Sonali Misra. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अमेजन की इंडिया हेड अपर्णा राजपूत की अग्रिम जमानत पर अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। इस निर्णय ने कुछ ऐसे बिंदु दिए हैं, जिनके आधार पर हिन्दू धर्म पर होने वाले एकतरफा अभिव्यक्ति के आक्रमण से रोका जा सकता है।
तांडव ऐसी सीरीज थी जिसके विरुद्ध एक नहीं तमाम शिकायतें दर्ज की गयी थीं। यहाँ तक कि सरकार द्वारा नोटिस प्राप्त होने पर आपत्तिपूर्ण दृश्यों को निर्माता द्वारा हटा लिया गया था। अपर्णा पुरोहित द्वारा दायर की गयी अग्रिम जमानत पर निर्णय देते हुए न्यायालय ने जो कहा उसके मुख्य बिन्दुओं पर नजर डालते हैं।
न्यायालय ने अपने निर्णय में उन दृश्यों का उल्लेख किया, जिन पर आपत्ति व्यक्त की गयी है:
पहले एपिसोड में जब नारद मुनि की भूमिका निभाने वाला कलाकार विशाल, नायक अर्थात जीशान अली जो उस समय शंकर भगवान का चरित्र निभा रहा है, उससे कहता है “भोलेनाथ! प्रभु! ईश्वर ये रामजी के अनुयायी सोशल मीडिया पर दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं।”
फिर बाद में कहा जाता है “भोलेनाथ आप बहुत भोले हैं, कुछ नया कीजिये, इनफैक्ट कुछ नया ट्वीट कीजिये, कुछ सेंसेषनल, कुछ भड़कता हुआ शोला, जैसे कि (सोच रहा है) हाँ, ‘‘कैंपस के सारे विद्यार्थी देशद्रोही हो गए, आजादी-आजादी के नारे लगा रहे है‘‘ और फिर शंकर प्रभु का चरित्र निभाने वाले के मुख से गाली
उसके बाद आजादी के नारे
पहले ही एपिसोड में देवकीनंदन के मुख से कहे गए संवाद “अच्छा! आप भी बोलेंगे! हम्म! इनके जो पिताजी थे, जूते टाकते थे, बहुत महीन कारीगर। बहुत मेहनती आदमी हैं,!
अबे हम लोगों ने तुम लोगों पर सालों साल अत्याचार किए न, उसी की वजह से तुम लोगों को आरक्षण की लाठी मिल गयी। उसके बाद भी हमें अपनी छवि ठीक करनी थी। यह सब नहीं हुआ होता, तो साले तुम्हारी औकात थी, हमारे सामने बैठकर बात करने की? सामने? बोलेंगे?”
फिर एपिसोड 6 में संवाद “जब एक छोटी जाति का आदमी एक ऊंची जात के औरत को डेट करता है तो वो बदला ले रहा होता है, सदियों के अत्याचारों का सिर्फ उस औरत से।
उसके बाद एपिसोड 8 में, संध्या का कैलाश द्वारा यह कहा जाना “यू नो, जिगर ने एक दिन बोला था,पर उसने कहा था कैलाश जब एक छोटी जाति का आदमी एक ऊंची जात के औरत को डेट करता है तो वो बदला ले रहा होता है, सदियों के अत्याचारों का सिर्फ उस औरत से।”
न्यायालय ने इन सभी दृश्यों एवं संवादों पर संज्ञान लिया तथा कहा कि भारत के संविधान का सिद्धांत हर धर्म का पालन करने वालों को यह स्वतंत्रता प्रदान करता है कि वह अपने धर्म का पालन, प्रदर्शन एवं प्रचार बिना किसी दूसरे धर्म का पालन करने एवं आस्था रखने वाले वाले व्यक्ति को आहत किए बिना या फिर उसके विरुद्ध कोई कदम उठाए बिना कर सके।
अत: यह हर व्यक्ति का उत्तरदायित्व है कि वह कोई कहानी भी लिखते समय दूसरे धर्म के व्यक्तियों के भावनाओं का आदर करे। यदि कोई व्यक्ति बहुसंख्यक नागरिकों के मूलभूत अधिकार को प्रभावित करने के द्वारा भारत के संविधान के इस अनिवार्य आदेश के विरुद्ध गैर-उत्तरदायी आचरण करता है, तो वह मात्र इस अपराधी एवं धृष्ट कृत्य को करने के उपरान्त मात्र बिनाशर्त माफी मांगकर मुक्त नहीं हो सकता है।”
आगे न्यायालय कहते हैं “इस फिल्म का नाम तांडव ही स्वयं में अपमानजनक हो सकता हा क्योंकि इस देश की बहुसंख्यक जनता इस शब्द को प्रभु शिव के साथ जोड़कर देखती है जिन्हें मानवता का सर्जक और विनाशक माना जाता है।”
प्रथम एपिसोड के मंच वाले दृश्य के विषय में माननीय न्यायालय ने कहा कि हिन्दू देवी देवताओं को विवाद के दृश्यों में संदर्भित करना उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि वह दृश्य जिसमें मंच पर नारद मुनि प्रभु शिव शंकर से कह रहे हैं कि आपका मार्केट डाउन हो गया है, तो आज़ादी आज़ादी जैसे नारे लगाए जाएं, या फिर सभी स्टूडेंट्स देश द्रोही हो गए हैं, ऐसा ट्वीट किया जाए,” यह निश्चित ही हाल ही में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में घटित हुई घटनाओं की ओर संकेत करते हैं, जिन्हें निश्चित ही भड़काऊ पाया जा सकता है।
एपिसोड 6 में संवाद “जब एक छोटी जाति का आदमी एक ऊंची जात के औरत को डेट करता है तो वो बदला ले रहा होता है, सदियों के अत्याचारों का सिर्फ उस औरत से।” के विषय में न्यायालय ने यह स्पष्ट कहा कि ऐसा नहीं हो रहा है। तथा इस दृश्य के लिए एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत भी दंड दिया जा सकता है क्योंकि इस मामले में जानबूझकर समाज के एक वर्ग को नीचा दिखाया जा रहा है। जबकि आज हर जाति वर्ग के पुरुष एवं युवतियां विवाह कर रहे हैं, जातियों के बंधन से परे होकर।
निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण संज्ञान बिंदु वह है जब माननीय न्यायालय कहते हैं कि ऐसा आज से नहीं हुआ है कि हिन्दू देवी देवताओं के नामों का गलत एवं अपमानजनक तरीकों से प्रयोग किया गया हो, बल्कि यह प्रक्रिया आज से कई वर्ष पूर्व ही आरम्भ हो गयी थी। उन्होंने कई फिल्मों के नामों के उदाहरण भी दिया जैसे राम तेरी गंगा मैली, सत्यम शिवम सुन्दरम, ओह माई गॉड आदि।
इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी कहा कि ऐतिहासिक एवं पौराणिक चरित्रों का हनन भी किया गया जैसे पद्मावती एवं बहुसंख्यक धर्म के देवताओं के नामों एवं प्रतीकों को पैसे कमाने पूरी तरह से विकृत कर दिया है जैसे गोलियों की रासलीला, राम –लीला।। इसके साथ ही न्यायालय ने कहा कि हिंदी फिल्मों में यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है और इस पर यदि रोक नहीं लगाई गयी तो इसके भारतीय सामजिक, धार्मिक एवं सामुदायिक क्रम पर भयानक परिणाम होंगे।
इसके बाद न्यायालय जो कहते हैं, उसे समझने की आवश्यकता अत्यधिक है क्योंकि यही कारण है जिसके कारण हमारे बच्चे जहर फैलाने वाले मुनव्वर फारुकी को कॉमेडियन समझते हैं, देश के साथ षड्यंत्र करने वाली दिशा को बच्ची और पर्यावरण एक्टिविस्ट समझते हैं, सफूरा जैसी लड़कियों को बेचारी समझते हैं एवं योगेश यादव जैसे मीठे जहरीले लोगों को समाज सुधारक समझते हैं।
माननीय उच्च न्यायालय का कहना है कि देश की आज की पीढ़ी, जो देश की समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरासत से परिचित नहीं है, वह धीरे धीरे उन्हीं सब झूठ पर विश्वास करने लगती है जैसा आज की फिल्मों या सीरीज में दिखाया जा रहा है तथा यह उस विविधता को समाप्त करेगी जो इस एकीकृत राष्ट्र की विशेषता है।
तभी आप देखिये कि राम का अपमान अपमान समझा ही नहीं जाता है, सीता का अपमान करने वाला मुनव्वर फारुकी आज स्त्रीवादियों का प्रिय बना हुआ है। सीता के कथित अपमान पर यह स्त्रियाँ सौ सौ आंसू बहाती है और श्री राम को सिया राम कहने का कुतर्क करती हैं, वह मुनव्वर फारुकी द्वारा सीता माता के अपमान पर चुप हैं, न केवल चुप हैं बल्कि साथ हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वह इसमें कुछ गलत मानती ही नहीं हैं।
जब हमारे बच्चों के मन में पीके जैसी फिल्मों के माध्यम से हिन्दू संस्कृति की वैज्ञानिकता पर प्रश्न उठाते जाते हैं और पीपल को मात्र एक वृक्ष बताकर उपहास उड़ाया जाता है, तभी आज के बच्चे किसी दिशा रवि को पर्यावरण एक्टिविस्ट मान बैठते हैं जिसके लिए गाय मात्र एक पशु है, जबकि गाय भारत जैसे देश की कृषि एवं अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी।
सारा नैरेटिव और कांसेप्ट ही बदल जाता है
उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि पश्चिमी फिल्म निर्माता कभी जीसस या पैगम्बर मुहम्मद पर फिल्म नहीं बनाते हैं परन्तु हिंदी फिल्म निर्माताओं के लिए बहुसंख्यक हिन्दू समाज के देवी देवताओं का मजाक उड़ाना जैसे आम बात है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एकतरफा नहीं हो सकती है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय का मीडिया में अधिक उल्लेख नहीं हुआ, क्यों नहीं हुआ क्योंकि यह वामपंथी मीडिया की एकतरफा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की छद्मता को तार तार उधेड़ता है।
यह निर्णय स्पष्ट पूछता है कि जब आपके भीतर यह हिम्मत नहीं है कि आप जीसस या पैगम्बर मुहम्मद के खिलाफ या उनके लिए कुछ आपत्तिजनक लिख सकें तो आप बार बार हिन्दू समाज की सहिष्णुता पर प्रहार क्यों करते हैं? क्यों बार बार बहुसंख्यक समाज को अपमानित करते हैं? उन्होंने इस निर्णय में संवैधानिक सीमाएं एवं दायित्व भी समझाए हैं।
समय आ गया है जब अभिव्यक्ति की दोतरफा स्वतंत्रता की बात हो:
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय यहाँ पढ़ा जा सकता है: एवं डाऊनलोड किया जा सकता है।