अश्विनी उपाध्याय। विस्तृत चर्चा के बाद आज ही के दिन यानी 23 नवंबर 1948 को संविधान में अनुच्छेद 44 जोड़ा गया था और सरकार को निर्देश दिया गया कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करे। संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि अलग-अलग धर्म के लिए अलग-अलग कानूनों के स्थान पर सभी भारतीयों के लिए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और लिंग निरपेक्ष एक भारतीय नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए।
लेकिन विस्तृत चर्चा के बाद बनाया गया अनुच्छेद 44 (समान नागरिक संहिता) लागू करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया। आज तक भारतीय नागरिक संहिता का मसौदा नहीं बनाया गया। परिणामस्वरूप इससे होने वाले लाभ के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। इसके लागू नहीं होने से अनेक समस्याएं हैं, जिनमें से कुछ मुख्य इस प्रकार हैं
मुस्लिम कानून में बहुविवाह एक पति-चार पत्नी की छूट है, लेकिन अन्य धर्मो पर एक पति-एक पत्नी का कठोर नियम लागू है, बांझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी दूसरा विवाह अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में सात वर्ष की सजा का प्रावधान है। ऐसे में जेल से बचने के लिए कई लोग मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं।
मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है, इसीलिए 11-12 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है, जबकि अन्य धर्मो में लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस मामले में न्यूनतम उम्र सीमा 18 होने की ही बात करता है। तीन तलाक अवैध होने के बावजूद तलाक-ए-हसन आज भी मान्य है और इनमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है, केवल तीन माह इंतजार करना है, पर अन्य धर्मो में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है। मुसलमानों में प्रचलित तलाकों का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम औरतों को हमेशा भय के माहौल में रहना पड़ता है।
मुस्लिम कानून में उत्तराधिकार की व्यवस्था जटिल है, पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य धर्मो में भी विवाहोपरांत अर्जति संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून जटिल हैं। विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरांत अर्जति संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं।
उपरोक्त विषय मानव अधिकार से संबंधित हैं जिनका न तो धर्म से संबंध है और न ही इन्हें धाíमक मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है। फिर भी आजादी के 73 साल बाद भी धर्म के नाम पर भेदभाव जारी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से भारतीय नागरिक संहिता की कल्पना की थी, ताकि सबको समान अधिकार मिले और देश की एकता व अखंडता मजबूत हो, लेकिन वोटबैंक की राजनीति के कारण यह आज तक लागू नहीं किया जा सका। यदि गोवा में एक समान नागरिक संहिता सबके लिए लागू हो सकती है तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू हो सकती है?
भारतीय नागरिक संहिता के लाभ : देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू करने से देश और समाज को सैकड़ों कानूनों से मुक्ति मिलेगी। वर्तमान में अलग अलग धर्म के लिए लागू अलग अलग कानूनों से सबके मन में हीन भावना पैदा होती है, इसलिए सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से सबको हीन भावना से मुक्ति मिलेगी। एक पति-एक पत्नी की अवधारणा सभी पर समान रूप से लागू होगी और बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ सभी भारतीयों को समान रूप से मिलेगा।
न्यायालय के माध्यम से विवाह-विच्छेद करने का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा। विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद करने की अनुमति भी सभी नागरिकों को होगी, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या इसाई। पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री को एक समान अधिकार प्राप्त होगा और संपत्ति को लेकर धर्म, जाति, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी। विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जति संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा।
वसीयत, दान, बंटवारा, गोद इत्यादि के संबंध में सभी भारतीयों पर एक समान कानून लागू होगा, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। इससे राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा। जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगी और एक अखंड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकेंगे। अलग-अलग धर्मो के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमेबाजी में उलझना पड़ता है। सबके लिए एक नागरिक संहिता होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा।
मूलभूत धाíमक अधिकार जैसे पूजा, प्रार्थना करने, व्रत या रोजा रखने तथा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या धाíमक स्कूल खोलने, धाíमक शिक्षा का प्रचार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा।
विशेषज्ञों की राय : अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान डॉ. आंबेडकर ने कहा था, व्यावहारिक रूप से देश में एक सिविल संहिता है जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। केवल विवाह-उत्तराधिकार का क्षेत्र है जहां एक समान कानून लागू नहीं है।
संविधान सभा के सदस्य केएम मुंशी ने कहा था, हम एक प्रगतिशील समाज हैं और ऐसे में धाíमक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किए बिना हमें देश को एकीकृत करना चाहिए। धाíमक क्रियाकलापों ने जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने दायरे में ले लिया है, हमें इसे रोकना होगा और कहना होगा कि विवाह उपरांत मामले धाíमक नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष कानून के विषय हैं। यह अनुच्छेद इसी बात पर बल देता है। संविधान सभा के सदस्य कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था, कुछ लोगों का कहना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड बन जाएगा तो धर्म खतरे में होगा और दो समुदाय मैत्री भाव के साथ नहीं रह पाएंगे। जबकि इसका उद्देश्य मैत्री को बढ़ाना है।
वर्ष 1985 में शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, यह दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया है। यह प्रावधानित करता है कि सरकार सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाए। लेकिन इसे बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के प्रति पृथक्करणीय भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अखंडता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगा।
वर्ष 2017 में शायरा बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, हम भारत सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करे। हम आशा एवं अपेक्षा करते हैं कि वैश्विक पटल पर और इस्लामिक देशों में शरीयत में हुए सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाया जाएगा। जब ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम से सबके लिए एक कानून लागू किया जा सकता है तो भारत के पीछे रहने का कोई कारण नहीं है। वर्ष 2019 में जोस पाउलो केस में सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि समान नागरिक संहिता को लेकर सरकार की तरफ से अब तक कोई प्रयास नहीं किया गया। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में गोवा का उदाहरण दिया और कहा कि 1956 में हिंदू लॉ बनने के 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया।
दिल्ली हाईकोर्ट ने 31 मई को समान नागरिक संहिता की मांग वाली एक जनहित याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था और नौ दिसंबर को इसकी सुनवाई है, लेकिन सरकार ने अपना जवाब अब तक दाखिल नहीं किया है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह विधि आयोग को विकसित देशों की समान नागरिक संहिता और भारत में लागू कानूनों का अध्ययन कर दुनिया का सबसे अच्छा और प्रभावी इंडियन सिविल कोड ड्राफ्ट करने का निर्देश दे। उल्लेखनीय है कि 23 नवंबर 1948 को अनुच्छेद 44 भारतीय संविधान में जोड़ा गया था। इसलिए सरकार को आज के दिन को देश भर में सार्वजनिक कार्यक्रमों के जरिये समान अधिकार दिवस के रूप में मनाना चाहिए
सभी बहन-बेटियों के अधिकारों में खत्म होगा भेदभाव
अनुच्छेद 37 में स्पष्ट लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार का मूल कर्तव्य है। जिस प्रकार संविधान का पालन सभी नागरिकों का मूल कर्तव्य है, वैसे ही संविधान को शतप्रतिशत लागू करना सरकार का नैतिक कर्तव्य है। धर्मनिरपेक्ष देश में धाíमक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होता है, लेकिन हमारे यहां आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मेरिज एक्ट व ईसाई मेरिज एक्ट लागू है। जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी, भारत को सेक्युलर कहना उचित नहीं प्रतीत होता।
भारत में विद्यमान धर्म, जाति, क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएं की तरह है जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खंडित कर सकती है, इसलिए इन्हें समाप्त कर एक भारतीय नागरिक संहिता बनाना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए, बल्कि देश की अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए भी जरूरी है। जिस दिन भारतीय नागरिक संहिता का एक ड्राफ्ट तैयार हो जाएगा और जनता को इसका लाभ पता चल जाएगा, उस दिन कोई इसका विरोध नहीं करेगा। जो लोग इसके लाभ के बारे में नहीं जानते हैं वे ही इसका विरोध कर रहे हैं। इससे कट्टरवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद समाप्त होगा। इसका फायदा हिंदू-बहन बेटियों को ज्यादा नहीं मिलेगा, क्योंकि हिंदू मैरिज एक्ट में महिला-पुरुष को लगभग समान अधिकार पहले से ही प्राप्त है। इसका सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम बहन-बेटियों को मिलेगा, क्योंकि शरिया कानून में उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है।
अदालत कानून बनाने के लिए सरकार से तो नहीं कह सकता है, लेकिन वह अपनी भावना व्यक्त कर सकता है और बार-बार यही कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट एक जुडिशियल कमीशन या एक्सपर्ट कमेटी बनाने का निर्देश दे सकता है जो विकसित देशों की समान नागरिक संहिता और भारत में लागू कानूनों का अध्ययन करे और सबकी अच्छाइयों को मिलाकर भारतीय नागरिक संहिता का एक ड्राफ्ट तैयार कर सार्वजनिक करे, ताकि इस विषय पर सार्वजनिक चर्चा शुरू हो सके।
अधिवक्ता, उच्चतम न्यायालय