जिस देश में बहुतायत माँ बाप आज भी बेटियों को बोझ समझता हो, उसे अस्पताल में छोड़, चला जाता हो,किसी तरह से शादी कर पिंड छुड़ा लिया जाता हो, एक बेटे के बाद दुसरे बेटे के इंताजर में सात – आठ बेटियों को अपमान जनक जिन्दगी, बस इसलिए दिया जाता हो ,क्योंकि वो इस मान्यता में जीता है कि आँख , एक नहीं दो होने चाहिए(दो बेटे, मतलब माँ बाप की दोनों आँखें। आज भी लोग ऐसा मानते हैं) वहां देश की दो बेटियों ने खुद को भारत माँ की दो आँख साबित कर दिया है। अब इन दोनों बेटियों ने न सिर्फ देश को पुत्र मोह से बच कर, बेटियों पर भरोसा करने का संदेश दिया है बल्कि राखी के दिन ,देश के भाइयों की लाज बचा कर संदेश दिया कि अब जाग जाओ , हम अकेले भारत माँ को दुनिया में गौरव नहीं दिला सकते।
साक्षी और सिन्धु ने इस बार तो हमारी लाज बचा ली । लेकिन कब तक? क्या साक्षी और सिन्धु का भारत ,आत्म सम्मान खो चूका है। जब दुनिया में आज खेल शक्ति, महाशक्ति होने का गौरव देने लगा हो, वैसे में विशाल जनमानस वाला, इतना बड़ा मुल्क, एक मेडल के लिए तड़सता रहा, तड़पता रहा। इस हालात में इन दोनों बहनों ने देश की लाज बचा कर सचमुच एहसान किया है देश पर । अब इनके पदक के नशे में पूरा देश पागल हो जायेगा। दिख रहा है कैसे मीडिया बौरा गया। यह सिलसिला कुछ दिन चलता रहेगा।
अब तुम दोनों बहनों को पैसे और सोहरत की कोई कमी न रहेगी। सब बटोर लेना। ये तुम्हारा हक़ है। लेकिन सवाल उठाना जरुर। सफलता और असफलता में बस एक लकीर का अंतर होता है। सोचो ,यदि तुम उस पार रह जाते तो क्या होता? ये दर्द दीपा कर्माकर तुम्हें ज्यादा बेहतर बता सकेगी। सवाल, आम जन उठाये तो कौन सुने? तुम दोनों बहनों को सत्ता और व्यवस्था के सामने, सवाल उठाना होगा कि ईनाम की राशि मेरे ऊपर लुटा रहे हो यह तो ठीक है लेकिन थोडी अपनी सोच भी तो बदलो !
बेटियों को लेकर ही नहीं , बेटों को लेकर भी। माँ बाप के द्वारा क्यों दिन – रात ,पढो – पढो की रट लगाई जाय । जबकि देश के भविष्य को ऊँची डिग्री हासिल करने के बाद भी महज सरकारी सफाई कर्मचारी बनने के लिए लाइन लगाना पड़े। क्यों हैं ऐसे हालात? क्या बदलने नहीं चाहिए ये हालात ? क्यों, येसा न हो की बच्चे जिस योग्य हों उसकी पहचान दस साल के भीतर कर उसे उसकी पसंद की राह दी जाय? खेलकूद में साक्षी या सिधु से बस कदम भर पीछे रह जाने वाली बेटी अंधकार में जीने को मजबूर होगी तो फिर कोई बाप अपने बेटा या बेटी को रेकेट पकड़ाने या अखाड़ा में उताड़ने की हिम्मत कैसे कर पायेगा? तो क्या अगली बार फिर हम किसी करिश्मे का इंतजार करेगें ताकि कोई बेटा बेटी फिर देश की लाज बचा ले।
ठीक वैसे ,जैसे दशकों से होता आये है। भारत की इन दोनों दुलारी बेटियों से उम्मीद की जानी चाहिए की वो सरकार की चेतना को हिला दे। ताकि सवा सौ करोड़ का देश महज लाज बचाने के लिए ओलंपिक में हिस्सा न ले। ये देश के लिए बेहद अपमानजनक है। यह सवाल न सिर्फ उठाना चाहिए कि क्यों हमारे बच्चों पर सिर्फ पढने लिखने का इतना दवाव होना चाहिए?क्यों, सिर्फ यही सन्देश बाल मन में डाला जाय कि जो पढ़ेगा वही बचेगा बाक़ी तबाह हो जायेगा। जबकि सच यह है की बच्चे जब जीवन क्षेत्र में आते है तो अक्सर पाते है की सफलता की एक सीढी नीचे रह जाने के कारण ज्यादा पढ़ा लिखा होना उनके लिए तबाही का कारण बन गया। उसी के क्लास का फिसड्डी रहे बच्चे उसे अपनी सफलता से चिढ़ा रहे है। तो क्या दीपा कर्माकर बन जाना अपराध है ?जब दुनिया में सफलता के लिए खेलकूद के ये मायने है तो यह करियर क्यों नही हो हमारे बच्चों के लिए.? ताकि उनके ऊपर पढाई बोझ न हो।
अब यह तस्वीर बदलनी चाहिए। माँ बाप इस हालत में हों कि बेटो की तरह बेटी में भी खुद को देखें और अपने बच्चो को सिंधु के मम्मी पापा की तरह पढाई के साथ खेल के लिए भी हौसला दे सकें ताकि वो अपना मन चाहा भविष्य तय कर, भारत माँ की लाज बचाने के दबाव के बदले उसके गौरव को बढ़ाने के लिए तत्पर रहे