पिछले लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, सिक्किम, ओडिशा, और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभाओं के चुनाव हुए। लोकसभा चुनाव के कुछ महीने बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हुए। 2015 में झारखंड, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और बिहार की विधानसभाओं के चुनाव हुए। 2016 में पश्चिम बंगाल, केरल, पुद्दूचेरी, तमिलनाडु की विधानसभाओं के चुनाव हुए। 2017 में उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव हुए। 2018 में गुजरात, त्रिपुरा, नगालैंड, मेघालय और कर्नाटक की विधानसभाओं के चुनाव हुए। त्रिपुरा की 59 विधानसभा सीटों के लिए 18 फरवरी को चुनाव हुआ था। मेघालय में 27 फरवरी और नागालैंड में 27 फरवरी को चुनाव संपन्न कराए गए थे।
इसके बाद अगला विधानसभा चुनाव कर्नाटक में 12 मई को हुआ। यानी हर साल पांच-छह विधानसभाओं के चुनाव होते रहे। इनके साथ ही हर राज्य में अलग-अलग समय पर स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव भी हुए। इस वर्ष के आखिर में मिजोरम, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे हैं। 40 सीटों वाली मिजोरम में अक्टूबर-नवंबर के महीने में चुनाव हो सकते हैं। इसके बाद राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव होने हैं। राजस्थान की 200 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा का कब्जा है इन तीनों ही राज्यों में भाजपा की सरकार है। छत्तीसगढ़ विधानसभा का कार्यकाल जनवरी 2019 में खत्म हो रहा है। 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में कब्जा बरकरार रखने के लिए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जनता के बीच घूम रही हैं। इसी तरह 230 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव से पहले जनता का आशीर्वाद चौथी बार पाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शहर और गांवों में जा रहे हैं। 90 सदस्यीय विधानसभा में चौथी बार जीत का परचम फहराने के लिए मुख्यमंत्री रमन सिंह को कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। इन राज्यों में विधानसभाओं के गठन के साथ ही देश में आमचुनाव की तैयारियां शुरु हो जाएंगी। लोकसभा चुनाव के समय ही आंध्र प्रदेश, सिक्किम, ओडिसा और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभाओं के चुनाव होंगे।
लोकसभा चुनाव के बाद सितंबर-अक्टूबर माह में हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हैं। इसके बाद दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में 2020 में विधानसभा चुनाव होने हैं। दिल्ली की 70 और जम्मू-कश्मीर की 87 सीटों के लिए चुनाव जनवरी-फरवरी, 2020 में कराए जाएंगे। इस तरह देश में लगातार चुनाव होते रहे हैं और होते रहेंगे। बार-बार होने वाले चुनावों के मद्देनजर आचार संहिता के लागू होने के कारण विकास कार्यों में रुकावट आने, सरकारी खर्च में बढ़ोतरी और राजनीतिक दलों का ज्यादातर समय चुनावी कार्यों मे लगने के कारण पिछले लंबे समय से देश में चुनाव सुधार की जरूरत बताई जा रही है। देश में एक साथ चुनाव को लेकर जारी बहस को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत बताकर आगे बढ़ा दिया है। ‘
देश में एक साथ केंद्र और राज्यों के चुनाव कराने पर चर्चा
‘मन की बात’ कार्यक्रम में वाजपेयी सरकार में हुए बुनियादी सुधारों का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि आजकल देश में एक साथ केंद्र और राज्यों के चुनाव कराने पर चर्चा हो रही है। इस विषय पर सरकार और विपक्ष के लोग अपनी-अपनी बातें रख रहे हैं। यह अच्छी बात है और लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत भी है। उन्होंने आगे कहा कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं और चर्चा जारी है। प्रधानमंत्री ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी के योगदान का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘मजबूत लोकतंत्र के लिए स्वस्थ परंपरा का विकास, लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए लगातार प्रयास, खुले विचारों के साथ चर्चा को प्रोत्साहन अटलजी को उपयुक्त श्रद्धांजलि होगी।
अमित शाह का विधि आयोग के अध्यक्ष को पत्र
इससे पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने विधि आयोग के अध्यक्ष को पत्र भेजकर एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था। उनका कहना है कि देश में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से चुनावों पर होने वाले बेतहाशा खर्च पर लगाम कसने और संघीय ढांचे को मजबूत करने में मदद मिलेगी। विधि आयोग को अपने सुझावों के साथ लिखे पत्र में शाह ने कहा कि एक साथ चुनाव कराना केवल परिकल्पना नहीं है, बल्कि एक सिद्धांत हैं जिसे लागू किया जा सकता है। आयोग को लिखे लिखे आठ पृष्ठों के पत्र में शाह ने कहा कि एक साथ चुनाव कराने का विरोध करना राजनीति से प्रेरित लगता है। शाह ने कहा है कि इससे चुनाव पर सरकारी खर्च में कमी आएगी और आचार सहिंता से विकास कार्य रुक जाने से प्रगति में होने वाली बाधा को भी दूर किया जा सकेगा। शाह ने उदाहरण देते हुए कहा कि महाराष्ट्र में संसदीय विधानसभा, स्थानीय निकाय के लगातार चुनाव होने से राज्य में 365 दिनों में से 307 दिन आचार सहिंता लागू रही। शाह ने विपक्षी दलों के इस डर को भी सही नहीं बताया कि एक साथ चुनाव कराने से एक ही पार्टी जीतती है। 1980 में कर्नाटक में जनता ने लोकसभा में कांग्रेस व विधानसभा में जद (एस) को चुना था।
प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के कार्यकाल में एक साथ चुनाव की परम्परा समाप्त हुई।
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर देश में पहली बार सुझाव नहीं मिले हैं। पहले भी कई मौकों पर एक साथ चुनाव कराने की चर्चा हुई है। देश के पहले आमचुनाव 1952 से लेकर चौथे आमचुनाव 1967 तक विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते थे। चौथी लोकसभा के पूरे कार्यकाल के तय समय से पहले भंग होने के साथ ही यह एक साथ चुनाव की परम्परा समाप्त हो गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के कार्यकाल में एक साथ चुनाव की परम्परा समाप्त हुई। चौथे आम चुनाव (1967) के बाद पहली बार राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनी। 1967 में पहली बार कांग्रेस को लोकसभा में क़रीब 60 सीटें खोनी पड़ी। कांग्रेस को 283 सीटों पर जीत हासिल हुई। 1952 में पार्टी ने 74 फीसदी सीटें जीती थीं. 1957 में यह आंकड़ा 75, 1962 में 72 और 1967 में 54 फीसदी हो गया. उसका वोट प्रतिशत गिरकर महज़ 40 फीसदी ही रह गया था।
इसके साथ ही बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब एवं पश्चिम बंगाल में ग़ैर-कांग्रेस सरकारें बनीं। इंदिरा गांधी को 13 मार्च को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में बढ़ते असंतोष के मद्देनजर मोरारजी देसाई को भारत का उप-प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्री नियुक्त किया। 1967 से कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी दलों की ताकत बढ़ी। क्षेत्रीय राजनैतिक दलों का अपने राज्यों में ताकत बनकर उभरे। इंदिरा गांधी ने केरल की कम्युनिस्ट सरकार को जवाहरलाल नेहरू के शासन में ही असंवैधानिक ठहराकर वहां राष्ट्रपति शासन लगवा दिया था। केरल में कांग्रेस को करारी हार मिली। कांग्रेस के सबसे बड़े गढ़ तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने 234 विधानसभा सीटों में से 138 जीतकर मैदान मार लिया। वहां तो कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मद्रास के भूतपूर्व मुख्यमंत्री के कामराज भी हार गए थे। पश्चिम बंगाल, ओडिसा और गुजरात भी कांग्रेस के हाथ से निकल गए। उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़कर विपक्षी दलों के साथ सरकार बना ली।
एक साथ चुनाव का विरोध करने में कांग्रेस सबसे आगे हैं।
एक साथ चुनाव का विरोध करने में कांग्रेस सबसे आगे हैं। देश में एक साथ चुनाव का सिलसिला खत्म करने का दोष भी कांग्रेस का ही है। 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव लगातार साथ होते रहे। इस दौरान केरल तथा उड़ीसा में 1960 तथा 1961 में मध्यावधि चुनाव हुए थे। 1968 से विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने का सिलसिला शुरु हुआ। 1967 के चौथे आम चुनाव में कांग्रेस के ग्राफ गिरावट शुरु हुई। कांग्रेस में बिखराव भी हुआ। कई राज्यों में सरकारे गिरने के कारण मध्यावधि चुनाव हुए। 1969 में कांग्रेस दोफाड़ हो गई। ऐसे में इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर डाली। उस समय आमचुनाव एक साल दूर थे। इस प्रकार पहली बार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने का सिलसिला पूरी तरह टूट गया।
इंदिरा गांधी ने 1971 में गरीबी हटाओं का नारा देकर 352 सीटों पर कांग्रेस को विजय दिलाई। भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण औद्योगिकों की हालत खराब हो गई। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1975 में इंदिरा गांधी की चुनाव अवैध ठहरा दिया। उसके बाद देश में एमरजेंसी थोंप दी गई। विपक्ष के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। इंदिरा गांधी ने ही 1972 में 18 विधानसभाओं को भंग करके चुनाव कराए। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद मोरारजी देसाई सरकार ने विधानसभाओं को भंग कर दिया। 1980 में इंदिरा गांधी ने फिर से सत्ता में लौटकर गैर कांग्रेसी सरकारों भंग कर राज्यों में मध्यावधि चुनाव कराए। अपनी सरकार बचाए रखने के लिए इंदिरा गांधी लोकसभा का कार्यकाल भी एक साल के बढ़ा दिया।
एक राष्ट्र एक चुनाव में कोई दम नहीं है (अभिषेक मनु सिंघवी)
कांग्रेस ने नेताओं ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, पी चिदंबरम,सिब्बल और सिंघवी ने विधि आयोग से कहा कि एक साथ चुनाव भारतीय संघवाद की भावना के खिलाफ है। इससे पहले अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव में कोई दम नहीं है। यह सिर्फ जुमला है. इसका मकसद लोगों को बरगलाना और मूर्ख बनाना है। एक साथ चुनाव की बात सुनने में अच्छी लगती है. इस विचार के पीछे इरादा अच्छा नहीं है।यह प्रस्ताव लोकतंत्र की बुनियाद पर कुठाराघात हैं। यह जनता की इच्छा के विरुद्ध है। इसके पीछे अधिनायकवादी रवैया है। चुनाव सुधारों के लिए प्रस्ताव का समर्थन करने वालों में जदयू और अकाली दल (एनडीए), अन्नाद्रमुक, समाजवादी पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) शामिल हैं। दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, तेलुगू देशम पार्टी, द्रमुक, जेडीएस, एआईएफबी, माकपा, एआईडीयूएफ, गोवा फार्वर्ड पार्टी (भाजपा की सहयोगी) विरोध में हैं।
एक साथ चुनाव कराने का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों के अपने सवाल हो सकते हैं। 1983 में चुनाव आयोग ने 1971 में लोकसभा चुनाव, 1972 में 18 विधानसभाओं को भंग करने, 1977 में लोकसभा चुनाव फिर विधानसभाओं के चुनाव, 1980 में लोकसभा चुनाव और गैर कांग्रेसी सरकारों को गिराने की घटनाओं के मद्देजनर एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव पेश किया था। एक साथ चुनाव करान के साथ ही कांग्रेस इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से चुनाव कराने के खिलाफ हैं।
हम नहीं चाहते हैं कि बूथ कैप्चरिंग का दौर वापस आए- चुनाव आयोग
राजनीतिक दलों के साथ बातचीत के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ी संबंधी तमाम दलों की चिंताओं पर आयोग गंभीर है और आम चुनाव से पहले इसका निराकरण कर देगा। कांग्रेस सहित तमाम अन्य दलों द्वारा मतपत्र से मतदान कराने की मांग के सवाल पर रावत ने कहना है कुछ दलों का कहना है कि मतपत्र पर वापस लौटना अच्छा नहीं होगा, क्योंकि हम नहीं चाहते हैं कि बूथ कैप्चरिंग का दौर वापस आए। हालांकि ईवीएम गड़बडियों की शिकायतों पर चुनाव आयोग ने ध्यान देने की बात कही है। चुनाव आयोग के साथ बैठक में सभी सात राष्ट्रीय और 51 राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दलों के 41 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
कांग्रेस, एसपी, बीएसपी, तृणमूल कांग्रेस और आप सहित तमाम विपक्षी दलों ने मतपत्र से चुनाव कराने का सुझाव दिया। 1999 में विधि आयोग और 2015 को संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की है। उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अगस्त 2003 में भारतीय जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक में दोनों चुनाव साथ-साथ कराने का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने कहा था इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्थ करने के बाद ही इस पर फ़ैसला किया जाएगा। उस समय तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने इस प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज कर दिया था। इसके बाद आडवाणी लगातार इस मुद्दे को उठाते रहे। 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले भी उन्होंने यह सुझाव रखा था।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तो लोकसभा की सीटें बढ़ाने का भी सुझाव दिया था।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का समर्थन किया था। मुखर्जी ने एक कार्यक्रम ने कहा था कि बार-बार होने वाले चुनावों से प्रशासनिक एवं वित्तीय संसाधनों पर अनावश्यक बोझ पड़ता है और इस बारे में सभी पक्षों को विचार करना चाहिए। चुनावों के दौरान प्रशासनिक एवं विकास के कार्य बुरी तरह प्रभावित होते हैं, क्योंकि इस दौरान विकास की कोई नई परियोजनाएं शुरू नहीं की जा सकती। राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र से जुड़ी परियोजनाओं पर असर नहीं पड़ना चाहिए। इसके लिए चुनाव आयोग, राज्य तथा केंद्र सरकारों एवं राजनीतिक दलों को मिलकर विचार करना चाहिए। मुखर्जी ने तो लोकसभा की सीटें बढ़ाने का भी सुझाव दिया था। उनकी राय थी कि लोकसभा सीटों की संख्या 1971 की जनगणना के अनुसार निर्धारित है और अब समय आ गया है कि सीटों की संख्या बढ़ाए जाने को लेकर कानूनी प्रावधान किए जाएं।
भारत में चुनाव कराना एक बड़ी प्रक्रिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय देश में कुल 83.41 करोड़ वोटर थे। उस चुनाव में 9.27 लाख पोलिंग बूथ थे। नीति आयोग की गवर्निंग काउंसिल की चौथी बैठक में पीएम मोदी ने कहा था कि ‘हमने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ कराने पर विचार-विमर्श का आह्वान कई पहलुओं को ध्यान में रखकर किया है, जिसमें वित्तीय बचत व संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल की बात शामिल है। प्रधानमंत्री के अनुसार 2009 के आम चुनाव के दौरान 1,100 करोड़ रुपये खर्च हुए, जबकि 2014 के चुनाव में 4,000 करोड़ रुपये खर्च हुए। एक अनुमान के अनुसार राजनीतिक दलों ने लोकसभा में 30 हजार करोड़ खर्च किए।
तेलंगाना में जल्दी चुनाव कराने की घोषणा की जा सकती है।
एक साथ चुनाव कराने को लेकर विपक्षी दलों की आशंका यह है कि अगर एक साथ चुनाव हुए तो उन्हें हार का सामना कर पड़ सकता है। खासतौर पर क्षेत्रीय दलों को हार की ज्यादा आशंका सता रही है। एक सर्वे के अनुसार यदि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते हैं 77 फीसदी वोट एक पार्टी को जा सकते हैं। वैसे तो तेलंगाना राष्ट्र समिति एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में हैं। तेलंगाना विधानसभा भंग होने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री राज्य में बदलते राजनीतिक हालातों के मद्देनजर जल्दी चुनाव कराना चाहते हैं। तेलंगाना में जल्दी चुनाव कराने की घोषणा की जा सकती है। तेलंगाना में लोकसभा चुनाव के समय मतदान होना है। लेकिन तेजी से बदल रही राजनीति में टीआरएस की मंशा है कि लोकसभा चुनाव के दौरान उसका ध्यान विधानसभा चुनाव पर ही न रहे। विधानसभा चुनाव से निश्चित होने के बाद टीआरएस के पास किसी भी गठबंधन के साथ जुड़ने की स्वतंत्रता भी होगी। यही कारण है कि टीआरएस नवंबर में ही चुनाव चाहता है। भाजपा के एक नेता ने भी तेलंगाना विधानसभा जल्दी भंग होने की संभावना जताई है। तेलंगाना राष्ट्र समिति ने एक बड़ी रैली करने का भी ऐलान किया है।
तीन राज्यों के चुनाव तो भाजपा लोकसभा चुनाव के साथ कराने का विचार कर रही है।
यह तो तय है आगामी लोकसभा चुनाव अगले साल अपने तय समय पर अप्रैल-मई महीने में ही कराए जाएंगे। साथ ही यह भी साफ हो गया है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव भी नियत समय पर होंगे। ऐसे में सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संभावना नहीं है। अब यह भी रणनीत बन रही है कि झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव समय से पहले कराएं जाएं। इन तीनों का कार्यकाल 2019 तक है। भाजपा नेताओं का मानना है कि इन राज्यों में एक बार फिर से मोदी की छवि का फायदा पार्टी को मिल सकता है। तीन राज्यों के चुनाव तो भाजपा लोकसभा चुनाव के साथ कराने का विचार कर रही है। लेकिन टीआएस की चिंता यह भी है कि विधानसभा भंग करने पर अगर चुनाव आयोग ने पहले चुना नहीं कराए तो क्या होगा।
नीति आयोग की रिपोर्ट में भी 2024 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव किया गया। देश में इस मुद्दे पर बहस जारी है। नीति आयोग ने एक साथ चुनाव दो चरणों में कराने का प्रस्ताव रखा है। पहला चरण 2019 में 17वें आम चुनाव के साथ और दूसरा 2021 में। 17वीं लोकसभा के चुनाव के समय कुछ विधानसभाओं की अवधि को घटा कर तथा कुछ की अवधि को बढ़ा कर किया जा सकता है। इसी कारण हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव समय से पहले लोकसभा चुनाव के समय कराने पर चर्चा चल रही है। यह भी तर्क रखे गए है कि एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं की दिलचस्पी बढ़ेगी और धन कम खर्च होगा। बार-बार लगने वाली आचार संहिता बचा सकता है, जिससे विकास कार्यों पर असर नहीं पड़ेगा।
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह द्वारा देश में समकालिक चुनाव (एक राष्ट्र, एक चुनाव) के संबंध में विधि आयोग को लिखे गए पत्र के मुख्य बिंदु
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह जी के पत्र के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी ने देश में समकालिक चुनाव (एक राष्ट्र, एक चुनाव) कराये जाने के संबंध में अपना दृष्टिकोण विधि आयोग के सामने रखा। भारतीय जनता पार्टी की यह प्रतिबद्धता है, स्पष्ट विचार है कि भारत जैसे प्रगतिशील लोकतंत्र में चुनाव एक निश्चित समय में और एक निश्चित कार्यकाल के लिए होना चाहिए जिसके कारण जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी को प्रभावी ढंग से पूरा कर सकें।
समकालिक चुनाव केवल एक सिद्धांत नहीं बल्कि 1952 से 1967 तक यह देश में सफल भी रह चुका है। समकालिक चुनाव को लेकर 1970 के बाद जब चुनाव का चक्र बिगड़ा तब उसके बाद निर्वाचन आयोग ने 1983 में, विधि आयोग ने 1999 में और संसदीय समिति ने 2015 में भी इसको कराने की सिफारिश की है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी और वर्तमान राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोबिंद जी ने भी अपने संबोधन में इस विचार को देश के सामने रखा है।
समकालिक चुनाव से जहां एक ओर प्रशासनिक व्यय में कमी आयेगी, वहीं आचार संहिता के कारण रुक जाने वाले विकास कार्यों में भी प्रगति आयेगी और राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च में भी कमी आयेगी। 2014 के लोक सभा चुनाव में 2009 के लोक सभा चुनाव की तुलना में चुनाव का खर्च तीन गुना बढ़ा है, एक साथ चुनाव कराने से उसमें कमी आ सकती है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 2016 में महाराष्ट्र में संसद, लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनाव लगातार होने के कारण पूरे राज्य में 365 दिनों में से 307 दिनों तक आचार संहिता कहीं न कहीं लगी रही जिससे राज्य के विकास में अवरोध उत्पन्न हुआ। ऐसे उदाहरण अनेक राज्यों में देखने में आते हैं।
भारतीय जनता पार्टी का मानना है कि देश ने ऐसे भी उदाहरण देखे हैं जब एक ही राज्य में लोक सभा और विधान सभा चुनावों में जनता ने अलग-अलग पार्टी को शासन करने का अधिकार दिया है। 1980 में कर्नाटक की जनता ने केंद्र के लिए कांग्रेस और राज्य के लिए जनता दल सेक्युलर की सरकार को चुना. हमारे देश में स्वस्थ मतदान की परम्परा है, अतः मतदाता अपने निर्णय के हिसाब से अपनी सरकार को चुनेंगे, इसमें किसी भी चीज का अतिरिक्त प्रभाव नहीं हो सकता और यह देश की संघवाद की भावना के भी अनुरूप है।
वर्तमान में एक समय चुनाव कराने के लिए देश में संविधान तथा जनप्रतिनिधि क़ानून में संशोधन की आवश्यकता है जिस पर आम सहमति बनानी जरूरी है। एक साथ चुनाव् होने से देश के संघीय ढाँचे की स्थिरता को मजबूती और स्थिरता मिलेगी। इसके साथ ही एक समय चुनाव कराने के लिए एक मतदाता सूची, राज्यों के चुनाव नियंत्रित करने वाले अधिनियमों में समानता, चुनाव में एकरूपता और कार्यपद्धति में भी एकरूपता लाने की आवश्यकता है।ऐसा लगता है कि ‘समकालिक चुनाव’ सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक रूप से प्रेरित है तथा अनुचित भी है। सार्वजानिक हितों को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग को ऐसे फैसले लेने का अधिकार दिया जाता है, जिसमें अल्पकालिक असुविधा तो हो सकती है लेकिन निश्चित रूप से देश लंबे समय तक ऐसे निर्णयों से लाभान्वित होगा। यह निर्वाचित सरकार को चुनावों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय विकास और सुशासन के लिए काम करने के लिए प्रेरित करेगा। अन्य विषय जो इससे सम्बंधित हैं, जैसे ईवीएम, वर्क फोर्स, सुरक्षा व्यवस्था इत्यादि वे महत्वपूर्ण पहलू हैं, लेकिन समय के साथ उन्हें भी समाधान किया जा सकता है।
देश के लोगों के दीर्घकालिक और सार्वजानिक हित में, भारतीय जनता पार्टी विनम्रता से यह कहती है कि कई कठिनाइयों के बावजूद, भारतीय लोकतंत्र की सराहनीय विशेषताओं में से एक चुनाव में उच्च मतदाता भागीदारी है। यह लोगों के इस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में गहरे विश्वास को दर्शाता है।हमें इस विश्वास को अपने ही नागरिकों पर भारी पड़ने वाले चुनावी खर्चों और इसके दुष्प्रभावों के बोझ के नीचे नहीं दबाना चाहिए। भारत को एक विकासशील देश होने के नाते चुनावों की बढ़ती लागत, संबंधित सरकारों और चुनाव आयोग पर प्रशासनिक आवश्यकताओं के साथ-साथ चुनाव की अवधि के दौरान‘आचार संहिता’ लागू होने के कारण हो रहे प्रशासनिक घाटे जैसे मुद्दों से बोझिल नहीं होना चाहिए।भारतीय जनता पार्टी विनम्रतापूर्वक कहती है और चाहती है कि उपरोक्त उल्लिखित तथ्य और विषय अन्य राजनीतिक दलों के साथ बहस के दरवाज़े खोलेगा और यह आयोग इस बहस को इसके तार्किक निष्कर्ष की ओर अवश्य ले जायेगा।
URL: Amit Shah Reiterates Demand for One Nation One Poll in Letter to NITI Aayog
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