हैं तो आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत बताई जाती है ।
अध्यात्म की यात्रा का तीसरा चरण ” मन ” को जानना , समझना और अनुभूत करना है । मन शरीर में रहता है या शरीर मन में रहता है ? इस जटिल प्रश्न का समाधान भी इसी यात्रा के दौरान मिलता है । भारतीय वाङ्गमय में मन को ही बंधन और मोक्ष का कारण माना गया है और मनोविज्ञान नामक विषय तो मन के ही विश्लेषण पर आधारित है । हमारा मन या तो भूतकाल की बातों पर अटका रहता है या भविष्य की चिंताओं पर । इसी प्रवृत्ति की जब अति हो जाती है तो यह अवसाद या डिप्रेशन के रूप में प्रकट होती है । हमारा मन वर्तमान में कैसे रहे , वर्तमान में जो कार्य हाथ में है , उसे सम्पूर्ण ऊर्जा लगाकर कैसे पूरा किया जाए , यह अध्यात्म हमें सिखाता है । मन की विभिन्न परतें क्या हैं ? अवचेतन , अचेतन , पूर्ण चेतन मन क्या है ? मनो मय कोश क्या है , आदि – आदि प्रश्नों पर पैनी नजर रखना अध्यात्म हमें बताता है ।
चतुर्थ चरण में ” बुद्धि ” आती है । मन में असंख्य असंबंधित विचार आते हैं । कुछ संबंधित विचार आते हैं । उन संबंधित विचारों में किस विचार को माना जाएगा इसका निर्णय बुद्धि करती है । जैसे व्यापार में हुए लाभ के कुछ प्रतिशत हिस्से का दान दिया जाए ? या बैंक में जमा कर लिया जाए या व्यर्थ की पार्टी कर ली जाए ? मन में आए इन तीन विचारों में से प्रभावी कौन सा विचार होगा , इसका निर्णय बुद्धि करेगी । यदि हम सही समय पर सही निर्णय कर पा रहें हैं तो हमारी बुद्धि तीक्ष्ण है । जो लोग आत्महत्या करते हैं , उनकी बुद्धि अपना निर्धारित काम नहीं कर पा रही होती है । अध्यात्म के अंतर्गत इस बुद्धि को भी प्रशिक्षित किया जाता है और बुद्धि को विकसित करने की कई विधियां भी होती हैं। इसीलिए मुंडक उपनिषद के प्रथम सूत्र में ही कहा गया है कि ” ब्रह्मविद्या सर्वविद्या प्रतिष्ठाम ” I अर्थात् ब्रह्म विद्या या अध्यात्म की विद्या पर ही अन्य सारी विद्याएं आधारित हैं । अगर इस अध्यात्म विद्या को उपयुक्त रीति से जान लिया जाए तो हम अन्य सारी विद्याओं को भी सरलता से समझ सकते हैं ।
अध्यात्म के पंचम चरण में हम ” स्मृति ” की बात करते हैं । ग्रीक दार्शनिक प्लेटो कहते हैं कि मानव का समस्त ज्ञान अनुस्मृति मात्र है । यूरोप के महान गणितज्ञ व दार्शनिक लाईबनित्ज कहते हैं कि जन्म के समय हमारी बुध्दि में सारा ज्ञान स्मृति के रूप में विद्यमान रहता है । मानव वस्तुत: अपनी स्मृति ही है । आपका पद , प्रतिष्ठा , रिश्ते , समझ , विषय का ज्ञान , भाषा का ज्ञान सब स्मृति पर ही अवलंबित है । यदि किसी व्यक्ति से उसकी स्मृति अलग कर ली जाए तो वह अपनी सामाजिक , बौद्धिक पहचान ही खो देगा । आखिर स्मृति का हमारे व्यावहारिक जीवन में क्या महत्व है ? हमारी भूतकाल की चिंताएं हमारी स्मृति में ही संग्रहित हैं । राग , द्वेष आदि भाव भी स्मृति से ही निकलते हैं। स्मृति आवश्यक है , परन्तु इसका अनावश्यक हस्तक्षेप हमें सृजनशील बनने से रोकता है ।अत: स्मृति के स्वरूप व प्रकारों से परिचित कराने वाली विद्या अध्यात्म ही है ।
अध्यात्म का छठवां चरण ” अंहकार ” का है । अंहकार का सीधा सा तात्पर्य है – ” सीमित व्यक्तित्व ” । मैं यह कर सकता हूं , यह नहीं ; मैं गीत नहीं गा सकता , मैं नृत्य नहीं कर सकता , मुझे गणित नहीं आती है आदि – आदि । इस प्रकार की मान्यताओं को अपने मन में स्वीकार कर लेना अंहकार को जन्म देता है । अपनी सीमित पहचान को ही अपना मान लेना अंहकार है । आपकी पहचान जितनी कम विस्तृत , छोटी और सिकुड़ी हुई होगी , उतना ही दुख , तनाव आपके पास अधिक रहेगा ।
इसी रहस्य को समझते हुए विवेकानंद जी उद्घोषणा करते हैं कि ” तुम्हारे भीतर अनंत शक्ति विद्यमान है , तुम कुछ भी कर सकते हो । ” यह अनंतता उसी सीमित व्यक्तित्व को असीमित करने की ओर संकेत करता है । एक विद्यार्थी आई आई टी प्रवेश परीक्षा में असफल हो गया , उसने आत्महत्या कर लिया। क्योंकि उसने स्वयं को एक सीमा में बांध लिया था । व्यापार में हानि हुई , पत्नी से अनबन हुई , या कोई समस्या आ गई और वो समस्या इतनी बड़ी हो गई कि उसने आपके व्यक्तित्व को ही निगल लिया क्योंकि आपका व्यक्तित्व ही सिकुड़ा हुआ था ।
अध्यात्म के पास अनेक विधियां हैं जो हमारे अंहकार को विस्तार देकर इसे सर्व परिस्थिति ग्राही बनाती हैं और हमें अवसाद से मुक्ति का एक सरल उपाय सुझाती हैं । मानव के व्यक्तित्व की असीमित क्षमता को प्रदर्शित करने के लिए ही भारतीय ऋषि घोषणा करते हैं – ” अंह ब्रह्मास्मि ” । ब्रह्म अर्थात जो अनंत है या जो अनंत की ओर निरंतर बढ़ रहा है । हमारा व्यक्तित्व शून्य से विराट होने की संभावना से युक्त है और इसी सत्य का भान कराने के लिए श्री कृष्ण अर्जुन को अपने विराट विश्व रूप का दर्शन कराते हैं ।
अध्यात्म का सातवां चरण ” चेतना ” का है , अनुभूति का है , साक्षात्कार का है । चेतना अर्थात ऊर्जा , जिससे यह समस्त ब्रह्माण्ड बना है । आइंस्टीन के सूत्र से हम सभी परिचित ही हैं कि द्रव्यमान को ऊर्जा और ऊर्जा को द्रव्यमान में परिवर्तित किया जा सकता है । जब हम स्वयं को केवल शरीर , इंद्रियां , मन , बुद्धि आदि मान लेते हैं तो हम समस्या को , व्यक्ति को स्वयं से बड़ा मानकर आत्म समर्पण करके हार मान जाते हैं ।
लेकिन हम मूल रूप से चेतना हैं , आत्मा हैं । उपर्युक्त छ: आयामों यथा – शरीर , श्वास , मन , बुद्धि , स्मृति , अंहकार को चलाने वाली शक्ति ही चेतना है । जो अपरिवर्तित है , अपरिवर्तनशील है , वह चेतना है । यह चेतना नित्य है , आनंद से युक्त है । अत: यदि हम इसे पा लेते हैं तो अवसाद या डिप्रेशन निर्मूल हो ही जाएगा । और व्यक्ति फिर प्रकृति केंद्रित , न्याय आधारित , संतुलित , वैज्ञानिक मनोवृत्ति से युक्त जीवनशैली को जिएगा ; न कि भौतिकतावादी – उपभोक्तावादी – स्वार्थवादी – अतिशय प्रतिस्पर्धा युक्त जीवन शैली को महत्व देगा ।
प्रश्न उठता है कि अध्यात्म के इन सात चरणों को कैसे समझा जाए ? भारत भूमि में यह प्रश्न अनेक संतों , विचारकों , दार्शनिकों ने किया है । वर्तमान समय में अध्यात्म को समझने , जानने और अनुभूति करने का सर्वोत्तम साधन ” सुदर्शन क्रिया ” है । जिसकी खोज या सृजन पद्म विभूषण से अलंकृत एवं तीन देशों के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से पुरस्कृत गुरुदेव श्री श्री रविशंकर जी ने किया है ।
सुदर्शन क्रिया विश्व के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में भी कोर्स के रूप में संचालित है । युवाओं को सुदर्शन क्रिया नामक विद्या को सीखकर अध्यात्म के सही , सटीक , शक्तिशाली व सौंदर्ययुक्त पक्षों को जानना चाहिए । यह कोर्स भारत देश में आर्ट ऑफ लिविंग संस्था द्वारा सिखाया जाता है या आप भगवान बुद्ध द्वारा पुनर्जीवित किए गए ” विपश्यना की विधि ” को भी सीख सकते हैं या महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग या फिर नाथ परंपरा के हठ योग को भी सीखा जा सकता है ।
सम्पूर्ण विश्व में लाखों लोगों ने सुदर्शन क्रिया व विपश्यना सीखकर स्वयं को अवसाद व डिप्रेशन से मुक्त करके अपनी योग्यताओं और क्षमताओं में वृद्धि की है । इसीलिए कोलंबिया , पैराग्वे , मंगोलिया आदि देशों ने श्री श्री रविशंकर को अपने देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत किया । विश्व के अन्य देशों ने भी उनके योगदान को अपनी – अपनी संसद या राष्ट्रीय असेम्बली में सराहा है । आप सभी भारत देश की इस अध्यात्म विद्या के प्रचार , प्रसार में सहायक बने तथा अवसाद और आत्महत्या की इस गंभीर समस्या से विश्व को मुक्त कराने का निमित्त बनें।
।। जयतु जय जय भारतीय योग – दर्शन परंपरा ।।
( लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के गोल्ड मेडलिस्ट छात्र हैं । कई राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में अपने शोध पत्रों का वाचन भी कर चुके हैं। विश्व विख्यात संस्था आर्ट ऑफ लिविंग के युवा आचार्य हैं । भारत सरकार द्वारा इन्हे योग शिक्षक के रूप में भी मान्यता मिली है । भारतीय दर्शन , इतिहास , संस्कृति , साहित्य , कविता , कहानियों तथा विभिन्न पुस्तकों को पढ़ने में इनकी विशेष रुचि है और यूट्यूब में पुस्तकों की समीक्षा भी करते हैं । )
लेखक आदित्य जैन
सीनियर रिसर्च फेलो
यूजीसी प्रयागराज
adianu1627@gmail.com